सुधीर जैन : आइये समझें साहित्यकारों के विरोध और इसकी राजनीति को

सुधीर जैन : आइये समझें साहित्यकारों के विरोध और इसकी राजनीति को

नई दिल्ली:

पुरस्कृत साहित्यकार उन्हें मिले सम्मान वापस करने का सिलसिला बनाए हुए हैं। वैसे गाहेबगाहे ऐसा होता रहता था, लेकिन इस बार एक बात खास है। आज साहित्यकार तबका चौतरफा असंतोष में है, इसीलिए यह ज़्यादा गौरतलब है। वैसे घटनाप्रधान हो चली भारत की पत्रकारिता के लिए इस समय यह खबर भर है। समाज में सांप्रदायिकता से चिंतित साहित्यकारों के असंतोष प्रदर्शन का आगा-पीछा देखने के लिए विश्लेषण शुरू होना बाकी है।

इस हफ्ते साहित्यकारों का विरोध प्रदर्शन और तेज होने के आसार हैं। खासतौर पर लेखकों के पांच संगठन और दो पत्रकार संगठन मंगलवार को स्वतंत्रता के पक्ष में खड़े होकर सभा करने वाले हैं। ज़ाहिर है, इससे पता चलेगा कि इस विरोध प्रदर्शन की तीव्रता क्या है...? उसके बाद लेखकों, पत्रकारों और जागरूक बुद्धिजीवी समाज की तरफ से अगर खुलकर बताने या समझाने का दौर चल पड़ा तो देश में मौजूदा राजनीतिक हालात पर आम लोगों की टीका-टिप्पणी का सिलसिला भी शुरू हो सकता है।

अगले हफ्ते होने वाली एक और घटना भी ऐतिहासिक होगी, जब लेखक मौन जुलूस निकालेंगे। लेखकों, यानी साहित्यकारों का मौन जुलूस यानी निःशब्द प्रदर्शन क्या कह रहा होगा, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। फिर भी 2014 के लोकसभा चुनाव के दो साल साल पहले से देश में जिस तरह खुलकर बोलने और पिछली सरकार के खिलाफ आक्रामक प्रचार का सिलसिला शुरू हुआ था, हम सब उसके चश्मदीद हैं।

भ्रष्टाचार को लेकर अन्ना हज़ारे हों, बाबा रामदेव हों, या महंगाई को लेकर मीडिया हो, सबकी तीव्रता जबर्दस्त थी। ये सब खुद को सामाजिक कार्यकर्ता बताकर सक्रिय हुए थे। भारतीय पत्रकारिता ने भी उन्हें उन-उन मामलों का जानकार बताते हुए ही इतना महत्व दिया था। उन्हें इतना महत्व दिया गया था कि भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे विषयों के जानकार, देश के दिग्गज राजनीतिक लोग और कलात्मक रूप से समाज की दशा को चित्रित करने वाले साहित्यकार छोटे पड़ गए थे। वैसा क्यों हो पाया, इसका अनुमानित उत्तर यही हो सकता है कि लोकसभा चुनाव के दो साल पहले से शुरू हुआ कथित 'देश बचाओ अभियान' सड़कों पर भीड़ जमा करके शुरू हुआ था। तब समाज का दर्पण कहा जाने वाला साहित्य अक्रिय था और तब साहित्यकार समाज का कोई तबका सक्रिय दिखा भी तो वह तबका, जिसे हम आज साहित्यकार या पत्रकार के रूप में पहचान भी नहीं पाते।

पिछले चार साल से बनाए जा रहे माहौल को किसी उदाहरण या तुलना के लिहाज से देखना ज़रूरी लगे तो सन 1971 से 1975 के बीच के समय का जिक्र किया जा सकता है। वह समय आज के आधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी जैसा युग नहीं था। तब जनमानस को बनाने और बदलने का काम पत्रकार से ज़्यादा साहित्यकार ही किया करते थे। अखबार से ज़्यादा पत्रिकाएं पढ़ी जाती थीं। पत्रिकाओं में इशारों में लिखी कहानियां और कविताएं नए-नए स्वतंत्र हुए भारत के पाठक बड़े मनोयोग से पढ़ते थे। बड़े-बड़े साहित्यकारों की छोटे से छोटे कस्बे तक में पूरी पहुंच थी। खून-पसीना बहाकर मिली आज़ादी में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक जीवंत मुहावरा था। सन 1971 से 1975 का वह दौर जिन लोगों ने बिल्कुल पास से देखा है, वे याद कर पाते होंगे कि सत्ता की रस्साकशी के उस दौर में दंगे-फसाद, कॉलेजों और यूनिवर्सिटी परिसरों में आए दिन तोड़फोड़ और आगजनी का वह कैसा समय ला दिया गया था।

सन 1975 के आपातकाल में लेखकों, यानी साहित्यकारों और पत्रकारों के खुलकर लिखने पर अस्थायी नियंत्रण का जिक्र जरूरत पड़ने पर आज भी किया जाता है। मौजूदा सत्ताधारी व्यवस्थापक आज तक आपातकाल के दिनों में अभिव्यक्ति की आजादी पर 19 महीनों की बंदिश को याद दिलाते आए हैं। इतना ही नहीं, सन 1971 से लेकर 1975 तक बने हालात में आपातकाल का कानूनी यंत्र इस्तेमाल करने वाले व्यवस्थापक तक अपने उस फैसले के सही या गलत होने का जिक्र तक नहीं करते।

हालांकि इस बात की जांच-पड़ताल भी कभी नहीं हुई कि एक बार अभिव्यक्ति की आजादी पर अस्थायी रोक लगाकर सारा कामकाज ठीक-ठाक ढंग से चलाने के बाद उन्हीं व्यवस्थापकों ने 1977 में आपातकाल क्यों हटाया था और लोकतांत्रिक ढंग से चुनाव करवाकर हालात बहाल कैसे हो गए...? निष्कर्ष यह कि चाहे सत्ताधारी वर्ग रहा हो और चाहे उसका प्रतिद्वंद्वी विपक्षी वर्ग, सभी की ओर से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता समग्र रूप से, संपूर्णता से, निर्विवाद रूप से स्वीकृत है, तो फिर मौजूदा परिस्थिति में साहित्यकार वैचारिक युद्ध करेंगे किससे...?

हां, एक स्थिति बनती है कि साहित्यकार मौजूदा सत्ताधारी व्यवस्थापकों के सामने यह तर्क रखें कि आप लोग सैद्धांतिक रूप से तो खुद को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में बोलते थे, लेकिन आज जब व्यवहार का मौका आया तो अपने कट्टरपन के खिलाफ वाजिब टिप्पणी तक को सहन नहीं करते। अगले हफ्ते साहित्यकारों के विचार-विमर्श में उन सबूतों को चिह्नित करने की ज़रूरत पड़ेगी कि मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान किस-किस तरह से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करता है या अभिव्यक्ति की आज़ादी का हिंसक दमन करता है...?

लेकिन एक महत्वपूर्ण और विचारणीय स्थिति और भी बचती है।

बात 2006 की है। दिल्ली के राजेंद्र भवन में एकेडमी ऑफ जर्नलिस्ट के गोलमेज सम्मेलन के अगले दिन पत्रकारों से बातचीत में उस समय की पत्रकारिता के शीर्ष पुरुष प्रभाष जोशी ने अगली बैठक के मुद्दे को जानना चाहा था। उसी समय उन्होंने आगाह किया था कि पत्रकारिता की आज़ादी पर संकट किसी दमन या बंदिश का कम, उसे फुसलाए जाने का ज़्यादा है।

खैर, देखते हैं 20 अक्टूबर को आज़ादी के हक में साहित्यकारों और आज़ादीपसंद लोगों की प्रतिरोध सभा में क्या विचार-विमर्श होता है... इस बीच स्वतंत्रताप्रिय मेधावी समाज को फुसलाए जाने की क्या-क्या स्थितियां बनती हैं और उसके बाद 23 अक्टूबर को लेखकों और पत्रकारों का मौन जुलूस, यानी उनकी निःशब्द अभिव्यक्ति कितनी प्रभावी रहती है...?

- सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं

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