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This Article is From Sep 19, 2016

अच्छे दिन लाने का वायदा मोदी सरकार के गले में फंसी हड्डी

Sudhir Jain
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    सितंबर 19, 2016 15:49 pm IST
    • Published On सितंबर 19, 2016 15:45 pm IST
    • Last Updated On सितंबर 19, 2016 15:49 pm IST
अच्छे दिन लाने का वायदा मोदी सरकार के गले में फंसी हड्डी बन गया. हैरत यह है ये बात किसी और ने नहीं बल्कि खुद मोदी सरकार के एक बहुत बड़े मंत्री नितिन गडकरी ने पिछले हफ्ते कही है. पिछले साल पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने हरेक के खाते में 15 लाख रुपए जमा करवाने वाले वायदे को चुनावी जुमला बताकर मेट दिया था. देश में बाहर से और भीतर से असुरक्षा का मुददा भी बड़े चुनावी वायदों में था. रविवार को उरी में हुए हमले में 18 फौजियों का मारा जाना रक्षा- सुरक्षा वायदों की याद अलग से दिला रहा है. अनाज उत्पादन में कमी को मौसम के खाते में डालना वायदों को भुलाने जैसा ही है. अपने कार्यकाल के बीच में ही अपने चुनावी वायदों को भुलावे में डालने की ये कोशिशें देश के सत्तर साल पुराने लोकतंत्र के इतिहास में अनोखी घटनाएं हैं. हालांकि मुद्दों को भूल भुलैया में डालने की ये शुरुआत है. जल्द ही मुद्दों को भुलाना भी एक बड़ा मुद्दा बनने वाला है. इसीलिए इस पर सोच विचार की जरूरत है.

वह जुमला और यह गले में फंसी हड्डी
अमित शाह ने हरेक के बैंक खाते में 15 लाख जमा कराने के वायदे को चुनाव जीतने के बाद सिर्फ चुनावी जुमला कह दिया था. इस तरह उन्होंने उस वायदे को बड़ी चतुराई से चुनावी वायदे की श्रेणी से ही बाहर कर दिया था. अब अच्छे दिन के वायदे से मुकरने की तैयारी है. बस तरीका अलग था. दरअसल इससे मुकरने के लिए जुमला बताने वाली तरकीब काम न आ सकती थी. यानी अच्छे दिन के वायदे को नई तरकीब से ही मेटा (मुकरा) जा सकता था. सो नई तरकीब लगाकर यह कहा गया है कि अच्छे दिन का जिक्र तो पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने किया था. हालांकि मनमोहन के पुराने बयानों की पड़ताल की गई तो पता चला कि अपने कार्यकाल में मनमोहन सिंह ने कहा यह था कि अच्छे दिन आने के लिए इंतजार करना पड़ेगा. मनमोहन सिंह की उसी बात को काटते हुए मोदी ने चुनाव के दौरान यह लुभावना वायदा किया था कि अच्छे दिन मैं लाउंगा. चुनाव प्रचार के दौरान यह नारा कैचलाइन बनी थी.

यानी, मनमोहन सिंह ने बिल्कुल दूसरी बात कही थी
अर्थशास्त्र के विश्वप्रसिद्ध विद्वान मनमोहन सिंह ने यह बिल्कुल भी नहीं कहा था कि अच्छे दिन आने वाले है. बल्कि उन्होंने बिल्कुल उलट बात कही थी. उन्होंने कहा था कि अच्छे दिन आने में समय लगेगा और इंजजार करना पड़ेगा. गौर करने की बात यह भी है कि यह बात मनमोहन ने तब कही थी जब पूरी दुनिया में भयावह मंदी का दौर था. उस समय बड़ी जुगत से देश को मंदी से बचाया जा रहा था. मंदी से पार पाने में भारत को कामयाबी मिलने के बाद भी मनमोहन सिंह ने अच्छे दिनों के लिए इंतजार की बात कही थी. यानी उनकी प्रतिष्ठा देश को बुरे दिन से बचा ले जाने वाले विद्वान नेता की बन जानी चाहिए थी. लेकिन यूपीए सरकार में प्रधानमंत्री रहते उनकी छवि को मटियामेट करने की चौतरफा मुहिम चली थी. खैर तब जो हुआ सो हो चुका लेकिन आगे के लिए यह प्रकरण काम आ सके, सो क्या हमें तबके दौर की भी आज गंभीरता से समीक्षा नहीं कर लेनी चाहिए.

चुनावी वायदों पर नजर रखने वाले क्या देख रहे हैं
किसी सरकार के कामकाज की समीक्षा करते रहने का काम मीडिया और विपक्षी दलों का रहता है. हालांकि विपक्ष के नेताओं की बातों को जनता तक पहुंचाने का काम भी मीडिया का है. इस तरह से सारी जिम्मेदारी मीडिया पर ही आ जाती है. इस समय स्थिति यह है कि  नई सरकार के कुल कार्यकाल में से आधा समय गुजर गया है. इसीलिए इसकी लगातर समीक्षा भी जरूरी है. कारण कुछ भी रहे हों लेकिन यह सबके सामने है कि समीक्षा का काम ज्यादा नहीं हुआ. कई मामलों में देश के हालात को जनता के सामने रखते चलने की जिम्मेदारी मीडिया पर ज्यादा आ गई है.

इस बीच क्या क्या याद दिलाया कुछ पत्रकारों ने
ऐसा भी नहीं है कि पूरा का पूरा मीडिया ही देश की वास्तविक स्थिति से आंखें मूंदे रहा हो. दरअसल हुआ ये कि पिछले लोकसभा चुनाव के प्रचार से लेकर चुनाव जीतने और उसके बाद अब तक वायदों ही वायदों का बोलबाला रहा. हर दिन कोई न कोई नई योजना का ऐलान होता रहा. नई सरकार की तरफ से इतनी जल्दी जल्दी नई नई योजनाओं के ऐलान हुए कि मीडिया को पुराने वायदों को याद दिलाने का मौका ही नहीं मिला. फिर भी ऐसा कतई नहीं है कि सरकार को बिल्कुल भी याद न दिलाया गया हो. मसलन, नई सरकार बनने के डेढ़ साल बाद याद दिलाया गया था कि भुलाए नहीं भूले जा पा रहे हैं चुनावी वायदे. सिर्फ इतना ही नहीं पिछला बजट पेश होने के पहले सरकार को यह भी याद दिलाया था कि सबकुछ छोड़छाड़ कर भोजन पानी के इंतजाम पर लगने की जरूरत. मीडिया में एक शोधपरक रिपोर्ट यह भी आई थी कि कहीं फीलगुड में तो नहीं फंसता जा रहा है देश. बुंदेलखंड के हालात भयावह होने से बहुत पहले एक आलेख के जरिए सरकार को आगाह किया गया था कि नए साल में फीलगुड की हवा न निकाल दे बुंदेलखंड. लेकिन इस सरकार में खुद को प्रचारतंत्र का पटु मानने वाले सत्तारूढ़ नेताओं ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया.

मोदी सरकार ने वक्त ज्यादा निकाल दिया
काम हो पाने का सही वक्त इतना ज्यादा निकल गया है कि मुख्य चुनावी वायदों पर काम शुरू करने का अब समय ही नहीं बचा. हालांकि ज्यादातर चुनावी वायदे थे भी ऐसे कि जिनके बारे में शुरू से ही कहा जा सकता था कि उन्हें पूरा किया जाना लगभग नामुमकिन है. इस बात को भी बिहार चुनाव के बहाने एक आलेख में लिखा गया था जिसका शीर्षक था चुनावी वायदों की विश्वसनीयता को कैसे जानें. इससे पता चलता था कि चुनावी वायदे हासिल किए जाने लायक थे ही नहीं. इसीलिए चुनाव जीतने के बाद उन वायदों को भुलाने का अलावा कोई विकल्प है भी नहीं. चुनावी जुमलों का तर्क देकर जितना कुछ संभाला जा सकता था उसे 15 लाख देने के वायदे के मामले में संभालने की कोशिश सफल रही लेकिन समस्या यह है कि इतने सारे चुनावी वायदे किए गए थे कि एक एक करके सभी को जुमला बताना आसान नहीं था. इसीलिए अच्छे दिन के वायदे को जुमला कहने की बजाए उसे जबरन मनमोहन सिंह से जोड़ देने की कोशिश हुई.

अब क्या क्या विकल्प हैं सरकार के पास
प्रबंधन प्रौद्योगिकी के युग में मुश्किलों से पार पाने का तरीका बताने वालों का टोटा नहीं है. जिस तरह सरकारों की छवि को बनाने के  वैज्ञानिक तरीके ईजाद हुए हैं उसी तरह बिगड़ी छवि को सुधारने के भी कई तरीके ईजाद हो चुके हैं. यूपीए सरकार अपनी छवि की मरम्मत करने के काम में भले ही फेल रही हो लेकिन मौजूदा सरकार के पास तो ऐसे विशेषज्ञों का ढेर लगा होना चाहिए. लेकिन उसके साथ यहां भी दिक्कत है. उसने चुनाव के पहले तो प्रबंधन प्रौद्योगिकी के विशेषज्ञों और दूसरे विद्वानों का इस्तेमाल किया लेकिन अपनी सरकार बनने के बाद उन विशेषज्ञों पर ध्यान नहीं दिया. यहां तक कि जेएनयू जैसे विश्वविद्यालयों, आईआईएम और आईआईटी के विद्वानों से इस सरकार ने बिगाड़ और कर ली. ऐसी विकट परिस्थिति में देश के नियंताओं को अगर कोई सुझाव दिया जा सकता है तो यह हो सकता है कि सरकार विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों और विद्वानों को पटाने के काम पर लग जाए. बिल्कुल उसी तरह जिस तरह पिछला चुनाव लड़ने के लिए उनकी सेवाएं ली गई थीं. मौजूदा सरकार की खराब हुई छवि की मरम्मत के काम में नैतिकता अनैतिकता का सवाल जरूर खड़ा होगा लेकिन उससे बड़ा सवाल समूची राजनीतिक व्यवस्था की विश्वसनीयता का भी है. और देश के मनोबल का भी.

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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