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This Article is From Aug 30, 2015

चुनावी वादों की तक़दीर बदल रहे हैं सैनिक और किसान

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 30, 2015 21:39 pm IST
    • Published On अगस्त 30, 2015 21:35 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 30, 2015 21:39 pm IST
31 दिसंबर 2014 की रात भूमि अधिग्रहण बिल में संशोधन का अध्यादेश आठ महीने बाद 30 अगस्त 2015 को मृत घोषित कर दिया गया। यह खबर सरकार और किसान दोनों के लिए अच्छी है। सरकार के लिए अच्छी है कि भले आठ महीने लग गए, लेकिन वो अपने फ़ैसले को जनता के हित में बदल सकती है। किसान के लिए अच्छी ख़बर इसलिए है कि वे अपनी मांग मनवा सकते हैं। बहुमत हमेशा संसद में नहीं होता, सड़क पर भी होता है।

किसानों के लिए कई संगठनों ने लड़ाई लड़ी। इसके कारण बीजेपी को अंदर से भी जूझना पड़ा। श्रेय कोई भी ले मगर किसानों ने अपनी ताकत तब दिखाई जब उनकी ज़मीन पर व्यापक हमले की तैयारी चल रही थी। लेकिन क्या उनकी जीत मुकम्मल हुई है। अब यही प्रस्ताव बीजेपी शासित सरकारें लेकर आएंगी। केंद्र का मसौदा राज्यों की तरफ से लागू होगा। किसानों को एक सरकार की जगह अलग-अलग सरकारों से लड़ना होगा। उनकी संगठित ताकत का प्रभाव बंट जाएगा। प्रदर्शन दिल्ली की जगह राज्यों की राजधानियों में होंगे और किसानों की आवाज़ गुम हो जाएगी।

प्रधानमंत्री ने 'मन की बात' में बार-बार कहा कि इस बिल के बारे में भ्रम फैलाया गया। अगर वो सही में मानते हैं कि भ्रम के कारण फ़ैसला हुआ तो इस मसौदे का एक बार फिर बचाव करना चाहिए था। अगर प्रधानमंत्री भी विपक्ष के फैलाए भ्रम से सहमत हैं तब उन्हें इस बिल को राज्यों के भरोसे नहीं छोड़ना चाहिए। जो संशोधन केंद्र के नज़रिए से ठीक नहीं वो राज्यों के नज़रिए से कैसे होगी। फिर भी सरकार कहती है कि वो किसानों के हित की चिन्ता करती है, तो किसानों को आश्वस्त होना चाहिए। मुद्दों की लड़ाई को हमेशा हार-जीत के नज़रिए से देखना ठीक नहीं। ऐसा नहीं कि किसानों के मसले इस जीत के साथ ख़त्म हो गए। फ़सलों की लागत का डेढ़ गुना दाम अभी हासिल करना है।
 
किसानों और सैनिकों ने अपने प्रदर्शन और निरंतर दबाव से लोकतंत्र के लिए जो हासिल किया है वो बेमिसाल है। सैनिकों ने अपनी मांग को दैवी कृपा पर नहीं छोड़ा। उनकी मांग पर सरकार विचार कर रही है। आज नहीं तो कल 'वन रैंक वन पेंशन' किसी न किसी शक्ल में लागू हो ही जाएगा। सरकार से हासिल करने में वक्त लग जाता है मगर हासिल करने के तरीके में धीरज हो तो मंज़िल मिल जाती है।

अन्ना आंदोलन और रामदेव का 'काला धन अभियान' धीरज नहीं होने के कारण उफान चढ़ कर समाप्त हो गया। दो साल तक लोकपाल के लिए आंदेलन चला। कानून भी बना, लेकिन लोकपाल आज तक नहीं बन सका। क्योंकि उसकी मांग करने वाले अपनी अलग-अलग बेचैनियों को लेकर जमा हुए थे और कानून बनते ही अलग-अलग उद्देश्यों की तरफ चले गए। इसीलिए मध्यम वर्ग का कोई भी आंदेलन सफल नहीं होता है। इनकी वर्गीय पहचान और गोलबंदी वक़्ती होती है। लोकपाल का न बनना मध्यम वर्ग के चेहरे पर तमाचा है। मध्यमवर्ग अपनी मांग का ठेका 'आम आदमी पार्टी' को देकर चला गया। इसका दूसरा हिस्सा रामदेव का काला धन वाला भी वही निकला। जिसे धन लाना था वो योगासन सीखाने लगा।

मगर किसान या सैनिक इसलिए हासिल कर लेते हैं या हासिल करने के कगार पर पहुंच जाते हैं, क्योंकि अब भी ये वर्ग के रूप में बचे हुए हैं। ऐसा नहीं है कि किसान हर लड़ाई जीत जाते हैं। इनकी जीत कई बार हारने के बाद होती है। जंतर-मंतर पर बैठे सैनिकों के आंदोलन का महत्व अभी समझ नहीं आ रहा। जिस दिन सरकार उनकी मांग पर ऐलान करेगी ये आंदोलन राजनीतिक घोषणापत्रों की तक़दीर बदल देगा। घोषणापत्र चुनाव के बाद कबाड़ में फेंक देने वाला पत्र नहीं रह जाएगा। चुनावी वादों की तस्वीर बदल जाएगी। सैनिकों की कामयाबी चुनावी वादों की विश्वसनीयता बहाल करेगी और नेताओं को वादों को लेकर ज़िम्मेदार बनाएगी।

देश भर में ठेके पर भर्ती किए गए लाखों शिक्षकों को इन आंदोलनों से सीखना चाहिए। जिनके कंधे पर मुल्क की तालीम का भार है, उनकी पीठ पर पुलिस लाठी दाग देती है। ऐसे न जाने कितने समुदाय, इलाक़े और उद्योग हैं जो चुनावी राजनीति में ठगे जाते हैं। सैनिकों और किसानों ने साबित किया है कि जो लड़ेगा वो जीतेगा। लेकिन हर जीत के बाद सरकार को बधाई भी मिले कि ऐसी जीत आगे भी मिलती रहे।

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