‘तूफ़ान' ज़रूर देखिए. संदर्भ भी है और मौक़ा भी. मौक़ा या संयोग है ओलिंपिक के हफ़्ते पर पहले ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म नेटफ्लिक्स पर इसका रिलीज़ होना और एक बॉक्सर की इस कहानी में प्रासंगिकता है लव जिहाद.
फ़िल्म के बारे में बात करने के पहले इसी शुक्रवार को विवाह के बंधन में बंधने वाले भारतीय क्रिकेटर शिवम दुबे और अजुम खान के बधाई दिए देते हैं. ऑलराउंडर शिवम दुबे ने अपनी लॉन्ग टाइम गर्लफ्रेंड अजुम खान से मुंबई में शादी की है. शिवम ने अपनी शादी की तस्वीरें ट्वीट की. एक तस्वीर में शिवम दुल्हन संग दुआ मांगते नजर आ रहे हैं. वहीं, एक तस्वीर में शिवम और उनकी पत्नी एक दूसरे को अंगूठी पहनाते नजर आ रहे हैं. इस शादी में हिंदू-मुस्लिम रीति रिवाजों की झलक दिखी. ट्रोलर और नेटीजन की प्रतिक्रिया मिलाजुली रही है. दोनों के धर्म विपरीत होते तो ट्रोलर बवाल काट देते.
बवाल काटने के लिए ट्रोलर को ‘तूफ़ान' देखनी पड़ेगी. खेल में दिलचस्पी रखने वालों को भी ‘तूफ़ान' देखनी चाहिए. ये फ़िल्म खिलाड़ियों और ख़ासतौर पर मुक्केबाज़ों के लिए है. कइयों को लगेगा कि ये उनकी ही कहानी है. कई बार भटकने के बावजूद फ़िल्म आपको सच्चाई के क़रीब ले जाती है.
2013 में राकेश ओमप्रकाश मेहरा और फ़रहान अख़्तर की जोड़ी ने ‘भाग मिल्खा भाग' क्लासिक बनायी थी. लेकिन ‘तूफ़ान' बायोग्राफ़ी मूवी नहीं है. काल्पनिक मगर सामयिक है.
अज़ीज़ अली (फ़रहान अख़्तर) लावारिस है और मुंबई के डोंगरी में वसूली का काम करता है. मारपीट के इस धंधे में उसके मुक्के बड़ी तेज़ी से चलते हैं. एक स्थानीय बॉक्सिंग क्लब में उसे अहसास होता है कि लोग उससे डरते हैं मगर इज़्ज़त नहीं करते. वहाँ के कोच उसे मुंबई के सबसे बड़े कोच नाना प्रभु (परेश रावल) के यहाँ ले जाते हैं. नाना उसकी प्रतिभा को पहचान तो जाते हैं लेकिन डोंगरी के छोकरे को बॉक्सिंग नहीं सिखाना चाहते. डोंगरी तो बहाना था, दरअसल नाना मुसलमान लड़के को प्रशिक्षण नहीं देना चाहते.
उस बीच अज़ीज़ की मुलाक़ात एक डॉक्टर अनन्या (मृणाल ठाकुर) से हो जाती है जो उसे गुंडागर्दी छोड़ बॉक्सिंग में करियर बनाने के लिए प्रेरित करती है. अज़ीज़ फिर नाना के पास जाता है. उसकी ज़िद के आगे नाना हार मान लेते हैं. नाना मुसलमान से संबंध नहीं रखना चाहते मगर दिल से नफ़रत नहीं कर पाते. मनोदशा की ये उहापोह आपकी अपनी लग सकती है. साल 2010-12 तक बात मुसलमानों से परहेज़ तक तो पहुँची थी लेकिन नफ़रत नहीं पनपी थी. एक-दूसरे को पसंद करें या नहीं, घृणा नहीं कर पाते थे और मदद से तो इनकार का सवाल ही नहीं था. लिहाज़ा नाना ने उसे चैंपियन बना दिया.
अज़ीज़ अली कभी भी नाना के पैर नहीं छूता है, सलाम करता है. लेकिन जय हनुमान कहने में उसे संकोच नहीं होता. आमतौर पर बॉक्सिंग और कुश्ती के अखाड़ों में हनुमान की मूर्ति रहती है और इन खेलों के खिलाड़ी हनुमान जी को प्रणाम करके ही मैदान में उतरने हैं. अज़ीज़ को जाम टकराने में भी दिक़्क़त नहीं. शायद वह ‘प्रोग्रेसिव' मुसलमान है.
चैंपियन बनने के बाद जब नाना को पता चलता है कि अज़ीज़ की गर्लफ़्रेंड हिंदू है तो वे बिफर पड़ते हैं. उसे समझाते हैं. इस दौरान रहस्य खुल जाता है कि अज़ीज़ उन्हीं की बेटी से प्यार करता है तो नाना का ग़ुस्सा ज्वालामुखी बनकर फूट पड़ता है. माँ की गाली के साथ अज़ीज़ को निकाल बाहर कर देते हैं. परेश रावल ने यहाँ बाप के दर्द, लाचारी और ग़ुस्से को जिस तरह जीवंत किया है, वो लाजवाब है. छले गए बाप को जब बेटी भी छोड़ कर अपने प्रेमी के पास चली जाती है तो उसकी दुनिया ही मानो ख़त्म हो जाती है. पत्नी पहले ही मुसलमान आतंकी के बम की भेंट चढ़ चुकी थी.
अनन्या को शुरु से ही सब मालूम था लेकिन उसने अपने पिता को ये नहीं बताया कि वो अज़ीज़ से प्यार करने लगी है और अज़ीज़ को ये नहीं बताया कि नाना ही उसके पिता हैं. यहाँ ट्रोलर का ग़ुस्सा लड़की पर निकलना लाज़िमी है. बहरहाल, अनन्या जब अज़ीज़ की खोली में पहुँचती है तो वहाँ की मुस्लिम महिलाएँ उसको धर्म परिवर्तन के लिए कहती हैं. कहती हैं कि इसके बिना कलमा कैसे पढ़ेगी, निकाह कैसे होगा, वग़ैरह-वग़ैरह. मुस्लिम मुहल्ले में हिन्दू लड़की लाइव ट्रोल हो गयी. अज़ीज़ नहीं चाहता था कि अनन्या धर्म परिवर्तन करे.
गृहस्थी बसाने की जद्दोजेहद में अज़ीज़ बेटिंग का शिकार हो जाता है. पाँच साल का बैन लग जाता है. इस बीच परिवार में एक बेटी भी आ जाती है. अज़ीज़ बैन के बाद वापसी नहीं करना चाहता. अनन्या रिंग में लौटने का क़सम देकर एक दुर्घटना का शिकार हो जाती है. अज़ीज़ ने अनन्या का धर्म नहीं बदला था. उसका अंतिम संस्कार हिंदू रीति रिवाज से हुआ. बेटी का नाम रखा-मायरा सुमति अज़ीज़ अली.
ज़ाहिर है अज़ीज़ को पत्नी और बेटी की इच्छा पूरी करनी थी, मगर नाना अब भी मदद करने को तैयार नहीं थे. एक मुक़ाबले में अज़ीज़ को बेईमानी से हरा दिया गया तो नाना से रहा नहीं गया. ससुर और दामाद जब मिलते हैं तो आंसुओं में सारे गिले-शिकवे पिघल जाते हैं. सालों-साल से खड़ी बीच की दीवार भड़भड़ा कर गिर जाती है. पहली पार अज़ीज़ नाना के चरण स्पर्श करता है और नाना उसको आग़ोश में लेकर फफक कर रो पड़ते हैं. यह फ़िल्म का चरमोत्कर्ष है. अगर आपमें इंसानियत बची है और आप थोड़े से भी संवेदनशील हैं तो आप यहाँ महसूस कर सकते हैं कि इंसान और मनुष्य में कहाँ फ़र्क़ है. इस क्षण में इंसानियत जीत जाता है.
फरहान अख्तर, परेश रावल और मृणाल ठाकुर ने शानदार अभिनय किया है. इस फ़िल्म को देखने के बाद आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि किसी भूमिका में खुद को ढालने के लिए फ़रहान अख़्तर कितनी मिहनत करते हैं. थोड़ा श्रेय फ़रहान के ट्रेनर डेरेल फोस्टर को भी मिलना चाहिए. नेता परेश रावल और अभिनेता परेश रावल के बीच विचारधाराओं का कश्मकश ज़रूर हुआ होगा. मृणाल ठाकुर की सहजता और दिलकश मुस्कान फिदायीन बना देगी.
फ़िल्म में बॉक्सिंग बाउट की कमेंट्री में मेरे जानकार और जाने-माने कमेंटर संजय बनर्जी और स्पोर्ट्स एंकर जतिन सप्रू हैं. न्यूज़ एंकर रहे सुशांत सिन्हा रिपोर्टिंग करते हुए नज़र आएँगे.
संजय किशोर एनडीटीवी में स्पोर्ट्स एडिटर हैं...
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