मध्यप्रदेश की 367 तहसीलों में से 228 तहसीलें सूखी मानी गयी थीं। 48 लाख किसान और 44 लाख हेक्टेयर भूमि इस सूखे की चपेट में मानी गयी। यह सरकारी जानकारी है। इस पर गंभीरता इतनी कि राज्य के ग्रामीण विकास विभाग और लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग के बीच भरेपूरे संकट में यह झगड़ा कि पानी की व्यवस्था कौन करेगा? वास्तव में दोनों विभाग जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं थे। 2 महीने तक यही कहानी चली. क्या इसी तरह के लीचड़ और गलीज़ व्यवहार को सुशासन व्यवस्था कहते हैं?
पानी बिना तबाही है, बाजाकुंड गवाही है
पानी का संकट समाज को अपनी ताकत, आत्मनिर्भरता और स्वाभिमान याद दिलाने का जरिया भी है। मध्यप्रदेश के उमरिया जिले के पहाड़ों पर बसे बाजाकुंड गांव में सूखे ने शरीर को नसों को चमड़ी के ऊपर ला दिया था। यहां के लोगों ने पिछले साल एक नारा रचा था 'पानी बिना तबाही है, बाजाकुंड गवाही है।' इस साल फ़रवरी-मार्च के महीनों में गांव के तालाब में पानी ऐसा था कि वह कभी हरा नज़र आता, कभी काला, कभी वह पतला लगता था और कभी गाढ़ा हो जाता था। कुल मिलकर बात यह थी कि तालाब का पानी गाढ़े कीचड़ में तब्दील हो चुका था। तब बच्चे और महिलायें उस कीचड़ के पास 3-4 फुट का गड्ढा खोदते और इंतज़ार करते कि कीचड़ में से पानी रिसकर गड्ढे की सतह में आएगा और वे उसे लपक कर अपने लोटे में समेट लेंगे। बच्चे स्कूल के कपड़े पहन कर स्कूल नहीं जाते, बल्कि उस तालाब में बैठकर जिंदगी का पाठ पढ़ रहे थे।
नदी से पंप के जरिये पानी लाकर कुएं में डाला जा रहा
सरकार के रिकॉर्ड के मुताबिक तीन तालाब, 18 हैंडपंप और लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग की नल-जल योजना संचालित है। जरा आंखें बंद करके यह दृश्य देखिये कि डेढ़ किलोमीटर दूर नदी से मोटर पंप के जरिये पानी लाकर विभाग कुएं में डालता है क्योंकि गांव में टंकी नहीं है। हैंडपंप जमीन में 250 फुट तक गए हैं, पानी 400 फुट तक चला गया; मार्च में सभी हैंडपंप भरपूर हवा दे रहे थे। विकासखंड से लेकर, जिले और जिले से लेकर राज्य स्तर तक 14 आवेदन दिए गए। कागज़ गए, पर पानी नहीं आया। लोग तीन किलोमीटर पहाड़ उतर कर पानी लाते-लाते थक गए थे। ऐसे में एक सज्जन फिर भी कहते थे कि इस गांव से अच्छा कोई गांव न होगा; बस पानी हो!
तालाब से निकाली 70 ट्राली मिट्टी
5 जून 2016 को लोग बैठे और फिर उठे तो गैती, कुदाल, फावड़ा लेकर; यह तय हुआ कि अब बारिश आने वाली है, चलो तालाबों को गहरा करते हैं, उसकी मिट्टी सोने सी है, उस मिट्टी को अपने खेतों में डालते हैं। अब किसी से गुहार न लगाएंगे। आखिर हम सरकार के सामने झुकते क्यों हैं; ताकि वो हमें 150 रुपये की मजदूरी दे। वह भी सालों नहीं मिलती। मेहनत के बाद भी गिड़गिड़ाना पड़ता है। अब अपने गांव का निर्माण अपन खुद करेंगे; काम शुरू हो गया। लोगों ने दिन-रात मेहनत करते 70 ट्राली मिट्टी तालाब से निकाली है।
अब पानी के लिए पहाड़ पर नहीं चढ़ना पड़ेगा
गांव की नाम बाई कहती हैं कि तालाब से मालवा गाद भर जाने से पानी निकालने में जो समय जाता था, अब वह बचेगा। यह साल तो गुज़र गया, आने वाले सालों में गांव को पानी मिलेगा। हमें यह सुनने की जरूरत नहीं पड़ेगी कि मोटर खराब हो गई या पाइप फूट गया या बिजली चली गई। हम जो रात-रात भर झिरिया खोद कर पानी के लिए बच्चों को बिठाते थे और एक-एक लोटा पानी निकलते थे, अब वैसा नहीं करना पड़ेगा। शायद अब 3 किलोमीटर का पहाड़ भी रोज नहीं चढ़ना पड़ेगा।
अपने दम पर जुटा है आदिवासी बहुत गांव करौंदी
लापरवाह व्यवस्था से उम्मीद छोड़ खुद स्थिति बदलने के लिए खड़े होने वाला बाजाकुंड ही अकेला गांव नहीं है। 102 आदिवासी परिवारों वाला करौंदी गांव भी आज अपने दम पर जुटा हुआ है। हर रोज हर परिवार 4 घंटे पानी लाने में खर्च करता था, मिलता भी था तो गंदा पानी। सरकारी नारा है 'लोक सभा, न राज्य सभा, सबसे बड़ी ग्राम सभा।' इस सबसे बड़ी सभा ने खूब प्रस्ताव पारित किये। पंचायत में 21 आवेदन दिए गए।
ग्रामसभा ने संकट से निपटने का उठाया बीड़ा
लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग ने कभी देखा ही नहीं कि इनकी जिंदगी किस हद तक संकट में है। तब भूपत सिंह, इंद्रपाल सिंह, लक्ष्मण सिंह, रामचरण सिंह, पूजा सिंह, दीप नारायण सिंह, शंकर सिंह (ट्रेक्टर मालिक एवं किसान) मोहन बैगा सरीखे किसान उठे और 6 जून को तय किया कि कल से काम शुरू होगा। असली ग्रामसभा खुद संकट से निपटेगी। 56 ट्राली मिट्टी निकाल कर खेतों में डाल दी गयी है। काम अब भी चालू है। करौंदी की नागरिक पूजा सिंह कहती हैं कि हमें तो अपने मवेशियों की चिंता थी। अगर अब पानी इकठ्ठा नहीं करते तो अगले कुछ महीनों में मवेशियों की लाशों के ढेर लग जाते। भूप सिंह कहते हैं कि पंचायत बिना स्याही की कलम है। हमारी सरकार जब अपना फायदा देखती है तब कुछ स्याही डाल देती है और जब सचमुच ग्रामसभा कुछ करने का निर्णय लेती है, तब स्याही निकाल लेती है।
जंगेला गांव की कहानी भी कुछ इसी तरह की
थोड़ा जंगेला गांव के बारे में जानिये. 115 परिवारों के इस गांव में 2 तालाब, 6 हैंडपंप, एक नाला झिरी और नौ कुएं हैं। केवल 2 हैंडपंपों से पानी निकलता है; कितना एक दिन में 6 बाल्टी. यहां पंचायत के जरिये टैंकर आता है। मध्यप्रदेश सरकार पानी के टैंकर भेजकर गांव को सूखे से बचाने का काम करती है, लेकिन जंगलों के विनाश के काम में बहुत अग्रणी है। जंगेला की समनी बाई कहती हैं, 'गांव में पानी पीने की इतनी दिक्कत होती थी कि रात 3 बजे से झिरिया में जाकर बैठना पड़ता था तो सुबह तक में 2-3 बाल्टी ही पानी मिलता था। एक साल के बच्चे को छोड़ के जाने में दिक्कत होती थी, उसे देखने वाला कोई नहीं होता था। तालाब खुदने से पानी पीने की राहत तो अभी मिलेगी ही, साथ में समय भी बचेगा; जिससे बच्चे की देखरेख भी कर सकेंगे। यानी सूखा छोटे बच्चों को देखरेख और सुरक्षा से भी वंचित कर देता है।
मवेशियों को पानी पिलाने कई किमी पैदल जाना पड़ता था
इसी गांव के दशरथ सिंह कहते है कि किसानी में पानी को लेकर आकाशकोट में बहुत दिक्कत होती है, मवेशी को पानी पिलाने 5-6 किमी दूर ले कर जाना होता था, इससे हम मजदूरी नहीं कर सकते थे। तालाब खुदने से मवेशियों को पानी मिलेगा और आने वाले साल में थोड़ी राहत मिलेगी। वे बताते हैं कि कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं और गांव के लोगों ने मिलकर दस्तक समूह बनाया है और तय किया है कि अपनी मंजिल की राह अपने में से ही खोजना बेहतर है।
अब सच यही है कि समाज को उस व्यवस्था का मुंह ताकना बंद करना होगा, जिसे अकाल में भ्रष्टाचार की हरियाली नज़र आती है। वह सूखे कंठों से अपने जीवन के लिए आनंद का गीत निकलती है। मध्यप्रदेश के उमरिया जिले के गांवों में लोग अब नाउम्मीद नहीं हैं, उन्होंने अपने भीतर उम्मीद खोज ली है...।
सचिन जैन, शोधार्थी-लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं.
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