सिस्‍टम से हारते छात्र, विस्‍थापित और कमजोर, ये बेस्ट बात है

हमारा सिस्टम लोगों को दौड़ाने में माहिर है. ओडिशा से एक छात्र ने लिखा है कि 2017 में सप्लाई इंस्पेक्टर की परीक्षा का फार्म निकला, नवंबर 2018 में परीक्षा हुई लेकिन सितंबर 2019 में पता ही नहीं कि रिज़ल्ट कहां है.

क्या आप जानना चाहेंगे कि भारत का बेरोज़गार किन हालात में सरकारी भर्ती की परीक्षा देने जाता है. हममें से किसी को अंदाज़ा नहीं कि जब कहीं भर्ती निकलती है तो छात्रों पर क्या गुज़रती है. छात्र पढ़ाई के साथ प्रदर्शन की भी रणनीति बनाने लगते हैं. अब देखिए रेलवे के ग्रुप डी में बहुत से छात्रों के फार्म रिजेक्ट हो गए. एक बार रेलवे ने सुधार का मौका दिया लेकिन उसके बाद भी बहुतों के रिजेक्ट हो गए. छात्रों का कहना है कि फोटो के कारण रिजेक्ट हुआ जो समझ नहीं आ रहा है क्योंकि फोटो तो ठीक लगा. कभी वो ट्विटर पर ट्रेंड कराते हैं तो कभी प्रदर्शन करते हैं मगर उन्हें सफलता नहीं मिलती है. अगर हम सरकारी भर्ती की परीक्षा देने के इनके अनुभवों को रिकार्ड करें और आप देखें तो आपको अलग ही भारत दिखेगा जहां सब ठीक ठाक लगेगा. वाकई ठीक ठाक वाली बात है क्योंकि आप हैरान हो जाएंगे कि इतनी पीड़ा और मानसिक परेशानी के बाद भी ठीक है, यही हैरत की बात है. हरियाणा में पिछले तीन दिनों में एक परीक्षा को लेकर क्या हुआ, हम उसका हाल दिखाना चाहते हैं. 4858 क्लर्क के पदों के लिए 15 लाख से अधिक आवेदन आ गए. उसकी परीक्षा के लिए छात्र जब एक ज़िले से दूसरे ज़िले की तरफ जाने लगे, जब घरों से निकले तो बस कम पड़ गई, ट्रेनें कम पड़ गईं. हमारा नौजवान जब परीक्षा देने निकलता है तब प्रशासन सतर्क हो जाता है. वह नकल रोकने का मोर्चा खोल लेता है. परीक्षा आयोजित कराने के लिए जहां सेंटर था वहां धारा 144 लगानी पड़ी थी. हरियाणा से पूछिए कि शनिवार से लेकर सोमवार का दिन इस परीक्षा के कारण कैसे गुज़रा है.

पानीपत स्टेशन पर खड़ी इस ट्रेन के इंजन के बाहर परीक्षा देने वालों की भीड़ आप देख सकते हैं. लड़के लड़कियां दोनों जान पर खेलकर परीक्षा देने गए. बस में न ट्रेन में पांव धरने की जगह नहीं है. परीक्षा देने निकले छात्रों ने प्रदर्शन भी किया. पटरी के आगे जाम लगा दिया. पुलिस को इन्हें हटाने के लिए लाठियां भांजनी पड़ गई. एक एक शहर में 18 से 20 हज़ार छात्रों के पहुंचने से बस अड्डे से लेकर परीक्षा केंद्रों के रास्ते में भयंकर जाम लग गए. सुभाष के दोनों बेटे विजेंद्र और राजेंद्र कैथल से अंबाला निकले परीक्षा देने के लिए. बाइक से अंबाला परीक्षा देने जा रहे थे. सड़क दुर्घटना में दोनों की मौत हो गई. सुभाष का घर ही उजड़ गया. दोनों बेटे विजेंद्र और राजेंद्र की मौत कैथल में हो गई. दोनों परीक्षा देने गए थे मगर अंबाला के लिए निकले थे, सड़क दुर्घटना में मारे गए. सुभाष का कहना है कि नकल के डर से ही दूर केंद्र रखे जाते हैं. क्या सरकार इसका विकल्प नहीं बना सकती है. 15 लाख लोग जब सड़कों पर निकले तो सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था की पोल खुल गई. बसों में जगह नहीं मिली. ट्रेन के अलावा बसों का भी हाल बुरा था. छतों पर नौजवान सवार थे. दरवाज़ों और खिड़कियों से लटके हुए थे. मीडिया रिपोर्ट के अनुसार इंदरी में बस में भीड़ के कारण दम घुटने से एक नौजवान की मौत हो गई, दिल का दौरा पड़ गया.

परीक्षा केंद्रों के बाहर भी अजीब हंगामा था. चूड़ियां काटी जा रही थीं. नाक और कान से आभूषण उतारे जा रहे थे. बेटियों को लेकर पिता इस सेंटर से उस सेंटर तक भटकते रहे. दिव्यांग शमशेर सिंह 250 किमी का सफर कर कैथल पहुंचे. उनकी बात में दम है कि दिव्यांग और महिलाओं का सेंटर दूर नहीं होना चाहिए. बहुत से छात्रों की परीक्षा छूट गई.

हरियाणा में चुनाव करीब है इसलिए 24 जून को फार्म निकलता है, 8 जुलाई तक फार्म भरे जाते हैं. 14 सितंबर को एडमिट कार्ड मिल जाता है. 21, 22 और 23 सितंबर को परीक्षा होती है, सुपर फास्ट. इस रफ्तार से बाकी परीक्षाएं होने लगें तो क्या ही कहने. मगर होती नहीं हैं. उम्मीद है रिज़ल्ट भी निकलेगा और यह भर्ती चुनावी साबित नहीं होगी. इस परीक्षा के लिए अलग-अलग सामाजिक श्रेणी के 17 साल से 42 साल के युवाओं को शामिल किया गया था. तीन दिन में 15 लाख छात्रों को इधर से उधर करने का इंतज़ाम मामूली काम नहीं होगा. जहां जहां परीक्षा के केंद्र पड़े, वहां वहां जाम की स्थिति पैदा हो गई.

सोमवार को दिल्ली में इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड अकाउंटेंटस ऑफ इंडिया आईसीएआई के छात्रों ने प्रदर्शन किया. दिल्ली के आईटीओ के पास अपने संस्थान के बाहर इन छात्रों ने प्रदर्शन किया. इनका कहना है कि ICAI परीक्षा की कॉपी सही से चेक नहीं करती है. इसके कारण 10 से 12 हज़ार छात्र परीक्षा देते हैं उनमें से सिर्फ 12 से 15 प्रतिशत ही पास होते हैं. बाकी 85 से 88 प्रतिशत फेल हो जाते हैं. छात्रों का कहना है कि कॉपी सही से चेक नहीं होती है. परीक्षा के बाद संस्थान प्रश्नों के उत्तर प्रकाशित करता है. उससे छात्र अपना उत्तर मिलाते हैं. उन्हें लगता है कि जो सही है उसका भी नंबर नहीं मिलता है. संस्थान का कहना है कि जो कॉपी चेक कर रहा है उसका काम है. उसे प्रभावित नहीं किया जा सकता है. छात्रों का कहना है कि ऑब्जेक्टिव प्रश्नों में सही होने पर पूरा का पूरा नंबर मिलना चाहिए लेकिन नहीं मिलता है. देश के कई जगहों में छात्रों ने प्रदर्शन किया है. दिल्ली, जयपुर और रायपुर, बेगलुरू में भी प्रदर्शन हुए हैं. इन छात्रों को लगा कि ट्विटर पर ट्वीट करा देने से सबकी नज़र पड़ जाएगी. ये चाहते हैं कि इनकी कॉपी फिर से चेक की जाए. जिन्होंने गलत कॉपी चेक की है उन्हें दंडित किया जाए. यानी आपने देखा कि भारत का छात्र न सिर्फ परीक्षा कराने के लिए आंदोलन करता है, बल्कि परीक्षा की कॉपी कैसे चेक हो, उसके लिए भी आंदोलन करता है. छात्रों ने ट्विटर पर तस्वीरें डाली हैं कि उनका जवाब सही है लेकिन नंबर नहीं मिले हैं. यह कैसे हो सकता है.

हमारा सिस्टम लोगों को दौड़ाने में माहिर है. ओडिशा से एक छात्र ने लिखा है कि 2017 में सप्लाई इंस्पेक्टर की परीक्षा का फार्म निकला, नवंबर 2018 में परीक्षा हुई लेकिन सितंबर 2019 में पता ही नहीं कि रिज़ल्ट कहां है. ओडिशा से छात्र लिख रहे हैं कि राज्य कर्मचारी चयन आयोग चार से पांच साल में परीक्षा का रिज़ल्ट नहीं निकालता है. 24 दिसंबर 2016 को पुलिस सब इंस्पेक्टर की बहाली निकली थी. तीन साल बाद यानी 8 सितंबर 2019 को इसकी पहली परीक्षा हुई है. न कोई सरकार देख रही है न कोई अदालत. नौजवानों को सरकारों ने परेशान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. अब एक ही सहारा है. नॉन रेजिडेंट इंडियन को यह बात बताई जाए कि भारत के नौजवान जो परीक्षा देते हैं उसका रिज़ल्ट चार साल में भी नहीं आता है. ओडिशा में ही सहायक कमर्शियल टैक्स ऑफिसर की बहाली का विज्ञापन 2016 में आया था. उसकी प्रीलिमनरी परीक्षा 2017 में हुई. आज तक रिज़ल्ट नहीं आया. अभी मेन्स इंटरव्यू और अप्वाइंटमेंट बाकी है. संयुक्त राष्ट्र को भारत की परीक्षाओं पर रिसर्च करना चाहिए. हावर्ड और ऑक्सफोर्ड के रिसर्चर भी भारत के इन युवाओं पर शोध कर सकते हैं. कमाल की बात है कि महीनों से दिखाने के बाद भी सरकार और समाज पर फर्क नहीं पड़ रहा है. सबसे अच्छी बात है कि यह बात युवा भी समझ नहीं पा रहे हैं कि उनके साथ क्या हो रहा है. ये बेस्ट बात है.

आप इन चेहरों को नहीं पहचान पाएंगे. दरअसल हम नहीं जानते थे. इन सबके हाथ में जो तख्ती है, जिस इंसाफ की ये बात कर रहे हैं, उसकी कहानी आपको हजम नहीं होगी. इस बच्चे के दादा जी एक योजना के लिए विस्थापित हुए थे अब ये पोताजी इंसाफ की लड़ाई लड़ रहे हैं. 1960 में दादा जी के समय पोंग बांध के लिए ज़मीन ली गई थी और अब उनका पोता 2019 में पुनर्वास की लड़ाई लड़ रहा है. इन पर नज़र तब पड़ी जब इनकी तरफ से हमारे दफ्तर में सैकड़ों पत्र आने लगे. ये सभी हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा ज़िले के हैं. आप यकीन नहीं करेंगे कि ये लोग 50 साल से अपने हक की लड़ाई लड़ रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट से जीत जाने के बाद भी इन्हें पुनर्वास की ज़मीन नहीं मिली है.

योजनाओं का एलान होता है तो विकास विकास होता है. वो लोग जो योजनाओं से दूर होते हैं, हेडलाइन देखकर खुश हो जाते हैं. जिनकी ज़मीन पर योजना साकार होनी होती है, उनके होश उड़ जाते हैं. वो लंबे समय के लिए मुकदमों और आंदोलनों की शरण में धकेल दिए जाते हैं. सभी सरकारों के पास दिखाने के लिए पुनर्वास की तमाम नीतियां हैं लेकिन उनके लागू होने तक इतना लंबा वक्त गुज़र जाता है कि न तो प्रेस की दिलचस्पी होती है और अगर आप चाहें भी तो रिपोर्ट की काफी इतने सवाल जवाब में उलझ जाती है कि न सवाल समझ आता है और न ही जवाब. जो आम आदमी होता है वह समय समय पर बैनर लिए प्रदर्शन कर रहा होता है. आरटीआई से सूचनाएं ले रहा होता है. प्रधानमंत्री से लेकर चीफ जस्टिस तक को पत्र लिखता रहता है. पूरा मामला ऐसा बना दिया जाता है कि जो विस्थापित होता है वही झूठा नज़र आने लगता है.

हर दिन हिमाचल के कांगड़ा से इस तरह दर्जनों पत्र आते हैं. सारे पत्र टाइप किए हुए हैं. नीचे भेजने वाले का नाम है, सिग्नेचर है. पत्र भेजने वाले बताते हैं कि वे हिमाचल प्रदेश के पोंग बांध के विस्थापित किसान हैं और 50 साल से पुनर्वास के लिए के लिए संघर्ष कर रहे हैं. 50 साल गुज़र गए. कहां क्या चूक हुई यही चेक करने चलिए तो महीनों निकल जाएंगे. इन्होंने अपने पत्र में जो कहा है उसके अनुसार राजस्थान की ज़रूरत के लिए जब पोंग पर बांध बना तो कांगड़ा ज़िले की उपजाऊ ज़मीन डूब गई. जिसमें 339 गांव डूब गए और डेढ़ लाख लोग बेघर हो गए. 1970 में पंजाब, हिमाचल और राजस्थान के मुख्यमंत्रियों के बीच समझौता होता है कि हर विस्थापित को 15 एकड़ से कुछ अधिक ज़मीन दी जाएगी. इसके लिए श्रीगंगानगर में 2.20 लाख एकड़ ज़मीन निकाली गई. मगर इंदिरा नहर का पानी पहुंचने के बाद पोंग के विस्थापितों को सरकार भूल गई. भू-माफियाओं ने फर्जी कागज़ात बनाकर विस्थापित किसानों की ज़मीन अपने नाम कर ली और किसानों को कुछ नहीं मिला. इसके बाद किसान 1996 में सुप्रीम कोर्ट गए. सुप्रीम कोर्ट से किसान जीत गए और अदालत ने ज़मीन देने के लिए पूरी व्यवस्था की, कमेटी बनाई, कमेटी के सदस्य तय किए. 1996 से 2019 तक हाई पावर कमेटी 24 साल में सिर्फ 24 बैठकें कर पाई. श्रीगंगानगर की उपजाऊ ज़मीन न देकर जैसलमेर और बीकानेर में रेतीली, बंजर भूमि दे दी गई. जहां न बिजली है, न पानी है न सड़क न स्कूल. फिर उसी हाई पावर कमेटी ने अक्तूबर 2017 में लिखा कि यह ज़मीन खेती लायक नहीं है. उस ज़मीन के आवंटन को कैंसल कर कहा कि नई ज़मीन दी जाए. 48 साल से ये कमेटी कमेटी में उलझे हुए हैं मगर ज़मीन नहीं मिली. यह पत्र मेरे पास ज़रूर आया है मगर संबोधित है भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी को. 50 साल लग जाते हैं पुनर्वास के. यह हाल है इंसाफ है, सिस्टम का. इस पत्र में किसानों ने अपना फोन नंबर, गांव का पता सब दिया है. जो लिख सकते हैं मुश्किल से अपना नाम लिख पाए हैं और जो दस्तख़त नहीं कर सकते हैं वहां अपना अंगूठा छाप लगाया है. आज के प्रेस को मालूम नहीं है कि ऐसी समस्याओं का कवरेज कैसे हो. लिहाज़ा लोग पत्र लिख रहे हैं. कांगड़ा के इन किसानों की मानसिक परेशानी का अंदाज़ा कीजिए. वो कमेटी कमेटी, कोर्ट कोर्ट करते करते 50 साल में कितना टूट गए होंगे. यह है हमारा सिस्टम है. दरअसल भारत में सब ठीक होने का यही मतलब हो गया है. जैसा है वैसा ही बने रह जाना है सब ठीक होना है.

50 साल पहले जब विस्थापन हुआ था तब 17000 परिवार थे लेकिन अब उनका परिवार बड़ा हो गया है जो 35-40 हज़ार हो गए हैं. किसानों की तीसरी पीढ़ी हक की लड़ाई लड़ रही है. दूसरी तरफ हाई पावर कमेटी में इन 24-30 सालों में इतने कागज़ पत्र जमा हो गए होंगे, कितने अधिकारी आकर चले गए होंगे कि इनके जवाब का कोई मतलब नहीं होता है. आखिर हम 50 साल में इन किसानों का पुनर्वास नहीं कर पाते हैं. प्रशासन जानता है कि पत्रकार भी उलझ कर छोड़ देगा लेकिन लोगों की लड़ाई का धीरज देखिए, वो 50 साल से अपनी ज़मीन और हक की लड़ाई लड़ रहे हैं.

मीडिया में आने के बाद भी किसे फर्क पड़ा है कि सरदार सरोवर बांध में पानी भरना शुरू हुआ तो मध्य प्रदेश के 178 गांव डूब गए. पानी भर रहा था गुजरात में, गांव डूब रहे थे मध्य प्रदेश में. मुख्यमंत्री पत्र वत्र लिखने की औपचारिकता पूरी कर जाते हैं मगर गांवों का डूबना रुक नहीं पाता है. धार में खापरखेड़ा में रंजना हीरालाल गोरे के घर में पानी भर आया. रंजना अपने घर से निकलना ही नहीं चाहती थीं. किसी तरह निकाला गया लेकिन उनका घर डूब गया. परिवार कहता है कि अभी तक पुनर्वास का अनुदान नहीं मिला है, कहां जाएं. चिखल्दा में वाहिद भी बिखर गए. देखते देखते घर आंगन सब डूब गया. यहां मेधा पाटकर लड़ भी रही हैं लेकिन सोचिए कांगड़ा के किसानों के लिए तो कोई लड़ने वाला भी नहीं है. मेधा पाटकर को मीडिया जानता है फिर भी अब उनकी लड़ाई को दिखाने लिखने की औपचारिकता भी नहीं करता. कुछ हिस्सों में उनके आंदोलन की खबर आ जाती है लेकिन 170 से अधिक गांव डूब गए किसी को फर्क नहीं पड़ा. प्रवीण का घर डूब गया तो उसने नर्मदा में ही छलांग लगा दी. किसी तरह नाविकों ने उसे बचा लिया. आम लोग समझ नहीं पाए अपनी जान बचाए या मवेशी की या फिर अपना घर बचाए या गांव. पुनर्वास का दावा सरकार का कुछ होता है, किसान की बातें कुछ और होती हैं. अनुराग द्वारी ने पिछले दिनों इस पर विस्तार से रिपोर्ट दिखाई थी. आप जो देख रहे हैं वो कांगड़ा के पोंग बांध के प्रभावित किसान पिछले 50 सालों से देख रहे हैं. उन्हें पुनर्वास की ज़मीन नहीं मिली.

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50 साल से कांगड़ा के किसान अपने पुनर्वास की लड़ाई लड़ रहे हैं. नर्मदा के विस्थापितों की कहानी अब मीडिया में भी थकने लगी है लेकिन जिनकी ज़मीन गई है, जिनके घर डूबे हैं, वो कैसे अपने गांव और घर भूल सकते हैं.