असहमति को 'सेफ्टी वॉल्व' कहे जाने के मायने...

इस मामले में सुनवाई के दौरान अदालत ने एक दार्शनिक वाक्य भी बोला है - असहमति लोकतंत्र का 'सेफ्टी वॉल्व' है... यह सार्थक वाक्य इतिहास में ज़रूर जाएगा.

असहमति को 'सेफ्टी वॉल्व' कहे जाने के मायने...

पुलिस ने जिन विद्वानों को दबिश डालकर पकड़ लिया था, उन्हें वापस उनके घर छोड़कर आना पड़ा. लेखकों, कवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी पर यह रोक सुप्रीम कोर्ट के आदेश से हो पाई. गौरतलब है कि भारतीय न्याय व्यवस्था की एक-एक बात संजोकर रखी जाती है. अदालतों के आदेशों को इतिहास की अलमारी में संगवाकर रखा जाता है. सुप्रीम कोर्ट ने इन विद्वानों की गिरफ्तारी पर रोक लगाकर उसे नज़रबंदी में तब्दील करने का जो अंतरिम आदेश दिया, वह भी इतिहास में सुरक्षित रखा जाएगा. यह आदेश जिनके खिलाफ है, वे कह सकते हैं कि यह आदेश अंतिम निर्णय नहीं है, लेकिन इस मामले में सुनवाई के दौरान अदालत ने एक दार्शनिक वाक्य भी बोला है - असहमति लोकतंत्र का 'सेफ्टी वॉल्व' है... यह सार्थक वाक्य इतिहास में ज़रूर जाएगा. इतना ही नहीं, अदालत ने अपराधशास्त्रियों और न्यायशास्त्रियों को सोच-विचार का एक विषय भी दे दिया है.

यानी असहमति अपराध नहीं...
खासतौर पर लोकतंत्र में तो बिल्कुल नहीं. लोकतंत्र की सीधी-सरल-सी परिभाषा यही है कि वह राजनीतिक तंत्र, जिसमें जनता आपसी राय-मशविरे से अपने लिए विधान बनाती है. राय-मशविरे के दौरान सहमति-असहमति हर हाल में होती है, सो, इस तरह असहमति पर पाबंदी का मतलब है लोकतंत्र को खारिज कर देना. इस तरह सुप्रीम कोर्ट ने एक दार्शनिक वाक्य कहकर सरकार, पुलिस और न्यायशास्त्रियों को सोचने-समझने का सुझाव दिया है.

विचारधाराओं के बीच झगड़े का मसला...
खासतौर पर राजनीतिक विचारधाराओं के बीच वाद-विवाद का मसला. पौराणिक कथाओं को छोड़ दें, तो ज्ञान के विकास का ज्ञात इतिहास 2,500 साल का हो गया है. इस दौरान एक न्यायपूर्ण राज व्यवस्था तय करने के लिए हर तरह से सोचा गया. राजशाही, अधिनायकवादी, अभिजात्य प्रभुत्व, लोकतंत्र, संवैधानिक लोकतंत्र जैसी कई राज-व्यवस्थाएं सोची गईं. आमतौर पर तय पाया गया कि संवैधानिक लोकतंत्र सबसे ज़्यादा निरापद, यानी सबसे कम हानिकारक है. कम से कम हमने तो आज़ादी के बाद खूब सोच-विचार कर और आमराय से यही तय किया और आज 70 साल से उसी को अपनाए हुए हैं.

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इस व्यवस्था में जनता अपने भले-बुरे का ख़याल रखते हुए एक विधान बनाए हुए है. अपने प्रतिनिधियों के ज़रिये जनता विधान बनने के बाद उसमें रद्दोबदल भी करती रहती है. लेकिन ये संशोधन भी जनता के बीच राय-मशविरे से करने का विधान है. इस काम के लिए किसी भी बात पर सहमति और असहमति की छूट देनी होती है. कुछ भी तय करने के लिए बहस होती है कि क्या सही है और क्या गलत. तरह-तरह की राजनीतिक विचारधाराएं दावा करती हैं कि उनका सोचा हुआ ही सही है. यहीं से नया झगड़ा शुरू होता है. अपने देश में दुनिया की अब तक सोची गईं लगभग सभी विचारधाराओं के मानने वाले लोग हैं, इसीलिए हमारे लोकतंत्र में बहुदलीय प्रणाली मान्य है. इस लिहाज़ से देखें, तो एक विचारधारा विशेष के विद्वानों, जो मानवाधिकारों की रक्षा के लिए भी काम करते हैं, की गिरफ्तारी की बजाय उनके घर पर ही सिर्फ नज़रबंदी का अदालती निर्देश बहुत कुछ कह रहा है.

 अपने लोकतंत्र के निरापद होने का लक्षण...
और अच्छा होता, अगर यह बात किसी दार्शनिक या न्यायशास्त्री या अपराधशास्त्री और न्यायिक विज्ञानी की तरफ से कही जाती. हो सकता है, यह इसलिए नहीं हो पाया हो, क्योंकि इस समय का राजनीतिक पर्यावरण ऐसी बात कहने लायक बचा नहीं है. बहरहाल, अगर आपराधिक न्याय प्रणाली के एक प्रमुख अंग, यानी न्यायालय की तरफ से यह कहा गया है, तो इसे अपने लोकतंत्र के निरापद होने का लक्षण माना जाना चाहिए.

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'सेफ्टी वॉल्व' कहे जाने के मायने...
असहमति को लोकतंत्र का 'सेफ्टी वॉल्व' कहे जाने का ज़्यादा विश्लेषण अभी हुआ नहीं है. दरअसल किसी शब्द या वाक्य के मायने सरल भाषा में समझाने वाले विद्वान आजकल सुविधाजनक स्थिति में नहीं हैं. फिर भी यह मतलब तो निकाल ही लिया गया है कि अगर लोकतंत्र में वैचारिक असहमति की गुंजाइश न छोड़ी जाए, तो भीतर ही भीतर असहमति का दबाव बढ़कर वह प्रेशर कुकर की तरह फट भी सकता है. एक मायना यह भी निकाला जा सकता है कि किसी विरोध को पूरा उभरने से पहले उसके अंकुर को मार देना फायदेमंद रहता है. बेशक, अदालत के अंतरिम आदेश की एक सार्थकता यह भी है कि इससे लोकतांत्रिक व्यवस्था की विश्वसनीयता बढ़ी है.

कितना आगे जाएगी यह बात...?
दोनों बातें हो सकती हैं. बात यहीं ठहरा दी जाए और ठंडी कर दी जाए, या फिर बात बढ़ाकर उसके राजनीतिक नफे-नुकसान का हिसाब लगाया जाए. हर सरकार को अपने खिलाफ एक स्वाभाविक विरोध से जूझना ही पड़ता है. अपनी मौजूदा सरकार अलगाववाद व उग्रवाद के मोर्चे पर अपनी कमज़ोरियों के कारण भी परेशानी में है. सरकार के पूरे सवा चार साल उग्रवाद व आतंकवाद को खत्म करने के अपने वादों को भुलाने और पीछा छुड़ाने में गुज़रे हैं. सामाजिक अन्याय को लेकर विरोध भी सरकार को परेशान किए है. ऊपर से अब चुनाव सिर पर आ गए हैं, सो, इस लिहाज़ से देखें, तो विचारधाराओं की लड़ाई में पड़ने का उसके पास वक्त नहीं बचा. लिहाज़ा, विद्वानों के खिलाफ वैचारिक हमले की बजाय इसे कानून एवं व्यवस्था का मामला बताने का विकल्प भी है. ऐसा कर भी फौरी दबिश डाली जा सकती है. फिर भी दिक्कत यह आएगी कि जिन विद्वानों और सामाजिक कार्यकर्ताओं पर यह दबिश डलेगी, उन्हें जनता उग्रवादी या आतंकवादी मानने के लिए इतनी आसानी से तैयार नहीं होगी. इन विद्वानों की गिरफ्तारी के खिलाफ देशभर में जिस तरह का विरोध दिखा है, उससे सत्तारूढ़ दल सोच में तो ज़रूर पड़ा होगा.

क्या सोचने के लिए मजबूर कर रहा है यह माहौल...?
वैसे तो जब मौजूदा सरकार सत्ता में आई आई थी, तब से ही विचार और विद्वानों के खिलाफ माहौल बनाया जाना शुरू हो गया था. यहां तक कि लेखकों, कवियों और विद्वानों के मौन विरोध प्रदर्शन का सत्तापक्ष के चतुर विद्वानों की तरफ से मुखर विरोध कराया गया था (यह आलेख पढ़ें : मौन साहित्यकारों के खिलाफ मुखर विरोध). उसी समय एक चिंता यह भी जताई जाने लगी थी कि पत्रकारिता पर दबिश डालने या उसे फुसलाने का माहौल बनाया जाने लगा है (यह आलेख पढ़ें : कहीं पत्रकारिता की शक्ल अचानक बदलने तो नहीं लगी...?) यानी असहमति या अहिंसक विरोध की जबर्दस्त मुखाल्फत का काम नई बात नहीं है. नई बात यह है कि किसी भी तरह की असहमति पर पीछे से हमले को रोकने के लिए इस बार सुप्रीम कोर्ट ने सजगता दिखाई है. भले ही सुप्रीम कोर्ट की यह सजगता अभी अस्थायी आदेश के रूप में है, लेकिन कम से कम इस आदेश से देश के जागरूक समाज में लोकतंत्र के गुणधर्म पर बेखौफ सोच-विचार करने का मौका तो बन ही गया है.

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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