राजनेता वह होता है जो अपनी स्वायत्तता का घेरा लगातार बड़ा करता चलता है. जो अपनी स्वायत्तता के लिए लड़ता है, वही राजनेता बनता है. अखिलेश यादव अपने इसी घेरे के विस्तार की लड़ाई लड़ रहे हैं. वे यह लड़ाई नहीं लड़ेंगे तो उनकी राजनीतिक यात्रा धीमी पड़ जाएगी. मैं राजनेताओं के संदर्भ में ख़त्म शब्द का इस्तमाल नहीं करता. समाजवादी पार्टी में जो हो रहा है, उसे सिर्फ घटनाक्रम और किरदारों के आने जाने की निगाह से आप नहीं देख सकते. इसे होने से न तो मुलायम सिंह यादव रोक सकते थे न ही अखिलेश और न ही समाजवादी सत्ता तंत्र में स्थायी तारे की तरह स्थापित शिवपाल यादव या रामगोपाल यादव. भारतीय राजनीति जब भी घुटन के दौर पर पहुंचती है, उसकी सीटी भाप छोड़ने लगती है. समाजवादी पार्टी में घुटन का माहौल है, उसकी सीटी भाप छोड़ रही है.
यही लड़ाई कांग्रेस में अधूरी रह गई. राहुल गांधी आगे बढ़कर लड़ नहीं पाए. इसलिए उनकी राजनीतिक यात्रा शिथिल हो गई. इतिहास ने राहुल को दो मौके दिये. एक ऐतिहासिक हार से पहले और दूसरा ऐतिहासिक हार के बाद कि वे अपनी राजनीतिक स्वायत्तता के लिए संघर्ष करें और उसके घेरे का विस्तार करें. राहुल नहीं कर पाये. कांग्रेस के जटिल और सुस्त सत्ता तंत्र ने उन्हें घेर लिया. वे बार-बार इस घेरे से निकलकर अपना घेरा बनाने निकल पड़ते हैं. राहुल न तो दिल्ली में रहकर अपनी स्वायत्तता बना पाते हैं और न ही दिल्ली से बाहर जाकर. राहुल गांधी ने हार नहीं मानी है. भले इस लड़ाई को जीत नहीं पाए हों लेकिन वे लगातार अपनी स्वायत्तता का घेरा बड़ा करने की लड़ाई लड़ते नज़र आ जाते हैं. बसपा में भी इसकी संभावना है मगर अभी वो दिन नहीं आया है. संभावना तो एक दिन तृणमूल कांग्रेस में भी बनेगी और बीजू जनता दल में भी. डीएमके से लेकर अन्ना द्रमुक तक में भी एक दिन इसका संघर्ष होगा.
लखनऊ के कालिदास मार्ग पर जो कुछ भी चल रहा है, उससे संबंधित एक भी ख़बर की कॉपी मैंने ठीक से नहीं पढ़ी है. सुर्ख़ियों के तर्ज पर सुना है, बाकी सब धारणाओं और प्रक्रियाओं में फिट कर सोचता रहा कि वहां क्या हो रहा होगा. मैं देखना चाहता हूं कि अखिलेश यादव राहुल गांधी की तरह ही अपनी पार्टी में अधूरी लड़ाई लड़ते हैं या वे गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की तरह अपनी लड़ाई जीत जाते हैं. लोकसभा चुनावों से पहले के दो साल याद कीजिए. अन्ना आंदोलन की निगाह में कांग्रेस बीजेपी दोनों एक समान थे. तभी नरेंद्र मोदी अहमबादाबाद से अपनी स्वायत्तता की दावेदारी धीरे-धीरे करने लगते हैं. कोई कहने लगता है कि चुनाव बाद तय होगा कि प्रधानमंत्री कौन होगा तो कोई कहता है कि पहले तय करना होगा. कभी सुषमा नाराज़ तो कभी आडवाणी जी का पत्र. कभी भागवत जी का फोन तो इन सबके बीच जेटली जी की रणनीतिक चुप्पी. भाजपा के भीतर जिसने भी उन लम्हों को देखा होगा या जीया होगा, वो तनाव के उन झणों को कभी नहीं भूल पाएगा. क्या वक्त रहा होगा. जब बारह साल से अहमदाबाद में सिमटा हुआ नेता अपनी बाहें फैलाए दिल्ली आता है और सारे विरोधियों को परास्त कर देता है. कालिदास मार्ग पर सपा की डाल पर बैठा असली कालिदास कौन होगा. वही होगा जो रचने के लिए आगे आएगा.
नरेंद्र मोदी साहस और ऐतिहासिक समझ के बग़ैर ये काम नहीं कर सकते थे. जैसे भी किया लेकिन ये काम उन्होंने कर दिखाया. दिल्ली में बैठे भाजपा के नेता पुराने कांग्रेसी नेताओं की तरह अपना दांव चलने लगते हैं लेकिन नरेंद्र मोदी अपनी पूरी शक्ति से दिल्ली के घेरे में प्रवेश करते हैं और उन सभी को ध्वस्त करते हैं. भाजपा पल भर में अपनी स्मृतियों के मोह से निकल जाती है और पुराने नेताओं को भूल एक नए नेता का गान करने लगती है. मोदी मोदी. जो चुप्प रह गए, वो अनुशासन या मर्यादा के कारण नहीं बल्कि इसलिए कि वे सारे लोग अपनी राजनीतिक स्वायत्तता गंवा चुके थे. दिल्ली में रहकर राष्ट्रीय नेता बनकर उन्हें मोदी से ज़्यादा मौका मिला लेकिन वे अपनी राजनीति नहीं रच पाए. अलबत्ता उनका व्यक्तित्व ज़रूर बड़ा था. गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी भले आडवाणी या सुषमा जी के समाने कम अनुभव वाले नेता रहे हों मगर लोकसभा से पहले उन्होंने मौके को समझ लिया. अपनी स्वायत्तता के लिए संघर्ष किया और भाजपा में जगह बना ली.
मोदी ने पहली बड़ी जीत भाजपा के भीतर हासिल की. संघ के लोग उनके वेग के सामने चकित खड़े रह गए. वे भी स्वागत करने में लग गए. जब तक संघ को अपनी स्वायत्तता का ख़्याल आया, बिहार का चुनाव आ चुका था और उनके प्रमुख मोदी को हराने के प्रमुख कारणों में से एक बयान देने लगे. यह संघर्ष छोटा रहा. नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री तो बन गए थे मगर भिड़ने की आदत उनकी गई नहीं थी. असम के चुनाव तक आते आते संघ फिर से अपनी स्वायत्तता के सीमित दायरे में चला गया. मोदी मोदी करने लगा. मोदी की जीत में ही संघ की जीत है. मोदी की स्वायत्तता आज भाजपा और संघ दोनों से बड़ी है. राजनीति में अंतिम परिणाम नहीं होता है. प्रक्रियाएं होती हैं. यह दिलचस्प रहेगा देखना कि संघ अपनी स्वायत्तता की वापसी संघर्ष के किन रास्तों से करता है.
राहुल गांधी ने भी प्रेस क्लब में अपने गुस्से का इज़हार कर स्वायत्ता की दावेदारी की थी लेकिन वे मोदी के हमले और अपने कम आत्मविश्वास के कारण सिमट कर रह गए. राहुल गांधी ने अपने भीतर बहुत कुछ दबा लिया है, अब उन्हें बाहर आना होगा. वे दूसरा मौका नहीं गंवा सकते हैं. दूसरा मौका कब आएगा, यह पहचानना उनका काम है. अगर वे लोकसभा चुनाव के वक्त मोदी की तरह दावेदारी करते तो उनकी कांग्रेस भले ही हार की नियति से बच नहीं पाती मगर राहुल राजनेता बन जाते हैं. राजनेता का पहला और अंतिम स्वभाव होता है, अपनी स्वायत्तता के लिए संघर्ष करते रहना. दूसरा स्वभाव होता है जोखिम उठाना. पिछले पांच सात साल की राजनीति में राहुल के पास मोदी से बड़ा मौका था. लेकिन उनके ठिठक जाने के कारण निगाह भाजपा की तरफ चली गई. वहां नरेंद्र दामोदर दास मोदी सबके सामने आ चुके थे. नरेंद्र मोदी के लिए आडवाणी भी पिता ही समान थे मगर वे किसी पितृ मोह में नहीं फंसे. राहुल फंस गए और अब अखिलेश फंसते दिख रहे हैं.
मोदी जब अपनी स्वायत्तता का घेरा बना रहे थे तब एक ही नेता उस घेरे को चुनौती दे रहा था. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार. अपनी सरकार दांव पर लगा दी लेकिन वे मोदी के सामने खड़े हो गए. हार तो वे भी गए मगर वे राहुल की तरह बिना लड़े नहीं हारे. जनता के दरबार से लड़ने वाला, दावेदारी करने वाला कभी ख़ाली हाथ नहीं जाता. मोदी से हारते ही नीतीश कुमार अपनी पार्टी में पद छोड़कर अपनी स्वायत्ता की खोज करने चले जाते हैं. जीतन राम मांझी को सत्ता सौंपकर अपनी वापसी के लिए रस्सी कूदने लगते हैं. जीतन राम मांझी बीजेपी की तरफ जाने लगते हैं. उनकी लगाम कहीं और हो जाती है. भाजपा पीछे के रास्ते से नीतीश कुमार की बची खुची स्वायत्ता पर हमला करती है, नीतीश कुमार सामने से चुनौती स्वीकार करते हैं और जीतन राम मांझी को हटा देते हैं. जीतन राम मांझी इतिहास का हिस्सा हो सकते थे मगर उन्होंने अपनी स्वायत्तता भाजपा के यहां गिरवी रख दी. बिहार के चुनाव में नीतीश दोबारा से मोदी से लड़ते हैं. विधानसभा चुनाव से बहुत कम समय पहले मुख्यमंत्री बनते हैं और जीत जाते हैं. लेकिन यहां स्वायत्तता की लड़ाई अभी पूरी नहीं हुई है. बिहार की कहानी में यह चैप्टर रोज़ कहीं न कहीं पढ़ा जा रहा है. लालू भी अपनी स्वायत्ता की दावेदारी तो करेंगे ही.
भारतीय राजनीति के इन दुर्लभ क्षणों का रस लीजिए. मोदी भक्ती या मोदी विरोध के चक्कर में राजनीति को संजय की तरह दूर से देखने का फन मत गंवा दीजिए. अखिलेश यादव की लड़ाई का एक और पहलू है. अखिलेश सपा में सिर्फ अपनी राजनीतिक स्वायत्ता के लिए नहीं लड़ रहे हैं बल्कि एक राजनीतिक दल के रूप में सपा को कॉरपोरेट से स्वायत्त बनाने के लिए भी जूझ रहे हैं. यह संघर्ष सभी दलों में होगा वर्ना नेता दलाल होने लायक भी नहीं रहेगा. किसी कंपनी वाले का किरानी होकर रह जाएगा. दुर्भाग्य या सौभाग्य से इस संघर्ष का पहला ऐतिहासिक मौका अखिलेश यादव के कंधे पर आया है. वो बाहरी कहे जाने वाले अमर सिंह और भीतरी कहे जाने वाले चाचाओं और भाइयों से निकाल कर सपा को बाहर ले आए तो ठीक वर्ना सपा से बाहर आकर भी वे इस लड़ाई के बीज रोप देंगे. कॉरपोरेट का एजेंट इतनी जल्दी सत्ता से नहीं जाता है. ईस्ट इंडिया कंपनी आज हर दल में आ गई है.
मीडिया की तरह राजनीतिक दल भी कॉरपोरेट के पिट्ठू हो गए हैं. उसी तर्क से जिस तर्क से कि मीडिया कैसे चलेगा. विज्ञापन और बेतहाशा चुनावी ख़र्चे की ज़रूरत और स्रोत में कोई फर्क नहीं रहा है. ऐसा नहीं है कि सपा संतों की पार्टी हो जाएगी लेकिन हम देखेंगे कि कॉरपोरेट के एजेंट बताने वाले अपने नेताओं को उनका मुख्यमंत्री कैसे हरा देता है. कभी कभी लगता है कि कॉरपोरेट का स्क्रिप्ट है, एक ही कंपनी के दूसरे ब्रांड को सत्ता सौंपने के लिए दूसरे ब्रांड को ख़त्म किया जाता है. ब्रांड की दुनिया में ऐसा बहुत होता है. राजनीति की दुनिया में भारत में हो रहा है, मगर कोई देखने और लिखने का साहस नहीं जुटा सकेगा. अखिलेश यादव राजनीति के दूसरे राहुल बनेंगे या निकल कर राहुल से हाथ मिलाकर कुछ नया बनाएंगे, अभी ये सब क्यों कहना. जब होगा तब देखेंगे.
कॉरपोरेट तो रहेगा लेकिन सवाल है कि उसके आंगन में स्वायत्ता कितनी रहेगी. इसी सवाल से संपादक और पत्रकार जूझ रहे हैं. एक दिन भाजपा को भी इस सवाल से जूझना होगा. संघ को कॉरपोरेट कंपनियों से भाजपा को दोबारा हासिल करने के लिए यह संघर्ष करना ही होगा. कांग्रेस की नौबत नहीं आएगी क्योंकि कॉरपोरेट उसे छोड़कर कहीं और जा चुके हैं. फिर भी उसके अहाते से उठाकर अपनी पार्टी को लाने का संघर्ष तो वहां भी होगा. राजनीति में परिवारवाद से ज़्यादा बड़ी बीमारी यह है. सारे परिवार कॉरपोरेट के सहायक बन गए हैं. अलग-अलग राजनीतिक दल कॉरपोरेट कंपनियों के अलग-अलग वर्टिकल हैं. मालिक एक है मगर सी ई ओ अलग हैं. राजनीतिक दल जब कंपनी हो जाते हैं तो परिवारों के बीच कंपनी की तरह ही बंटते हैं. समाजवादी पार्टी कंपनी की तरह हो चुकी है. कब कौन बाहरी आ जाता है, कंपनियों के सीईओ को भी पता नहीं चलता है.
इसलिए लखनऊ की घटना को चाचा भतीजा के कारनामों और सियासी जंग से आगे निकल कर देखिये. बहुत कुछ दिखेगा. भारतीय राजनीति में कुछ नहीं बल्कि बहुत कुछ नया होने की संभावना ही उसकी इस वक्त की उम्मीद है. नई राजनीतिक संभावनाओं के जन्म होने की कथा का पर्दा लोकसभा चुनावों की मजबूरियों के कारण गिर गया था लेकिन अब यह पर्दा उठ रहा है. इस बार सही समय पर उठ रहा है. लोकसभा चुनाव दूर है, मगर सारी कथा उसी की है. उत्तर प्रदेश का चुनाव मुंबई से लड़ा जा रहा है या दिल्ली से, यह देखने के लिए आपको लखनऊ जाने की ज़रूरत नहीं है. दरअसल टीवी देखने की भी ज़रूरत नहीं है. लोकतंत्र की नदी के सामने तमाम पुराने नेता और दल किसी बांध की तरह बहुत ऊंचे हो चुके हैं. पानी बहुत जमा है. बांध टूटने का इंतज़ार कीजिए. कहीं भी, किसी भी दल में. अरे हां, विचारधारा की बात तो भूल ही गया. बेहतर है, आप भी भूल जाइये.
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This Article is From Oct 24, 2016
लखनऊ के कालिदास मार्ग पर अखिलेश शाकुंतलम कौन लिख रहा है...
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:अक्टूबर 24, 2016 12:37 pm IST
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Published On अक्टूबर 24, 2016 00:59 am IST
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Last Updated On अक्टूबर 24, 2016 12:37 pm IST
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