लिएंडर पेस के हर बयान में कुछ नाटकीय होता है. कुछ ऐसा, जो ख़बर के लिहाज़ से अच्छा हो. राफेल नडाल के बारे में उनका बयान सुनें, वह भी पहली नज़र में ऐसा ही लगेगा. दिल्ली के आरके खन्ना स्टेडियम में उन्होंने कहा, अगर मैं आठ-नौ साल का बच्चा होता तो लगातार यहीं रहता. नडाल को प्रैक्टिस करते देखता. उन्हें प्रैक्टिस करते देखने से ही बहुत कुछ सीखा जा सकता है. मैं 43 साल की उम्र में भी सीख रहा हूं. यकीनन ऐसा ही है. चाहे नाटकीय लगे, लेकिन सच है. सोमवार शाम से नडाल रोज़ाना प्रैक्टिस कर रहे हैं. डेविस कप के ऐसे मुकाबले के लिए, जहां घोर आशावादी भी भारत के पक्ष में नतीजा रहने की उम्मीद नहीं कर रहा, लेकिन नडाल की प्रैक्टिस ऐसी है, जैसे वह किसी ग्रैंड स्लैम के फाइनल के लिए उतरने वाले हों.
क्या नहीं है उनके नाम...? सब कुछ तो है. चारों ग्रैंड स्लैम हैं. कुल 14 ग्रैंड स्लैम टाइटल हैं. ओलिंपिक गोल्ड है. डेविस कप भी एक से ज्यादा बार स्पेन की टीम उनके साथ जीती है. फिर वह क्या भूख है, जो दिल्ली के चिपचिपी गर्मी में भी उन्हें परेशान नहीं करती. नॉन-प्लेइंग कैप्टन कोंचिता मार्तिनेज के आदेश पर वह गेंद के लिए रखे डिब्बे में घंटों सर्विस करते हुए क्यों देखे जाते हैं...? क्या वाकई इसकी ज़रूरत है...? दरअसल, यह देश के लिए कमिटमेंट है. नितांत व्यक्तिगत या एकाकी किस्म के खेल टेनिस में ओलिंपिक या डेविस कप जैसे चंद लम्हे आते हैं, जब देश के लिए खेलने का मौका मिलता है. उसमें ही तमाम खिलाड़ियों का प्रोफेशनलिज़्म इस शक्ल में दिखता है कि वह इससे दूर रहने की कोशिश करते हैं. यहीं नडाल अलग खड़े दिखाई देते हैं.
याद कीजिए, चंद रोज़ पहले रियो ओलिंपिक में वह सिंगल्स के सेमीफाइनल में हार गए थे. डबल्स में जीते, जहां फाइनल में पहुंचने के बाद रोते हुए नडाल को देखा गया. अपने मुल्क, अपनी टीम के लिए जीतना, या कामयाब होना क्या होता है, उससे समझा जा सकता है. कितने ग्रैंड स्लैम में हार पर हमने नोवाक जोकोविच को रोते देखा है. याद कीजिए, रियो में हारकर बाहर आते जोकोविच आंसुओं में डूबे हुए थे. कुछ है, जो आपकी भावनाओं को दर्शाता है.
ऐसा ही एक मैच 21 साल पहले हुआ था, जो मुझे पूरी ज़िन्दगी ऐसे याद रहेगा, मानो कल की बात हो. ऑस्ट्रेलियन ओपन में पीट सैम्प्रास और जिम कूरियर आमने-सामने थे. सैम्प्रास बेहद खराब खेल रहे थे, कूरियर जीतते दिख रहे थे. सैम्प्रास का शरीर ज़रूर कोर्ट में था, लेकिन मन कहीं और था. उनके दोस्त और कोच टिम गुलिक्सन अस्पताल में भर्ती थे. उन्हें कैंसर था. दर्शकों में से एक आवाज़ आई - टिम के लिए खेलो, पीट. सैम्प्रास ने सिर उठाकर हल्के से देखा. अंक खत्म हुआ. अपनी कुर्सी पर बैठे और फफक पड़े. पूरा मैच उन्होंने रोते हुए खेला. और ऐसा खेला, मानो वह किसी और दुनिया में पहुंच गए हों. मैच जीते... अपने कोच के लिए... अपने दोस्त के लिए...
भावनाएं ही तो हैं, जो खेल के मैदान को अलग बनाती हैं. खिलाड़ियों को अलग बनाती हैं. नडाल उन्हीं भावनाओं से जुड़े रहे हैं. आज से करीब 11 साल पहले 'न्यूयॉर्क टाइम्स' के एक आर्टिकल में नडाल का बयान था कि मैं हमेशा ऐसे ही रहना चाहता हूं. उम्मीद है कि कामयाबी मुझे बदलेगी नहीं. 11 साल बाद लगता नहीं कि कामयाबियों ने नडाल को बदला है.
जिन्हें लगता है कि देश से प्यार, परिवार से प्यार, परंपरा से प्यार भारतीयों के साथ जुड़ा है, उन्हें नडाल के बारे में भी जानना चाहिए. स्पेन के मानाकोर से नडाल आते हैं. उनके पूर्वज 14वीं शताब्दी में मायोर्का आए थे. पिता सेबेस्टियन की ग्लास और विंडो कंपनी है. उनके चाचा मिगुएल फुटबॉल खिलाड़ी थे. देश के लिए खेले हैं. दूसरे चाचा टोनी ने उन्हें टेनिस खिलाड़ी बनाने में अहम रोल निभाया, जब राफेल तीन साल के थे. लेकिन उस घर का सोचिए. चार-मंजिला अपार्टमेंट, जिसमें दादा-दादी ग्राउंड फ्लोर पर, टोनी, उनकी पत्नी और बच्चे पहली मंजिल पर, सेबेस्टियन और पत्नी दूसरी मंजिल पर, राफेल नडाल और उनकी बहन मारिया तीसरी मंजिल पर. अपार्टमेंट में रहने की वजह यही थी कि सब साथ रहें.
भारत में यकीनन तमाम लोग राफेल नडाल से ज्यादा रोजर फेडरर को पसंद करते हैं. शायद यह भी एक वजह है कि नडाल से उस तरह प्यार हिन्दुस्तानी नहीं कर पाए, जितना फेडरर युग से अलग होने पर कर पाते. नडाल की पूरी शख्सियत भी उन्हें कुछ अलग तरह पेश करती है. वह फेडरर की तरह कोर्ट पर सज्जन नहीं दिखते. उनके पहनावे से लेकर उनके खेल से इस तरह का संदेश जाता है कि मुझसे बेहतर कोई नहीं. जबकि फेडरर की पूरी शख्सियत सौम्य दिखाई देती है. शायद तभी वह भारतीयों के दिल के ज्यादा करीब हैं. लेकिन नडाल को कोर्ट के बाहर देखना चाहिए. रियो ओलिंपिक के लिए गए भारतीय दल के खिलाड़ियों ने सोशल मीडिया पर सबसे ज्यादा सेल्फी नडाल के साथ ही लगाई हैं. एक खिलाड़ी ने कहा भी - ऐसा लगता है कि उन्हें मना करना नहीं आता. जितने लोग फोटो लेना चाह रहे थे, नडाल किसी को मना नहीं कर पा रहे थे.
कुछ ऐसा ही डीएलटीए या जिसे आरके खन्ना स्टेडियम कहा जाता है, वहां भी है. आम लोगों का तो अभ्यास देखने के लिए अंदर पहुंचना नामुमकिन जैसा है, लेकिन जो बच्चे वहां सीखते हैं या ऐसे परिवारों से हैं, जिन्हें अंदर आने से रोका नहीं जाता, वे लगातार नडाल के साथ तस्वीरें खिंचाते नज़र आते हैं. उम्मीद है कि वे सिर्फ फोटो नहीं खिंचा रहे होंगे. प्रैक्टिस भी देख रहे होंगे. ऐसे खिलाड़ी की प्रैक्टिस, जो अपने बेस्ट पर नहीं है. जो चोट से जूझने के बाद वापसी की कोशिश कर रहा है. जिसके लिए इस डेविस कप टाई में ज्यादा कुछ दांव पर नहीं है. नडाल न होते, तो भी स्पेन ही फेवरिट था. उसके बावजूद वह सब कुछ झोंक देना चाहते हैं. इसी को प्रोफेशनलिज्म कहते हैं.
अगर शुक्रवार या रविवार को दिल्ली में हैं, तो इस प्रोफेशनल खिलाड़ी को ज़रूर देखिए. 30 साल के हैं... चोट से जूझते हुए आए हैं.. न जाने फिर कभी उनका बेस्ट दिखेगा या नहीं. लेकिन वह कमिटमेंट ज़रूर दिखेगा, जिसके लिए राफेल नडाल को जाना जाता है. पेस के शब्दों में वाकई आप आठ साल के हों या 43 के... इस खिलाड़ी की प्रैक्टिस से सीखने के लिए बहुत कुछ है.
शैलेश चतुर्वेदी वरिष्ठ खेल पत्रकार और स्तंभकार हैं...
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This Article is From Sep 15, 2016
आठ के हों या 43 के... राफेल नडाल के कमिटमेंट से सीखिए
Shailesh Chaturvedi
- ब्लॉग,
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Updated:सितंबर 15, 2016 11:35 am IST
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Published On सितंबर 15, 2016 11:35 am IST
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Last Updated On सितंबर 15, 2016 11:35 am IST
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