नीले रंग का अंधेरा. सफ़ेद बादलों का घेरा भी. थककर सोता सा लगा. तभी बादलों का घेरा टूटकर अलग होता दिखा. धीरे-धीरे सरकता हुआ. दूसरी ओर से हवाई जहाज़ आता दिखा. सुदूर आसमान में जलती हुई छोटी सी बत्ती. बहुत देर बाद आया ही नहीं. जहां था वहीं रहा.वो तारा था.उसके कुछ दूर पर एक और तारा था. एक ज़्यादा चमक रहा था, दूसरा मद्धिम था. बहुत दिनों बाद उस तरफ़ देखना हो रहा था.
एक समय गोविन्दपुर के मकान की छत पर सो जाता था. याद नहीं कब तारे गिना करता था या नहीं. यही याद है कि दिल्ली के आसमान की तरफ़ कभी देखा भी नहीं था. उसने भी मेरी तरफ़ नहीं देखा.जिस शहर में लोग आसमान की ऊँचाई छूने के लिए आते हों, उस शहर के लोग आसमान नहीं देखते.आसमान में कुछ होता नहीं है.छत पर मच्छरदानी डाल कर सोने की आदत कुछ ही मोहल्लों में बची है.दिल्ली की छतों का एक ही मतलब रहा है. जहां काले रंग की पानी की टंकी होती थी. जिसमें पानी मोटर से चढ़ता था.फिर उतरता था. लोग छत पर टंकी देखने जाते हैं. जब टंकी लीक करती है. क्या कभी पहले भी इस रात का आसमान इस तरह देखना होता था? हाउसिंग सोसायटी के लोग अपनी बालकनी से आती-जाती कारें देखा करते हैं. छत की सीलिंग देखते हैं. जहां छत है वहाँ डिश एंटेना लगा है. लोग घरों में बंद है.
कई दिनों से चाँद देख रहा हूँ.तरह-तरह के चाँद. रात की बिन्दी है चाँद. बिन्दी और चाँद दोनों घटते-बढ़ते रहते हैं. मूड के हिसाब से. बिन्दी की तरह चाँद अपनी जगह पर टिकता नहीं. बादलों में छिपकर मिटता रहता है. बादलों से निकल कर खिलता रहता है. शाम का इंतज़ार तय है. जहां सीधे रात हुआ करती थी वहाँ पहले शाम होती है. अच्छा है न !
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