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This Article is From Dec 04, 2016

विपक्ष को पहले अपना विपक्ष बनना चाहिए, फिर सत्ता का...

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 04, 2016 14:00 pm IST
    • Published On दिसंबर 04, 2016 14:00 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 04, 2016 14:00 pm IST
इस वक्त सत्ता पक्ष को लेकर भले दो से लेकर तीन राय हो सकती है मगर विपक्ष को लेकर एक ही राय सुनाई देती है. विपक्ष नकारा है. विपक्ष में दम नहीं है. विपक्ष चुप है. विपक्ष मिला हुआ है. विपक्ष में कोई नेता नहीं है. विपक्ष का कोई चेहरा नहीं है. जब भी कोई बड़ी घटना होती है, लोग विपक्ष को लेकर अपनी सियासी चर्चाओं में गूगल सर्च करने लगते हैं. उन्हें विपक्ष नहीं मिलता. विपक्ष की सबसे बड़ी हार ये है कि भले ही उसमें तमाम दल हों मगर विपक्ष के रूप में किसी एक दल की पहचान नहीं है. आज छवियों की राजनीति है. आप आंखें बंदकर बीजेपी के बारे में सोचेंगे तो पार्टी का झंडा भी नज़र नहीं आएगा. नज़र आएंगे सिर्फ और सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी. यही प्रयोग आप विपक्ष के बारे में कीजिए कि आंखें बंद करने के बाद कौन नज़र आता है. आपको जवाब मिल जाएगा.

विपक्ष का मतलब होता है विकल्प. विपक्ष की परिभाषा विकल्प से शुरू होती है. हर कोई पूछता है कि आप ही बताइये, विकल्प क्या है. इस एक सवाल से लैस आसान सी गेंद भी मिडिल स्टंप उड़ा देती है. लोकतंत्र के लिए ज़रूरी है कि प्रखर और मुखर विपक्ष हो. हम अक्सर विपक्ष को सत्ता पक्ष के सामने रखकर देखते हैं. ऐसा करना ग़लत नहीं है लेकिन विपक्ष बनता है अपने विपक्ष से. अपनी जड़ताओं से लड़कर विपक्ष बनता है. अपनी ग़लतियों को स्वीकार कर विपक्ष बनता है. अपने नेताओं को बदलकर विपक्ष बनता है. अपने संगठन को बदलकर विपक्ष बनता है. अपने कार्यक्रमों को बदल कर विपक्ष बनता है. राजनीति में नैतिकता स्थाई नहीं होती. ये एक लाइसेंस की तरह होती है जिसका समय समय पर जनता के साथ नवीनीकरण करते रहना पड़ता है. क्या विपक्ष ने ढाई साल के दौरान ऐसा कुछ किया? बग़ैर इन तक़लीफ़देह प्रक्रियाओं से गुज़रे विपक्ष नहीं बन सकता है.

एक विपक्ष नहीं है. एक विकल्प नहीं है. एक नेता नहीं है. एक कार्यक्रम नहीं है. तमाम दलों के आर्थिक या राजनीतिक कार्यक्रम एक से ही हैं. बहुत मामूली अंतर है. ऐसा  लगता है कि सारे दल किसी एक कार कंपनी के अलग अलग राज्यों के अलग अलग डीलर हैं. किसी का नाम शिवा मोटर है तो किसी का नाम बग्गा मोटर है, काम सबका एक ही है. एक कंपनी की कार बेचना. भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा संकट अगर कुछ है तो यही है. एक पार्टी आधार कार्ड लॉन्च करती है. एक पार्टी आधार की आलोचना करती है. वही पार्टी हर बात में आधार कार्ड ज़रूरी कर देती है. वही निलेकणी जो तब कांग्रेस के साथ रहकर बीजेपी से आधार को लेकर आलोचना सह रहे थे, अब आधार को लेकर बीजेपी की मदद करना चाहते हैं. सरकार बदल गई. आधार कोई नहीं बदल सका. आधार की मौलिक और टिकाऊ आलोचना किसी दल के पास नहीं है. सब आधार समर्थक हैं. राजनीति की इन्हीं समानताओं के कारण निलेकणी जैसे तत्व सरकार सापेक्ष बने रहते हैं. मैं यहां आधार के बहाने भारतीय राजनीति की विकल्पहीनता बता रहा हूं.

इसलिए भारतीय राजनीति, गवर्नेंस की खाल ओढ़कर दुरंगा सियार होती जा रही है. उसमें विपक्ष और विकल्प नहीं दिखता है. अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार इतनी ताकतवर हो गई है कि उनकी पार्टी में भी लोग नीतियों की आलोचना करने की साहस नहीं कर पाते हैं तो क्या इसके विकल्प में यही सुविधा किसी और दल में मौजूद है? अगर प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह की फौज लोकतंत्र विरोधी है तो वौ कौन सा दल है जिसका ढांचा लोकतंत्र की बुनियादी ख़्वाहिशों को लेकर आश्वस्त करता है. जहां पर नई राजनीतिक प्रतिभाओं के लिए पर्याप्त संभावना है या फिर पुरानी स्थापित प्रतिभाओं को भी आगे निकलने का मौका. क्या गारंटी है कि इन दलों का नेतृत्व वैसा नहीं है जैसा नरेंद्र मोदी या अमित शाह का नेतृत्व बताया जाता है. अगर राहुल गांधी बीजेपी में सिर्फ मोदी - मोदी की आलोचना करते हैं तो उन्हें अपनी पार्टी का रिपोर्ट कॉर्ड देना चाहिए कि कैसे उनके यहां राहुल - राहुल नहीं है.

कांग्रेस के पास तो अब चवालीस सांसद ही हैं. दो चार को छोड़ किसका चेहरा आपको याद आता है. क्या उन्हें स्वतंत्र रूप से उभरने का मौका दिया जा रहा है. क्या उन नेताओं में स्वतंत्र नेतृत्व के रूप में उभरने की प्रतिभा है? उनमें साहस और आग है कि आयकर विभाग से डरे बिना वे विपक्षी तेवर में आ सकते हैं. विपक्ष जब तक इन सवालों से नहीं टकराएगा, सत्ता के सामने खड़े होने की नैतिकता हासिल नहीं कर सकता है. कांग्रेस के जितने भी चवालीस सांसद हैं उनमें से बहुत अगले चुनाव में हार जाएंगे. बीजेपी गुजरात में यही करती थी क्योंकि कांग्रेसी विधायक भी कुछ अच्छा तो करते नहीं थे इसलिए उन्हें हराकर अपनी हार की भरपाई कर लेती थी. मेरी इस बात को याद रखियेगा. इस हार के लिए मेहनत बीजेपी नहीं कर रही है, कांग्रेस के सांसद ही कर रहे हैं. समझौता कीजिएगा तो कैसे लड़ियेगा. लड़ने के लिए पढ़ना पड़ता है. आगे बढ़ना पड़ता है. वे अपने क्षेत्र में भी सहमे सहमे से रहते हैं.

विपक्ष की समस्या यह है कि इनमें से कई दल राज्यों में सत्ता पक्ष हैं. उन राज्यों में भी इस विपक्ष ने कोई विकल्प या आदर्श कायम नहीं किया है. इसलिए उसे सूचना अधिकार सेल और आयकर विभागों से डरना पड़ता है. विपक्ष सत्ता पक्ष के ख़िलाफ़ लोकतंत्र की दुहाई देता है लेकिन जब अपने किसी सहयोगी विपक्ष पर अलोकतांत्रिक हमला होता है तो चुप रह जाता है. इसलिए आज के विपक्ष में लोकतंत्र को लेकर कोई स्पष्ट और निर्भीक प्रतिबद्धता नहीं है. विपक्ष अपने अंदरख़ानों के गुनाह से कांपता रहता है क्योंकि अब अघोषित राजनीतिक सहमति थोड़ी टूट गई है कि सत्ता बदलेगी तो विपक्ष के ख़िलाफ़ बदले की कार्रवाई नहीं होगी. मोटे तौर पर तो अब भी नहीं होती है लेकिन दो चार ऐसी कार्रवाई हो रही है जिसके नाम पर इसकी आशंका बनी रहती है. ब्लैकमेल का खेल चलता रहता है इसलिए आज कोई विपक्ष नहीं बन रहा है. आज सब ब्लैकमेल हो रहे हैं. विपक्ष का यह ब्लैकमेल काल है. ज़ाहिर है उसमें भी ईमानदारी की घोर कमी है. राजनीति में ईमानदारी कोई नैतिक मूल्य नहीं है, अवसर है. जो सत्ता में होता है वो अपने काले कारनामे छिपा कर दूसरों की ईमानदारी का इम्तहान लेता है. बस इतनी सी ही बात है. ऐसा नहीं कि सत्ता में बैठा आदमी ईमानदार है.

कांग्रेस भले अपने प्लेटफार्म पर नेता न पैदा कर पा रही हो लेकिन वो एक ऐसी पार्टी है जिसने बीजेपी को सबसे अधिक नेताओं की सप्लाई की है. किसी राजनीतिशास्त्री को इसका अध्ययन करना चाहिए. 2014 के बाद कांग्रेस से बीजेपी में आने वाले नेताओं की संख्या कितनी है और उनकी प्रगति का ग्राफ क्या है. कांग्रेस को भी उन्हें फीडबैक पत्र भेजना चाहिए कि आप दूसरे दल में जाकर कैसा महसूस कर रहे हैं, वहां की ख़ूबियां और हमारी कमियां बतायेंगे तो लोकतंत्र को फायदा होगा! बीजेपी में हर दल से नेता गए हैं. कुछ ने अलग दल बनाकर तालमेल किया. अपनी पार्टी के प्लेटफार्म को फ्रेंचाइज़ी की तरह इस्तमाल करने की इस प्रक्रिया का अध्ययन होना चाहिए.  कार कंपनी एक ही है. डीलरों के नाम अलग अलग हैं. जिन क्षेत्रों में बीजेपी के टिकट से पूर्व कांग्रेसी या पूर्व सपाई जीते हैं, वहां बीजेपी के अपने नेताओं का लोकतांत्रिक विकास कैसे हो रहा है. बीजेपी में आकर कांग्रेसी पूरी तरह से भाजपाई हो जाते हैं या बीजेपी का कांग्रेसीकरण कर देते हैं, इन सब सवालों का जवाब बेहतर शोध से ही मिल सकता है.

जैसे दस जनपथ के परिवारवाद और अलोकतांत्रिक ढांचे से बग़ावत कर बीजेपी में जाने वाले जगदंबिका पाल किस कदर नए लोकतांत्रिक माहौल में मुखर हैं. बीजेपी में पार्टी अध्यक्ष के ही फरमान का पालन करते हैं या उनकी राय से अलग भी बोलते हैं. पता तो चले कि जब एक नेता एक विचारधारा वाले दल में बिना विचारधारा वाले दल से जाता है तो उस पर किस तरह का वैचारिक और राजनीतिक असर पड़ता है. केंद्र में कितने मंत्री ऐसे हैं जो कांग्रेसी बैकग्राउंड के हैं. असम में कितने ऐसे मंत्री हैं जो कांग्रेस बैकग्राउंड के हैं . हेमंत शर्मा ने बीजेपी में जाकर राहुल गांधी को कितना कोसा. इसी हेमंत शर्मा के भ्रष्टाचार के बारे में बीजेपी के नेताओं के पुराने आरोप आप निकाल कर देखिये. लेकिन कांग्रेस चुप रही क्योंकि उसने सत्ता में रहकर किसी नैतिकता पर ध्यान ही नहीं दिया. अपने वैचारिक और राजनीतिक आदर्शों को छोड़ दिया.

कांग्रेस पुराने नेताओं को लेकर इन तत्वों का विकास कर ही नहीं सकती है. उसे नैतिक नेतृत्व लाना होगा या नेतृत्व में नैतिकता विकसित करनी होगी. उसके ज्यादातर नेता समझौतावादी बातें करते हैं. तेवर हमलावर का होता है मगर बातें गोलमोल होती हैं. टीवी पर बोलते हुए विश्वसनीय नहीं लगते. ऐसा लगता है कि बीजेपी से आंखें चुराते हुए कुछ बोलने की ज़िम्मेदारी पूरी कर रहे हैं. मन में कहीं डर बैठा है कि कोई उनकी फाइल न तैयार करवा दें. कांग्रेस डरी हुई पार्टी है इसीलिए विपक्ष के रूप में कांग्रेस के पास भले ही दस करोड़ वोटर होंगे लेकिन राजनीति में वो अपनी प्रासंगिकता प्राप्त नहीं कर पा रही है. बीच बीच में हासिल करती है लेकिन फिर खो देती है. वो अभी तक जनता को यह संदेश नहीं दे पाई है कि विपक्ष में आकर उसने कुछ नया सीखा है. अपनी ग़लतियों पर विचार किया है. इंडियन एक्स्प्रेस में छपी शरद यादव की एक बात से सहमत नहीं हूं कि बीजेपी को सरकार चलाना नहीं आता. ये अहंकारी बात है. तमाम राज्यों में पंद्रह पंद्रह साल से बीजेपी जमी है. लेकिन उनकी दूसरी बात आधी सही है कि कांग्रेस को विपक्ष की भूमिका नहीं आती. आधी इसलिए क्योंकि कांग्रेस संपूर्ण विपक्ष नहीं है. आधा विपक्ष है. बाकी विपक्ष भी कांग्रेस की तरह डरपोक और प्रतिभाहीन है. ख़राब वक्ताओं का जमावड़ा है. तथ्यहीन चिंतकों की भरमार है.

अगर बीजेपी के नेता रेड्डी ने कथित रूप से पांच सौ करोड़ की शादी की तो केरल में भी कांग्रेस के एक पूर्व मंत्री के बेटे की शादी शराब कारोबारी के बेटे से हो रही है. उसके लिए भी आठ एकड़ ज़मीन में भव्य पंडाल बनाए गए हैं. क्या राहुल गांधी ने अपने इस नेता के यहां होने वाली भव्य शादी को लेकर कुछ किया? पूछा कि तुम्हारे पास इतने पैसे कैसे आए. जब प्रधानमंत्री से कहा जाता है कि क्या उन्होंने रेड्डी से पूछा है कि इतने पैसे कैसे आए तो राहुल गांधी कैसे बच सकते हैं. प्रधानमंत्री को भी मंत्री,सांसद, विधायक और कार्यकर्ताओं को आदेश देना चाहिए कि सादी शादी करें. एक सादी शादी एप बनवा दें. हालांकि मैं ज़्यादातर एप को अपारदर्शी और फालतू प्रयोजन मानता हूं फिर भी. क्या प्रधानमंत्री अपने लिए यह तय करेंगे कि दोपहर को अमीरों को चोर बता कर रात को अमीरों की शादियों में नहीं जायेंगे. पहले की बात छोड़िये क्या अब वे ऐसी नई नैतिकता कायम कर पायेंगे. क्या वे आश्वस्त हैं कि जिस अमीर के घर शादी में जा रहे हैं उसके यहां एक नया पैसा काला धन का नहीं है.

जैसी सत्ता वैसा विपक्ष. दूसरों की ग़लती से फ़ायदा उठाने का इंतज़ार करने वाला विपक्ष औसत दर्जे का अवसरवादी बन सकता हैं, विकल्प नहीं बन सकता है. यह तभी सक्रिय नज़र आता है जब सरकार की पकड़ ढीली होती है. नोटबंदी पर उसे अपनी राय विस्तार से जनता के बीच रखनी चाहिए थी. विपक्ष संसद में विरोध कर रहा है और प्रधानमंत्री जनता के बीच जाकर उसके फायदे बता रहे हैं. होना तो यह चाहिए था कि विपक्ष जनता के बीच होती और प्रधानमंत्री संसद में. तो यह सवाल पूछिये कि विपक्ष के वैकल्पिक राजनीतिक कार्यक्रम क्या हैं. क्या उसके पास कोई नया आदर्शवाद है जिसके सहारे वो सरकार पर प्रहार करते हुए नई प्रतिभाओं को अपनी ओर खींच सकता है. छोटे-छोटे तालाब की तरह विपक्ष नज़र आने लगा है. कभी कोई सत्ता के साथ हो जाता है तो कभी कोई विपक्ष के ख़िलाफ़ हो जाता है.

विपक्ष के पास रचनात्मकता की घोर कमी है. ठीक है कि बीजेपी संसद नहीं चलने देती थी लेकिन अब संसद को रोक देना वो भी कई हफ्तों तक रोक कर रखना बेतुका आइडिया है. एक समय के बाद किसी का ध्यान भी नहीं रहता कि संसद क्यों नहीं चल रही है. इससे तो आप बीजेपी से बदला ले रहे हैं, विकल्प नहीं बन रहे हैं.  विपक्ष को लेकर ज़्यादा निराशा है क्योंकि भारत का विपक्ष समझौतावादी नेताओं की गिरफ़्त में है. उसे अपने गुनाहों की फाइलों के भय से आज़ाद होना होगा. अपने घर से ख़ुद ही निकाल बाहर करना होगा या फिर साहस कर सत्ता पक्ष की पोल खोल देनी होगी. विपक्ष को सबसे पहले अपना विपक्ष बनना होगा. विपक्ष को याद रखना चाहिए - जनता अगर अपनी सरकार चुन सकती है तो अपना विपक्ष भी बना सकती है. उसे इस हद तक लाचार न करे कि आवाज़ की तलाश में कोई नया विपक्ष खड़ा कर दे.

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