सरकार ने एक और गजब कर दिया. एक और गजब का मतलब यह कि जिस तरह कालेधन के जरिए हर एक को 15 लाख देने का और दो करोड़ युवाओं को हर साल नौकरी देने का गजब किया गया था वैसा ही गजब. बस फर्क यह है कि पुराने गजब चुनाव के पहले सत्ता हासिल करने के लिए थे और नया गजब सत्ता बचाने के लिए दिखाई देता है. दोनों में समानता यह है कि न तो पुराने वायदों में विश्वसनीयता का तत्व था और न नए में है. किस तरह से आइए देखें.
सवर्णों को आरक्षण की वर्तमान स्थिति
अभी जातियों के आधार पर साढ़े उनचास फीसद आरक्षण उन जातियों के लिए है जो सवर्ण नहीं हैं. यानी एक तरह से साढ़े पचास फीसद आरक्षण सवर्णों के लिए पहले से ही बचा चला आ रहा है. ये अलग बात है कि इसका लाभ सामान्य श्रेणी की सभी जातियां उठाती हैं. खौफनाक बेरोजगारी के दौर में सवर्ण तबके की तरफ से यह मांग पहले से ही है और आजकल तो और ज्यादा जोरशोर से उठवाई जा रही है कि आरक्षण जाति के आधार पर नहीं बल्कि आर्थिक आधार पर होना चाहिए. इस तर्क को कमजोर बताने वाले कहते हैं कि आजादी के बाद जाति के आधार पर आरक्षण का फैसला यही देखकर तो किया गया था कि वे जातियां सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ी हुई हैं. सदियों से दबाई गई, कुचली गईं और पीछे धकेली गई जातियों को आजादी के बाद सरकारी नौकरियों में और सरकारी पढ़ाई में एक सीमित आरक्षण ही दिया गया था. पिछड़े का मतलब ही यह लगाया गया था कि वे आर्थिक रूप से पिछड़े लोग हैं. माना गया था कि उनकी आर्थिक स्थिति सुधरेगी तो उनकी सामाजिक स्थिति भी सुधर जाएगी. पिछले सात दशकों में यह काम चलता रहा. लेकिन बाद में पता चला कि सदियों से दबाए और कुचले गए देश के पास संसाधन सीमित हैं. लिहाजा पूरा दमखम लगाने के बावजूद आजादी के बाद बनी अपनी खुद की सरकारों यानी लोकतांत्रिक सरकारों ने अभी तक वह लक्ष्य हासिल नहीं कर पाया जिसे हम समता वाला समाज कह सकें. सबके विकास का नारा लगाना आज भी उसी शक्ल में चालू है. एक से एक राजनीतिक वीर आए और दम लगाकर जाते गए. लेकिन सबको नौकरियां या सबको बराबरी की पढ़ाई का पूरा इंतजाम अब तक भी न कर सके. इसी अधूरी कामयाबी का नतीजा है कि आज भी सबको बराबरी पर लाने का नारा राजनीतिक फायदा उठाने के लिए उपलब्ध है. आरक्षण उसी नारे का एक रूप था और नवीनतम नारा बना है गरीब सवर्णों को भी आरक्षण.
भारी बेरोज़गारी के दौर में इस नायाब प्रस्ताव के मायने
बेशक जाति के आधार पर आरक्षण का विरोध सवर्णों का एक तबका इसलिए करता है क्योंकि यह भारी बेरोजगारी का दौर है. औसतन चार सरकारी नौकरी के पद के लिए औसतन आठ हजार बेरोजगार युवा लाइन में लगे दिखते हैं. इनमें जिन 7996 युवकों को नौकरी नहीं मिलती उन सारे के सारे 7996 युवाओं को लगता है कि चार में से जिन दो आरक्षित श्रेणी के युवाओं को नौकरी मिली है वह उनके अपने हिस्से की थी. आरक्षण का विरोध करने वाले युवाओं की भीड़ को अभी कोई भी यह नहीं समझा पाया कि अगर आरक्षण न भी हो तब भी आठ हजार में से 7996 बेरोजगार ही बने रहेंगे. क्योंकि सरकारी नौकरियां तो सिर्फ चार ही हैं. इसी तरह सरकारी संस्थानों में दाखिलों के लिए भी इस कदर की मारामारी है कि सरकारी प्रौद्योगिकी संस्थानों, सरकारी मेडीकल कालेजों और सरकारी प्रबंधन संस्थानों में अगर आरक्षण न भी हो तो उतने ही लाख सवर्णों को दाखिला नहीं मिलेगा जितने लाख बेरोजगारों को अभी चालू आरक्षण की व्यवस्था में दाखिला नहीं मिलता. यानी समस्या आरक्षण की नहीं बल्कि खौफनाक आकार की बेरोजगारी की है. और न दाखिलों में आरक्षण की समस्या उतनी बड़ी है जितनी बड़ी समस्या लगभग नगण्य संख्या में उपलब्ध सरकारी शिक्षा संस्थानों की है.
चुनाव की पूर्व संध्या पर इस आरक्षण के मायने
आरक्षण मिला नहीं है इसकी लिखापढ़ी शुरू करने का सरकारी प्रस्ताव भर है. सरकार के कार्यकाल के आखिरी साल में आखिरी तीन महीनों में अचानक यह प्रस्ताव प्रचारित हुआ है. प्रस्ताव को भी सिर्फ केबिनेट से मंजूरी मिली है. अब लोकसभा में बात होगी. अभी यह भी पता नहीं है कि पचास फीसद से ज्यादा आरक्षण न होने का अदालती आदेश कितना आड़े आएगा. तब संविधान में संशोधन या अध्यादेश या अधिनियम का लंबा चक्कर चलेगा. सब जानते हैं कि संविधान में संशोधन कितना संवेदनशील मामला होता है. इतना ही नहीं इसके कानूनी पहलू के कारण अदालती मसला फिर बनेगा. ये तो कोई भी कह सकता है कि इस चक्कर का चलना इस सरकार के बचे चंद दिनों के कार्यकाल में तो लगभग असंभव है. हां चुनावी प्रचार जरूर हो सकता है. ऐसे सुविधाजनक प्रचार के लिए लोकसभा में सरकार अपने फैसले को पेश करके बात आगे सरका सकती है. और इस लोकसभा चुनाव में प्रचार का यह हथियार चला सकती है कि देखिए हमने तो आर्थिक आधार पर आरक्षण का काम शुरू कर दिया था. जाति के आधार पर आरक्षण पाए तबकों को यह जताते हुए सरकार प्रचार कर सकती है कि मौजूदा आरक्षण को छुए बगैर हमने गरीब सवर्णों को आरक्षण का काम अपनी तरफ से तो कर दिया था. सरकार यह कहती रह सकती है कि अब ये काम संसद में या संविधान में या अदालत में नहीं हो पा रहा है तो हम क्या करें. यानी सरकार ने इस फैसले का ऐलान करके वाकई नया गजब कर दिया. हां इतना जरूर है कि सवर्ण गरीबों को कुछ समय के लिए कम से कम यह झुनझना मिल गया है. और वे चाहें तो आरक्षण मिलने की उम्मीद लगाकर लोकसभा चुनाव के दौरान ये झुनझुना बजाते हुए खुश भी हो सकते हैं.
गरीबी की परिभाषा का नया चक्कर फंसेगा अलग से
अभी सुनने को मिला है कि जिन सवर्ण परिवारों की आमदनी आठ लाख रुपए प्रतिवर्ष से कम है उनके सदस्यों को गरीब माना जाएगा. आजकल तीन से आठ लाख आमदनी वाला परिवार तो अच्छा खाता पीता परिवार माना जाता है. वह इनकम टैक्स भी देता है. यानी गरीब सवर्णों के नाम पर एक अच्छी खासी तादाद में लोगों को लुभाया जा सकता है कि सरकार ने आपके लिए आरक्षण कर दिया. लेकिन खुद को योग्य समझने वाले इस बड़े भारी तबके के लिए 10 फीसद आरक्षण से क्या वे यह मान सकते हैं कि अब उनके लिए नौकरी या दाखिले पाने में कोई सुविधा हो जाएगी. वैसे भी अभी आरक्षण के बाद जो साढ़े पचास फीसद नौकरियां सामान्य श्रेणी के लिए बची रहती थीं उन्हें पाने का मौका तो उनके पास पहले से ही था. वह बड़ी बात अपनी जगह है ही कि सरकारी नौकरियां हैं ही कितनी सीं, जिनके लिए कोई भी तबका यह उम्मीद लगा ले कि अब उसे सरकारी नौकरी पाना आसान हो जाएगा. कुल मिलाकर सवर्ण जातियों को साढ़े पचास फीसद पहले भी हासिल था और नई व्यवस्था में वही रहेगा. बस आठ लाख से उपर वाले अपने से नीचे वालों पर खामखाह ही आंखें तरेरने लगेंगे. दूसरा लफड़ा गरीबी के आंकड़ों का होगा. अचानक गरीबी का आंकड़ा बढ़ने की बातें उठने लगेंगी. गरीबी की अंतरराष्ट्रीय रेटिंग निकालने वाली संस्थाएं कहने लगेंगी कि इस बीच पूरा देश ही गरीब हो गया है.
बहरहाल कुछ भी हो, सरकार के खिलाफ राफेल, किसान, बेरोजगारी जैसे तमाम मुद्दों को लेकर सरकार के खिलाफ जो तूफान सा मचा है वह जरूर इस आरक्षण की नई चर्चा से दब सकता है. चुनाव की बेला में नई चर्चा से अगर इतना भर भी हो पाया तो इसे सरकार के लिए फिलहाल एक बड़ी राहत समझा जाएगा.
सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्त्री हैं...
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