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This Article is From May 26, 2017

हम आगे नहीं, पीछे लौट रहे हैं...

Richa Jain Kalra
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 26, 2017 12:08 pm IST
    • Published On मई 26, 2017 12:08 pm IST
    • Last Updated On मई 26, 2017 12:08 pm IST
दौड़ते वक्त सांस फूलती है, पसीना छूटता है और शरीर थकता-टूटता है... आज की दौड़ में मतलब और मकसद फल-फूल रहे हैं, रिश्ते पीछे छूट रहे हैं और दिल टूट रहे हैं, क्योंकि अपनेपन का अहसास, फिक्र और दूसरों की कीमत पर आगे बढ़ने की दौड़ - सब पर हावी है... इस गलाकाट होड़ में, विकास के पैमाने पर आगे बढ़ने की जुगत में क्या हम इंसानियत के तकाज़े पर गिरते जा रहे हैं...? विकास की अंधी दौड़ ने क्या हमारी मानवीयता चुरा ली है...? झारखंड में हाल ही में आठ लोगों को बच्चा चोरी के शक में सरेआम मौत के घाट उतार दिया गया... मुंबई के पास उल्हासनगर में दो रुपये की मिठाई चोरी करने के लिए दो मासूमों को नंगा कर उनके सिर मुंडा दिए गए... चप्पलों की माला पहनाकर वीडियो बनाया, और सोशल मीडिया पर डाल दिया गया...

फेहरिस्त लंबी है - हर रोज़ गिनने बैठ जाएं, तो अंतहीन हो जाएगी... कई रूह कंपा देने वाले मामले सामने आते हैं - जैसे रोहतक में 10 साल की एक बच्ची के साथ उसी के सौतेले पिता ने रेप किया, उसे गर्भवती कर दिया - सुनकर ही दिल गुस्से और ग्लानि से भर जाता है... ग्लानि, ऐसे दौर में जीने की, जहां इंसानियत गुज़रे ज़माने की चीज़ हो गई लगती है... जहां दूसरों की मदद करना तो दूर, उनका फायदा उठाने और उन्हें अपनी हवस और अपने बेकाबू अहम का शिकार बनाने से पहले सोचा भी नहीं जाता, और लोग हैवानियत पर उतर आते हैं...

आज कोई सहकर्मी (कलीग) नौकरी छोड़ जाए, तो कितनों को अफसोस होता है...? बड़ा अजीब लगता है कि सालों एक साथ काम कर भी वे रिश्ते नहीं कमाए, जिनमें किसी के जाने का ग़म हो, या खालीपन का अहसास हो... यह कहानी कॉरपोरेट दुनिया के हर उस दफ्तर की है, जहां लोग काम की कभी न थमने वाली दौड़ में हांफते-थकते बस भागे जा रहे हैं... अब आज के इस माहौल से उन लोगों की तुलना करें, जो सारी ज़िन्दगी एक ही दफ्तर में काट देने के बाद रिटायर हुआ करते थे... विदाई के समय आंखें भर आया करती थीं... रिटायर होते वक्त बहुत कुछ पीछे छूटा लगता था...

30 से 40 साल तक एक ही नौकरी में बिताने वालों से पूछिए, घर बैठने पर कितना खालीपन महसूस होता है... जो रिश्ते कमाए, उनकी जगह भर पाना मुश्किल है, लेकिन आज आगे बढ़ने की दौड़ में किसी को किसी की तकलीफ से वास्ता नहीं... इतनी फुर्सत भी नहीं कि किसी की आपबीती सुन कर मदद कर पाएं... मुझे क्या, या हमें क्या... क्या फर्क पड़ता है... चलता है... यही सब सुनकर लगता है - हम इंसान कम, मशीन ज़्यादा होते जा रहे हैं... मशीनों के साथ काम करते-करते रिश्ते और संवेदनाएं पीछे छूट रही हैं... अपनापन, स्नेह और लगाव सार्वजनिक ज़िन्दगी से जैसे गायब हो गए हैं... वैसे, इन हालात के लिए तकनीक भी कम ज़िम्मेदार नहीं... हम व्हॉट्सऐप, फेसबुक पर विश कर दोस्तों-रिश्तेदारों की तरफ अपनी ज़िम्मेदारियों की इतिश्री कर लेते हैं... अपनों से ज़्यादा उनसे टच में हैं, जिन्हें सोशल मीडिया पर ही मिले थे...

कुछ दिन से काम वाली बाई नहीं आई... फोन कर पता चला, बीमार है... काम की ज़रूरत के बीच उसकी तकलीफ पर दिल भर आया... बताने लगी, सुबह से 50 कॉल दूसरे लोगों की तरफ से आ चुकी हैं, जो बार-बार थोड़ी देर के लिए ही सही, काम पर आने को कहकर आफत किए हुए हैं... बीमारी के लिए किसी ने मदद की पेशकश नहीं की, बस, गुस्सा और झल्लाहट ही पल्ले पड़ी... ज़रूरत समझ में आती है, लेकिन इस ज़रूरत के आगे संवेदना हल्की पड़ जाती है... जो काम वाली रोज़ मेहनत कर आपके घर की साफ-सफाई करती है, बर्तन मांजती है, उसकी तकलीफ से हम इतने बेपरवाह कैसे हो सकते हैं...? न पैसा साथ जाना है, न ऐशो आराम... साथ देंगे तो यही रिश्ते, जो आज हम पैसे, हैसियत, शोहरत और रुतबे के पैमाने पर बनाते हैं... तभी तो सिर्फ दो रुपये की चोरी पर हैवान बन बच्चों के साथ दरिंदगी पर उतर आए मुंबई के तीन लोग...

आज हम कितने पड़ोसियों के साथ आत्मीय संबंध बना पाते हैं... बगल के घर में कोई गुज़र जाए, तो रोने की आवाज़ से ही पता चलता है... किसी के घर जाने से पहले 10-10 बार सोचते है, कहीं बिज़ी तो नहीं होगा... बहुत काम है, चलो, फोन ही कर लेते हैं... और अब तो ज़माना व्हॉट्सऐप का है... इसने रिश्तों को इस तरह समेट दिया है, जहां दुनिया कुछ व्हॉट्सऐप ग्रुप और फेसबुक पेजों तक सिकुड़कर रह गई है... झिझक और मतलब के चलते रिश्ते गर्माहट छोड़ते जा रहे हैं... गर्मी से बचने के लिए लोग एसी में बंद हैं, और यह ठंडक ज़िन्दगी के रस छीन रही है...

एहसास तब होता है, जब जिनसे उम्मीद हो, वही इस दौड़ के चलते पूछना भी छोड़ देते हैं... जो बोएंगे, वही तो काटेंगे न... जब अच्छा बोएंगे नहीं, तो अच्छा काटने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं... अच्छी फसल तो अच्छे बीज से ही होती है... इस भागदौड़ में हम अपनी नई पौध को भी तो ऐसे ही सींच रहे हैं... हांफते और दौड़ते हुए... इंसानियत, अपनेपन और आपसी स्नेह के लिए कई बार अपने बच्चे ही तड़पते नज़र आते हैं... उनकी भावनात्मक ज़रूरतों पर गौर करने का भी वक्त नहीं हैं ढेरों परिवारों के पास... तभी तो आएदिन तनाव की गिरफ्त में फंसे बच्चों के खुदकुशी करने के मामले बढ़ रहे हैं... उन्हें सुनने और समझने-समझाने की फुर्सत, फिक्र और वक्त ही नहीं है उनके अपनों के पास... डिप्रेशन के बढ़ते मामलों ने इस बहस को तेज़ किया है कि क्या हम एक दूसरे से कटते जा रहे हैं... जब हम आज अपनी पीढ़ी के बीच यह महसूस कर रहे हैं, तो आने वाली पीढ़ी से क्या उम्मीद करेंगे...

रिश्ते सिकुड़ रहे हैं, इंसानी ज़रूरतें फैल रही हैं... इन ज़रूरतों को पूरा करने के बीच प्यार, संवेदना और सहानूभूति हाथ से फिसलते जा रहे हैं... सोशल मीडिया पर लाइक और इमोटिकॉन के बीच हम उन रिश्तों को सींचने में पीछे छूट गए हैं, जो मुश्किल के वक्त कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होते हैं... वैसे, देर तो हो चुकी है, लेकिन कहते हैं न - जब जागो, तभी सवेरा...

ऋचा जैन कालरा NDTV इंडिया में प्रिंसिपल एंकर तथा एसोसिएट एडिटर हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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