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This Article is From May 23, 2015

हरियाणवी अंगने में कंगना का जलवा, तनु भागी मनु के पीछे

Ravish Kumar
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  • Updated:
    मई 23, 2015 21:25 pm IST
    • Published On मई 23, 2015 21:11 pm IST
    • Last Updated On मई 23, 2015 21:25 pm IST
ज़माने बाद पर्दे पर हरियाणवी दुल्हन देखी। वर्ना तो करोलबाग और चांदनी चौक टाइप दुल्हनों को देखते-देखते बोर हो गया था। हरे रंग के घाघरे के साथ सफेद बुशर्ट में दुल्हन बनी कंगना रानावत आपको भी अच्छी लगी न!... नहीं? झूठ मत बोलिए। उसकी सादगी पर तो सौ हरियाणा कुर्बान, लेकिन वैसी दुल्हन देखने के लिए तो हरियाणा ही जाओ। करोलबाग के ब्यूटी पार्लर में नहीं मिलेगी जी। वैसे वह खिलाड़ी के लिबास में भी पक्की डीयू वाली ही लग रही थी। स्पोर्ट्स कोटे वाली। झज्जर की दत्तो सांगवान। जिस हरियाणा के समाज में औरतों को लेकर इतना तनाव है उस समाज में कंगना रानावत कितनी आसानी से घुस कर ढिशूम ढिशूम कर देती हैं। एक कलाकार जब अपने किरदार का हो जाए तो बदले में वह किरदार उस कलाकार को बहुत बड़ा बना देता है। कंगना ने तो एक ही फिल्म में दो-दो किरदार आसानी से जी लिए। बावरी और पागल दोनों को ऐसे निभाया जैसे लगा कि स्टार्ट करूं हीरो होंडा अपना।


बड़ी बड़ी बातें कौन करे। तनु वेड्स मनु रिटर्न देखकर हंसी रुक सके तो रोक लेना जी। जॉनी लीवर, लक्ष्मीकांत बेर्डे, राजपाल यादव और इस फिल्म के पप्पी जी न हो तो शादियों वाली फिल्मों की बात नहीं बनती। वही पप्पी जी, जो ज़िंदगी में कुछ पाने से चूक गए, मगर साथ निभाने को हमेशा मौजूद। हर घर में होम डिलिवरी की तरह। दूसरों की शादियों में गाते बजाते रहे और अपनी शादी के लिए तरसते रहे। पप्पी जी ने रंग जमा दिया। और रामपुर के सिंह साहब रांझणा की याद दिला गए। बनारसी के बाद अब रामपुरी बन कर उस काइयांपने को निभा गए, जिसे ओढ़े आज भी हममें से कई दूसरों के लिए खटमल बने रहते हैं।

शादी हिंदुस्तानी समाज का सबसे बड़ा सपना और त्योहार है। सबका अनुभव एक सा है। अजीब रस्म है। इतनी कड़वाहटों के बुनियाद पर रची जाती है, मगर उसमें से भी सबके लिए अपार खुशियों और यादों का मौका निकल ही आता है। चाहे शादी मेल मिलाप से हो जाए या कुंडली मिलन से। बंगाली बाबा का बोर्ड बताता है कि शादी के भीतर की समस्याओं का समाधान आज तक कोई नहीं ढूंढ सका है। इसलिए शादियों वाली फिल्मों की बात ही कुछ और होती है। लगता है कि हमारे घर की कहानी चल रही है। लंदन के सुपर मार्केट टेस्को के सेल से ख़रीदारी से लेकर कानपुर का बिरहाना रोड।

हम और आप जितने भी महानगरीय हो जाएं, दिल के भीतर बसा तो वही गांव कस्बा है न। नोस्ताल्जिया हमेशा भूत काल में नहीं होती है। वर्तमान काल की भी होती है। अभी-अभी तो हम कानपुर पटना छोड़कर लंदन पेरिस गए हैं और अभी-अभी तो वहां से आने वाला कोई आम का अचार ले आया है। ये फिल्में भी एक चिट्ठी की तरह हमारी ज़िंदगी की एक शाम में आ जाती हैं। जैसे किसी ने पुराने बंद पड़े घर का दरवाज़ा खटखटाया हो और 'कौन है' बोलने से पहले कोई अंदर आ गया हो। हमारे सपनों ने हमसे ज़िंदगी ही ले ली। एक दूसरे के लिए जल्दी घर आने या दो पल की शाम बिता लेने की बेकरारी की जगह कहां बची है। ये तो सबकी नियति है, तभी तो सबको ये फिल्म भी अच्छी लगी। प्यार करते हो या करते थे जी। पूछूं तो सच-सच बताओगे का या बोलूं दत्तो या लंदन रिटर्न वाली को।

बड़ी कहानियों के बोझ से लदे हुए फिल्में निकलने का मूड न हो तो तनु वेड्स मनु देख सकते हैं। यह ऐसी फिल्म तो है ही कि देखते देखते साथ वाली की उंगलियां थाम लेते हैं। थोड़ा कंधे से कंधा लड़ाकर एक दूसरे को गुदगुदा लेते हैं। और क्या चाहिए। लाखों की नौकरी ने जीवन को उदास कर दिया है। दो सौ रुपये के टिकट की एक फिल्म हंसा दे तो सौदा सस्ता ही हुआ न।

हमारे सहयोगी ब्रजभूषण शुक्ला से ही फिल्म शुरू हो जाएगी ये तो मैंने सोचा ही नहीं था। स्वरा भास्कर भी पड़ोसन की तरह लगने लगी हैं। कोई नाज़ नखरा नहीं। किरदार है किरदार को निभाओ। तुम कौन हो भूल जाओ। हरियाणवी भाई साब आपने हरियाणा को अच्छा लेक्चर पिलाया है सो आपका तो शुक्रिया बनता है न।

रही बात डियर कंगना की, तो सब तो तारीफ कर ही चुके हैं। देखो जी, कंगना को तो एक्टिंग आती ही नहीं है। वह तो बस हर किरदार के आंगन में जाकर खड़ी हो जाती हैं। देखने वाले की निगाह उन्हें देखते हुए एक्टिंग करने लगती है। सोच रहा हूं कानपुर में फिरंगन बनकर मस्ती करने वाली कंगना अच्छी है या यल्लो टी-शर्ट वाली दत्तो। अरे इब तराजू लेकर तौलेगा के। चल फिल्म देख और निकल। दिन भर ट्विटर, फेसबुक करेगा तो ऐसी ही फिल्मों के लिए तरसेगा। अब दो सौ रुपये में या तो कानपुर का टिकट कटा ले या फिर ये फिल्म देख ले। नाम क्या है रे फिल्म का। तनु वेड्स मनु रिटर्न।

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