वो दूल्हा जो घोड़ी चढ़ता है और वो जिसे नहीं चढ़ने दिया जाता

नई दिल्ली:

फर्ज कीजिए कि घोड़ी पर हेल्मेट लगाकर इस दूल्हे की जगह आप हों। आपकी बारात निकल रही हो या आप इस लेख को पढ़ने वाली महिला हैं तो आपके सपनों का राजकुमार इस तरह से आ रहा हो। छत पर तथाकथित ऊंची जाति के गुंडे खड़े हों और पत्थर बरसा रहे हों। तब क्या आपको गर्व होगा कि आप एक ऐसी राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था में रहने के लिए मजबूर हैं, जहां अपनी शादी के लिए हेल्मेट पहनकर निकलना पड़ता है। वो भी सिर्फ इस बात के लिए कि दूल्हा घोड़ी पर बैठा है। घोड़ी या घोड़े की कौन-सी जात होती है और होती भी है तो पत्थर मारने का अधिकार दुनिया का कौन-सा समाज इन जातिवादियों को देता है।

मध्य प्रदेश में रतलाम जिले के गांव नेगरून में यही हुआ। पुलिस ने पत्थर मारने वालों से बचाने के लिए दूल्हे को हेल्मेट पहनाया। दूल्हे के गुज़रने के रास्ते पर पुलिसबल की तैनाती करनी पड़ी। पुलिस के अधिकारी भी उस बारात में शामिल हुए ताकि बारात सुरक्षित पहुंच सके। कल्पना कीजिए पूरालाल पड़ियार की बेटी आशा के दिल पर क्या बीत रही होगी। क्या आप उस अपमान को महसूस कर पा रहे हैं। मैं दूल्हे पवन की तारीफ करना चाहता हूं कि शादी के दिन जान जाने या चोट लगने के जोखिम के बाद भी उसने हार नहीं मानी। हालांकि मेरी निगाह में घोड़ी चढ़कर शादी के लिए जाना मूर्खता से कम नहीं है, लेकिन अगर कोई इसे जातिविशेष का सवाल मनाए तो हर दलित को एक घोड़ी खरीद लेनी चाहिए और दरवाज़े पर बांध कर उस पर लिख देना चाहिए कि हमने तथाकथित ऊंची जातिवादियों के जात-पात से बचाने के लिए इस घोड़ी को खरीदा है।


सितंबर 2013 में राजस्थान के अजमेर जिले के एक नीमडा गांव के दलित दूल्हे ने भी यही साहस दिखाया था। गांव के तथाकथित ऊंची जाति के लोगों ने घोड़ी चढ़ने पर धमकी दी तो दूल्हा रंजीत सिंह बैरवा पुलिस के पास चले गए। पुलिस ने जवाब दिया कि गांव की परंपरा का पालन करना चाहिए। रंजीत सिंह बैरवा को दलित अधिकार केंद्र की शरण लेनी पड़ी फिर उनके दबाव के बाद ज़िला प्रशासन ने बारात निकालने की अनुमति दी। गांव के दलित साहस नहीं दिखा पाते थे मगर बैरवा ने पहली बार यह करके दिखा दिया। ऐसे साहसिक लोगों का सार्वजनिक सम्मान करना चाहिए।

आप गूगल करेंगे तो बारात निकालने को लेकर दलित दूल्हों की हत्या तक हुई है। उन्हें मारना पीटना तो आम बात है। यह सब किसी पचास साल पहले की घटना नहीं है, बल्कि ठीक हमारे उस वर्तमान की है, जिसमें हम रोज़ भारत महान भारत महान गाते हैं। सोशल मीडिया पर ऐसी घटनाओं के प्रति अक्सर चुप्पी रहती है। मैं कई बार इस चुप्पी की वजह को समझने का प्रयास करता हूं। क्या यहां दलित नहीं हैं या हैं भी तो अपनी पहचान उजागर होने की आशंका से ऐसे मुद्दों पर दबाव नहीं बनाते। दूसरी चुप्पी उन नागरिकों की है, जो खुद को सवर्ण या अवर्ण के खांचे में नहीं रखकर एक तटस्थ इंडिया प्रेमी नागरिक के रूप में पेश करते हैं, पर वो भी तो ऐसे मुद्दों पर सक्रियता नहीं दिखाते हैं। आखिर इस चुप्पी की वजह क्या हो सकती है?


हमारी राजनीति कभी ऐसे मसलों से सीधे नहीं टकराती। वोट लेने के लिए समाधान के नाम पर कार्यक्रमों की पैकेजिंग करती है। कभी राहुल गांधी दलितों के घर चले जाया करते थे। रात गुज़ार लेते थे और खाना खा आते थे। बीजेपी जमकर आलोचना करती थी। अब बीजेपी और संघ ने सेवा प्रकल्प के नाम से ठीक ऐसा ही कार्यक्रम लॉन्च किया है, जिसके तहत बीजेपी के बड़े नेता दलितों के साथ सामूहिक भोजन कर रहे हैं। यह एक अच्छा प्रयास तो है मगर बेहद सीमित। पैकेजिंग में ही महान लगता है, लेकिन इससे सामाजिक आधार नहीं बदलते। बसों, ट्रेन या ढाबों में अब जातपात का अंतर भले कम दिखता हो, लेकिन इसकी परीक्षा लेनी हो तो किसी ढाबे के नाम के आगे मुन्ना दलित ढाबा लिख दीजिए। जैसे पंजाबी ढाबा या पंडित ढाबा या जैन ढाबा होता है। फिर वहां आने वाले लोगों की सामाजिक पृष्ठभूमि का सर्वे कीजिए। आपको ऐसे कार्यक्रमों की असलियत का पता चल जाएगा।


सहभोजिता जात-पात की बीमारी के एक पहलू को खत्म करती है, लेकिन सजे धजे शामियाने में घरों से बुलाकर लाए दलित परिवारों के साथ खाना सहभोजिता नहीं है। तमाम राजनीतिक दलों के इन कार्यक्रमों को देखेंगे तो वे यथास्थितिवादी से कुछ नहीं हैं। सहभोजिता के नाम पर सह अस्तित्व को स्वीकार कर रहे हैं। इससे ज्यादा कुछ नहीं। अगर इससे सामाजिक बदलाव ही लाना है तो हर बड़े नेता को एक ही थाली में खाना चाहिए। अगर बदलाव लाना ही मकसद है तो मंच से कहना चाहिए कि ज़रूरत है कि हम सब अंतरजातीय विवाहों को बढ़ावा दें। अंतरजातीय मतलब दो तथाकथित ऊंची जाति के बीच के विवाह के अलावा दलित परिवारों में भी शादी करें। अगर बीजेपी कांग्रेस या किसी पार्टी में ऐसा करने वाला कोई नेता या कार्यकर्ता हो तो उसे मंच पर बिठाया जाना चाहिए, लेकिन यह सारी राजनीति वोट के नाम पर करीब आने के लिए नहीं होना चाहिए।

Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com

ज़रूरत है कि सोशल मीडिया पर भ्रमण करने वाला तथाकथित नया भारत ऐसे मुद्दों पर एक नए जनमत का निर्माण करे। खुद भी जाति तोड़े और ऐसी परंपराओं को ढहा दे। यह घटना शर्मनाक है। इस घटना को इस तरह से भी देख सकते हैं। खासकर वह पाठक, जो अपनी शादी में घोड़ी पर चढ़ कर गए थे। क्या उन्हें पता था कि वे एक जाति व्यवस्था के ऐसे क्रूर प्रतीक की सवारी कर रहे थे, जो उनके ही समान अन्य भारतीयों के लिए प्रतिबंधित है। क्या वे ऐसी परंपरा को निभाना चाहेंगे। अपना मौका तो चूक गया, क्या आप अपने बच्चों को घोड़ी पर चढ़ाना चाहेंगे। क्या अपने ऐसे किसी दोस्त की शादी में जाएंगे तो घोड़ी पर चढ़कर वरमाला पहनाने जा रहा हो। अगर कोई महिला पाठक पढ़ रही है तो क्या वो ऐसे दूल्हे को पसंद करेंगी। सोचियेगा।