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This Article is From May 17, 2016

एक और ओलिंपिक त्रासदी की दास्तान बनेगा सुशील-नरसिंह मामला !

Shailesh chaturvedi
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 17, 2016 17:53 pm IST
    • Published On मई 17, 2016 17:53 pm IST
    • Last Updated On मई 17, 2016 17:53 pm IST
1968 की चर्चा छेड़ने पर हॉकी दिग्गज कर्नल बलबीर सिंह हल्का सा मुस्कुराते हैं। इस मुस्कान में खुशी से ज्यादा शर्मिंदगी दिखती है, 'हम तो एयरपोर्ट से मुंह छिपाकर बाहर आए थे कि कोई पहचान न ले।' वो पहला मौका था, जब भारत किसी ओलिंपिक्स में हॉकी के फाइनल में नहीं पहुंचा था। कर्नल बलबीर की नाराजगी भी साफ नजर आती है, 'दो कप्तानों के बीच हम तो पिसकर रह गए थे।' जी हां, मैक्सिको में हुए ओलिंपिक्स में भारतीय हॉकी टीम के दो कप्तान गए थे। गुरबख्श सिंह और पृथीपाल सिंह। वहां से भारतीय हॉकी का ढलान ऐसा शुरू हुआ कि अभी तक थमने का नाम नहीं ले रहा।

कुछ ऐसे फैसले होते हैं, जो खेलों और खिलाड़ियों के लिए ऐसा नुकसान करके जाते हैं, जहां से वापसी आसान नहीं होती। इस ओलिंपिक्स में सुशील कुमार और नरसिंह यादव के बीच मीडिया से लेकर अदालत तक जो 'कुश्ती' चली है, उसने सिर्फ और सिर्फ खेलों को नुकसान पहुंचाया है। याद कीजिए, नरसिंह यादव करीब आठ महीने पहले ओलिंपिक कोटा पाने में कामयाब हुए थे। लेकिन तब भारतीय कुश्ती संघ ने ऐसा कोई बयान नहीं दिया, जिससे लगे कि कोटा पाने वाला ही ओलिंपिक में जाएगा। हालात बिगड़ने दिए।

ऐसे में तैयारी तो प्रभावित होगी ही
अब हालत यह है कि जब पूरी दुनिया के पहलवान अभ्यास में लगे हैं, भारतीय पहलवान मीडिया में इंटरव्यू दे रहे हैं, सोशल मीडिया पर कैंपेन चला रहे हैं और अदालत की शरण ले रहे हैं। संघ से लेकर पहलवानों तक, सबने अपने फैसलों से यह तय करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है कि रियो में कम से कम 74 किलो वर्ग में भारत को पदक न मिले। जाहिर है, अनिश्चितता होगी तो तैयारियों में फर्क आएगा ही।

नुकसान, जिनकी भरपाई नहीं हो सकती
अनिश्चितताएं और खिलाड़ियों को श्रेष्ठतम माहौल न देना हमारे इतिहास का हिस्सा रहा है। इसमें फेडरेशन का भी रोल है, कई मामलों में खिलाड़ियों का भी। इन घटनाओं ने देश को ऐसा नुकसान पहुंचाया है, जिसकी भरपाई कभी नहीं हो पाई। 1968 में टीम को बंटने दिया गया। उसका नतीजा हम सबके सामने है। 1972 के हॉकी सेमीफाइनल में बेहद प्रतिभाशाली खिलाड़ी को महज इस अंदेशे की वजह से नहीं खिलाया गया था कि वो कहीं विपक्षी टीम के साथ तो नहीं मिल गया। धर्म की वजह से खिलाड़ी को टीम में न रखने का फैसला हुआ, जो अपने आप में अनोखी मिसाल है।

काश, लिंबाराम के साथ उस समय कोई मुख्‍य कोच होता
बार्सिलोना ओलिंपिक्स यानी 1992 में इवेंट से एक रात पहले तीरंदाज लिंबा राम के धनुष में कोई खराबी आ गई। लेकिन टीम के साथ मुख्य कोच नहीं थे। बाकी कोई तकनीकी मामलों का इतना जानकार नहीं था। उस गड़बड़ के साथ भी लिंबा पदक के करीब पहुंचे, लेकिन दो अंक से पदक चूक गए। अगर लिंबा का वो पदक आता, तो समझा जा सकता है कि आर्चरी का भविष्य किस तरह का होता। राजस्थान के एक आदिवासी का ओलिंपिक पदक जीतना उस पूरे इलाके में इस खेल को अलग भविष्य देता, जहां धीरे-धीरे प्रतिभाएं सूखती गईं। लिंबा के साथ कोच से ज्यादा किसी अधिकारी को भेजना जरूरी समझा गया था। उसके बाद कभी लिंबा उस झटके से उबर नहीं पाए। अब 24 साल बाद हम दीपिका कुमारी एंड कंपनी से उम्मीद कर रहे हैं कि पदक आए।

2004 की हॉकी टीम में धनराज बमुश्किल मिल पाई थी जगह
इसी तरह 2004 में हुआ था, जब ओलिंपिक्स से चंद दिन पहले कोच राजिंदर सिंह सीनियर हटा दिए गए। धनराज पिल्लै को भी टीम में न रखने का फैसला हुआ। प्रदर्शन हुए। आखिर धनराज को एक बड़े कॉरपोरेट हाउस के मालिक के दखल देने पर टीम में जगह मिली। न कोच के साथ टीम का तालमेल हुआ, न धनराज पिल्लै का। आपको ध्यान होगा कि उस ओलिंपिक्स की याद रह जाने वाली तस्वीरों में एक तस्वीर धनराज की भी है, जिसमें वो फूट-फूट कर रो रहे हैं।

चार साल पहले टेनिस का विवाद
चार साल पहले यानी लंदन ओलिंपिक्स में टेनिस को लेकर बवाल हुआ था। जहां तमाम खिलाड़ी लिएंडर पेस के खिलाफ खड़े नजर आए, जबकि टेनिस संघ उनके साथ। पूरा मामला इतने कड़वाहट भरे मोड़ पर पहुंच गया, जहां खिलाड़ी एक-दूसरे से बात नहीं कर रहे थे। जहां, फेडरेशन के लोगों पर भरोसा नहीं था। इतने दिन बर्बाद हुए कि पदक के आसपास भी न होना तय हो गया। इसी तरह का काम सुशील कुमार और नरसिंह यादव के मामले में हुआ है। सितंबर में नरसिंह यादव ने वर्ल्ड चैंपियनशिप में कांस्य के साथ कोटा पाया था। वे पहले भारतीय पहलवान हैं, जिन्होंने वर्ल्ड चैंपियनशिप में पदक जीतते हुए कोटा लिया। तब फेडरेशन से पूछा गया कि क्या अब नरसिंह ही जाएंगे, लेकिन तबसे लेकर मार्च तक जवाब नहीं आया। इस बीच सुशील ने फेडरेशन के लोगों को प्रो. रेसलिंग लीग के दौरान अपने गैर पेशेवर रवैये से नाराज भी किया। बिल्कुल आखिरी समय पर वे लीग से हट गए थे। उसकी नाराजगी कई लोगों में अब भी है। लेकिन यहां सवाल व्यक्तिगत नाराजगी का नहीं है। सवाल नियम का है या बेहतर पहलवान का।

ओलिंपिक में अपने वर्ग में हिस्‍सा ही नहीं ले पाए थे पप्पू
कई विशेषज्ञ मानते हैं कि बेहतर का चयन ट्रायल्स से ही हो सकता है। लेकिन इसके खिलाफ दो बातें हैं। पहली, इन ट्रायल्स के लिए दोनों पहलवानों को अपने 'पीक' पर जाना होता। या वैज्ञानिक तौर पर साबित हो चुका है कि बड़े मुकाबले के असर से उबरने के लिए समय की जरूरत होती है। ट्रायल्स में चोटिल होने की आशंका एक और बड़ी समस्या को न्यौता देने जैसा है। दूसरा, जिन्हें 1996 में काका पवार और पप्पू यादव के बीच हुए ट्रायल्स याद हैं, वो इसके पक्ष में नहीं होंगे। वहां किसी को कोटा नहीं मिला था। भारत को वाइल्ड कार्ड मिला था, जिसकी वजह से दोनों पहलवानों में विवाद हुआ। विवाद के बाद ट्रायल्स का फैसला हुआ। दोनों पक्षों की तरफ से बेइमानी की पराकाष्ठा के आरोप लगे थे। खचाखच भरे आईजी स्टेडियम में नियम तोड़े-मरोड़े गए थे। उन ट्रायल्स ने ही साफ कर दिया था कि ओलिंपिक्स में कुछ नहीं होने वाला। पप्पू यादव गए और ज्यादा वजन की वजह से अपने भार वर्ग में हिस्सा तक नहीं ले पाए।

खैर, काका पवार या पप्पू यादव में किसी का पदक आएगा, ऐसी उम्मीद चरम आशावादियों ने भी नहीं की थी। लेकिन सुशील और नरसिंह से ऐसी उम्मीदें थीं। इन उम्मीदों को खत्म करने की कोशिश का जिम्मेदार किसे माना जाए। अगर 74 किलो वर्ग में भारत का पदक नहीं आता है, तो त्रासदी से भरी ओलिंपिक्स की तमाम कहानियों में एक और जुड़ जाएगी। इसका जिम्मेदार कौन होगा? सुशील... नरसिंह... या सिस्टम, जो खेल चला रहे लोगों के हाथ में है?

(शैलेश चतुर्वेदी वरिष्‍ठ खेल पत्रकार और स्तंभकार है)

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