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This Article is From May 24, 2019

नून रोटी खाएंगे, मोदिए को ले आएंगे...

Sanjay Kishore
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 24, 2019 23:57 pm IST
    • Published On मई 24, 2019 23:57 pm IST
    • Last Updated On मई 24, 2019 23:57 pm IST

“किसको वोट दिए इस बार?”
“कमल को और किसको देते?” नोएडा के सेक्टर 93 बी में हाइराइज सोसाइटी के बीच नोएडा ऑथरिटी की ख़ाली ज़मीन में तबेला चला रहा ग्वाला बता रहा था. यादवों का दूध बेचने का पुश्तैनी पेशा रहा है. लेकिन आजकल दूध का कारोबार आईटी और आईआईएम से पढ़े नौजवान भी कर रहे हैं. लिहाज़ा तसदीक़ के लिए उससे बेहाया होकर पूछ लिया, “कौन जात हो?”
“यादव”
“यादव होकर अखिलेश को नहीं दिए?”
“क्या किया है अखिलेश ने? मुसलमानों को सर पर बिठाए हुए है और अब मायावती के पैर पर गिर गया!”
“पिछले पांच साल में सरकार से क्या फ़ायदा मिला है और मुसलमान ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?”
ख़ामोशी.
तबेले में 2-3 नौजवानों के बीच एक बुजुर्ग भी बैठे थे.
“आप ही समझाइए इन लोगों को. मिला कुछ नहीं.” बुजुर्ग ने दरख्वास्त लगायी.

“70 साल में कांग्रेस ने क्या किया. नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी मुसलमान-मुसलमान करते रहे. सारे कांग्रेसी भ्रष्टाचारी हैं. मोदी को 5 साल और मौक़ा देकर देखते हैं. हर्ज क्या है? ज़्यादा से ज़्यादा क्या होगा? पहले भी हमारी ज़िंदगी पर कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ा, अब भी नहीं पड़ेगा!” नौजवान ने तुनक कर तर्क दिया.

“लेकिन सुना था कि यहां भाजपा से गांव वाले नाराज़ हैं?”
“वोट मोदी को दिया है, भाजपा के उम्मीदवार को नहीं.”

चुनाव में मुद्दे से बड़ा मोदी रहा. इन्हें तकलीफ़ मुसलमानों से है और उससे भी बड़ी अखरने वाली बात ‘दलित' मायावती के साथ गठबंधन. किसी जानकार ने कहा भी था कि महागठबंधन में बहुजन समाज पार्टी के सारे वोट ट्रांसफ़र होकर समाजवादी पार्टी को चले जाएंगे लेकिन सपा के वोट बसपा को पूरी तरह मिलें, जरूरी नहीं. जो लोग नेहरू और राजीव गांधी के नाम को चुनाव में घसीटे जाने पर ऐतराज़ जता रहे थे और 70 बनाम 5 साल के एजेंडे को हल्के में ले रहे थे वे इस एजेंडे की ताक़त नहीं समझ पाए. सोशल मीडिया ने इसे समाज के सबसे निचले तबके तक पहुंचा दिया.

भाजपा और सहयोगी दलों के सांसदों को भी इस बार ये बात समझ लेनी चाहिए कि उन्होंने नरेंद्र दामोदर दास मोदी को प्रधानमंत्री नहीं बनाया, मोदी ने उन्हें संसद तक पहुंचाया है. अमेठी के आसमान में सुराख स्मृति ईरानी ने नहीं किया है. तबीयत से पत्थर उछालने वाला शख़्स था तो मोदी. ‘अंडरकरंट' नहीं सच में सुनामी ही थी. इस बार सुनामी बिना शोर के चली जिसे विपक्ष भांप नहीं पाया और शायद भाजपा के भी कुछ नेता तूफ़ान को हवा समझते रहे और खुद को विकल्प का मुग़ालता पाल बैठे.

आईआईएमसी का एक दोस्त है. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जाति से ताल्लुक़ रखता है. उसने फ़ेसबुक पर लिखा- विकास के लिए वोट दे आया. यहां जाति भी अपनी थी और देशभक्ति का साथ भी. जेडीयू को बिहार में कोई दिक्कत ही नहीं हुई.

“कौन आएगा सर?” दिल्ली में दफ़्तर के पास ग्रेटर कैलाश के भारत पेट्रोलियम के अटेंडेंट का सवाल. बात पिछले हफ़्ते की है जब तक एक्ज़िट पोल के नतीजे भी नहीं आए थे.

“पता नहीं चल पा रहा है. शायद इस बार सीटें कम आएं.”
“क्या मोदी नहीं आएगा?” भयंकर रूप से आश्चर्यचकित होते हुए लगभग चिल्ला पड़ा.
“सर आना को मोदी को ही चाहिए. देश का सवाल है.” हर होली, दीवाली और नए साल पर दांत निपोर कर बख़्शीश मांगने वाले अटेंडेंट के तेवर में तल्ख़ी थी.
“उसके जैसा बहादुर कोई नेता हुआ है? पाकिस्तान को घर में घुस कर मारा.”

ज़ाहिर सी बात है जनता कमजोर सम्राट को पसंद नहीं करती. मोदी खुद को पराक्रमी साबित करने में कामयाब रहे. चुनाव में ‘खुद से आगे देश' नारा भर नहीं रहा. लोगों ने इस सोच से आत्मसात कर लिया है. भाजपा के रणनीतिकारों को इसका श्रेय मिलना चाहिए और विपक्ष को सबक़ लेना चाहिए. मगर दिक्कत ये है कि विपक्षी पार्टियां अगले चुनाव में भाजपा की रणनीति को दोहराने की कोशिश करती हैं लेकिन तब तक भाजपा नई रणनीति के साथ आगे बढ़ चुकी होती है. महागठबंधन का उदाहरण सामने है. चुनाव विश्लेषण के पितामह डॉक्टर प्रणॉय रॉय ने पहले ही कह दिया था, “प्रियंका गांधी जितना प्रचार करेंगी, मोदी उतने ही मज़बूत होंगे. कांग्रेस अब भी सत्तर के दशक में जी रही है.”

“आएगा को मोदी ही.” घर में साफ़-सफ़ाई और रंगरोगन कर रहा पेंटर ने ज़ोर देकर कहा.
“क्यों भाई, क्यों आना चाहिए?”
“बहुत काम किया है. सिलेंडर दिया है.”
“और”
“खाता खुलवाया. 6 हज़ार रुपया डाला.”
“और”
“और बहुत कुछ करने की कोशिश कर रहा है. कांग्रेसी करने नहीं देते. अड़ंगा लगा देते हैं!”
“कांग्रेसी कैसे नहीं करने दे रहे?”
“मोदी मंदिर बनवाने जा रहा था, कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका डाल दिया. कपिल सिब्बल ने डाला है.”
“तुम्हें कैसे पता?”
“टीवी पर देखता हूं. वॉट्सअप पर मैसेज आते हैं.”

आपने भी ग़ौर किया होगा कि आजकल गांव के लोग भी खूब ‘टिकटॉक' बना रहे हैं और फ़ेसबुक पर अपलोड कर रहे हैं. वॉट्सअप पर डाल रहे हैं. स्मार्टफोन की पहुंच का फ़ायदा विपक्ष नहीं उठा पाया. कांग्रेस का शानदार घोषणापत्र ठंडे बक्से में पड़ा रह गया. भाजपा ने टेलीविजन और सोशल मीडिया को समझा और इनका बेहतरीन उपयोग किया. कैमरे के ‘रडार' के सामने आने पर फ़ेसबुक के मालिक मार्क ज़करबर्ग को धकियाना हो या एसपीजी को घुड़की देना, ये सब ‘इंपल्सिव रिएक्शन' नहीं था. मोदी को मालूम था कि एक तस्वीर हज़ार शब्दों के बराबर होती है. जिन्हें लंबे भाषणों से कोफ़्त हो रही थी उनके लिए तस्वीरों थी जिसे नज़रअंदाज़ कर पाना मुश्किल था. चाहे वो मां से मिलना हो या फिर केदारनाथ की यात्रा, मोदी ने तस्वीरों के ज़रिए ‘लार्जर दैन लाइफ़” की छवि गढ़ी. अक्षय कुमार का आम चूसने वाला ‘नॉन-पॉलिटिकल' इंटरव्यू भी उसी कड़ी का हिस्सा था. चाहने वालों ने पसंद किया, आलोचक चिढ़ने के सिवा कुछ नहीं कर पाए. ये भी एक कारगर रणनीति का हिस्सा रहा. सोशल मीडिया और ख़ासकर वॉट्सअप पर मुलायम सिंह को ‘मुल्ला'यम सिंह कहने का असर एक दिन में नहीं दिखायी देता. धीरे-धीरे जनता के “रॉ विजडम” पर हावी होता चला जाता है. मोदी का जाली टोपी नहीं पहनना नफ़रत से ज़्यादा एक सोची समझी रणनीति है.

और इन सबसे भी अहम रहा टेलीविजन पर “सरोगेसी” प्रचार. पिछले तीन-चार साल से टीवी पर पार्टियों के प्रवक्ता, एंकर और रिपोर्टर चीख़ रहे थे तो ये हवा में जाया नहीं जा रहा था. ये सब दूरगामी रणनीति के तहत हो रहा था. नरेंद्र मोदी और अमित शाह के बाद अभूतपूर्व जीत का सेहरा संबित पात्रा के सर भी बंधना चाहिए. पात्रा ने नाटकीय और प्रचंड रूप से हिंदू-मुस्लिम और सर्जिकल स्ट्राइक को जनमानस पर थोपा. कभी अट्टहास किया, कभी चिढ़ाया तो कभी ज़रूरत पड़ने पर रौद्र रूप अपनाया तो कभी रुदाली भी बने. ग़ज़ब की प्रतिभा है इस डॉक्टर में. भले ही वे पुरी की अपनी सीट पिनाकी मिश्रा से क़रीब बारह हज़ार मतों से हार गए लेकिन पार्टी में उनका क़द और उपयोगिता कम नहीं होने वाली.

“हैलो, क्या समाचार? वोट दे आए?”
“हां, वहीं से आ रहे हैं हमलोग. मोदी को ही दे दिए और किसको देते?” पटना में पिछले रविवार को एक नज़दीकी रिश्तेदार से फोन पर बात हो रही थी.

ये ‘किसको देते' को योगेन्द्र यादव ने रवीश कुमार के एक शो में बहुत सही विश्लेषण किया था.

“2014 का चुनाव असंतोष बनाम उम्मीद की लड़ाई थी. कांग्रेस की कारगुज़ारियों से उब चुके लोग कहते थे कि मोदी को ही लाना है. इस बार का चुनाव असंतोष बनाम अविश्वास का था. लोगों में असंतोष तो था लेकिन विपक्ष पर अविश्वास था.”

राहुल गांधी परिपक्व तो नज़र आए लेकिन पप्पू का टैग नहीं हटा पाए. सोशल मीडिया की असीमित ताक़त का अहसास भाजपा ने 10 साल पहले कर लिया था. पप्पू जोक्स ने राहुल की गंभीर छवि बनने नहीं दी.

बहरहाल, इन तमाम सिद्धांतों पर भारी रहा हिंदुत्व का वर्चस्व क़ायम करने की आम जन की चाहत. इच्छा इतना बलवती थी कि लोगों की ज़ुबान और समझ पर खेसारी लाल यादव का सुपरहिट गाना ‘ठीक है' है चढ़ गया- नून रोटी खाएंगे, मोदिए को ले आएंगे. शायद पहली बार लोगों ने अपने लिए नहीं, देश और उससे भी ज़्यादा हिंदुत्व की वर्चस्वता क़ायम करने के लिए वोट दिया. जाति की दीवार टूट गयी. अमीरी ग़रीबी का भेदभाव मिट गया. ग्रामीण और शहरी एकमत हो गए. हालांकि जाति और अमीरी-ग़रीबी कभी ख़त्म नहीं होने वाली. ये शाश्वत है.

हिंदुत्व के इस देशव्यापी उफनती जिजीविषा के लिए सिर्फ भाजपा ज़िम्मेवार नहीं है. या यूं कहें कि इसका श्रेय सिर्फ भाजपा नहीं ले सकती.” हिंदू धर्म ख़तरे में है” इस सोच की खेती वर्षों से दिलोदिमाग़ पर से हो रही है. हाल के दशक में “ग्लोबल टेररिज़्म” ने इस्लाम को आतंक का चेहरा बना दिया. इस्लामोफोबिया दुनिया भर में दक्षिणपंथी सरकारें बनवा रही हैं. डॉनल्ड ट्रंप भी इसी की सवारी कर दुनिया के सबसे ताक़तवर मुल्क के राष्ट्रपति बने.

दुनिया भर में चल रही इस दहशतगर्दी ने हिंदुत्व पर कथित ख़तरे की भावना भड़काने में आग में घी का काम किया. पाकिस्तान में हिंदुओं के हालात, कश्मीर में आतंकवाद और सीमा पर पाकिस्तान की नापाक हरकत नफ़रत में इज़ाफ़ा करती गयी.

इस बीच “चतुर बनिया” पर धीरे-धीरे मगर लगातार चोट किया जाता रहा है. आज़ादी की लड़ाई में शहादत औरों ने दी और आख़िर में आकर चालाक गुजराती श्रेय हड़प गया और देश का भी बंटवारा कर गया वो भी आधी-अधूरी. इस सोच ने साध्वी प्रज्ञा को संसद पहुंचा दिया और दिल्ली में सरकारी स्कूल का कायाकल्प करने वाली आतिशी को दिखा दिया ढेंगुआ.

कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इवीएम में गड़बड़ी ढूंढ रहे हैं. हुआ भी तो हुआ. आपके नेता क्या कर रहे थे?

संजय किशोर एनडीटीवी के खेल विभाग में डिप्टी एडिटर हैं...

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