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This Article is From Apr 10, 2015

'मार्गरिटा विद अ स्ट्रा' के बहाने एक दर्शक की अपनी यात्रा का हिसाब

Ravish Kumar
  • Blogs,
  • Updated:
    अप्रैल 12, 2015 14:40 pm IST
    • Published On अप्रैल 10, 2015 11:22 am IST
    • Last Updated On अप्रैल 12, 2015 14:40 pm IST

1980 के दशक में शान फिल्म का अब्दुल औऱ वह गाना 'आते जाते हुए मैं सबपे नज़र रखता हूं, नाम अब्दुल है मेरा क्या, सबकी ख़बर रखता हूं'। अब्दुल हिन्दी सिनेमा का मेरा पहला हीरो बन गया जो मेरे जैसा नहीं था तो क्या हुआ मैं उसके जैसा बनना चाहता था। उसके पांव नहीं हैं, तो क्या हुआ वह हाथों पर चलता है, पांव वालों से भी तेज़ दौड़ता है, सबसे बड़ी बात खुश रहता है। काश अब्दुल मार दिए जाने से पहले लड़ जाता, लड़ पाता, यही एक बात चुभ गई। इतनी कि कई बार शान फिल्म के इस हिस्से को खुद से लिखने लगता था, बदलने लगता था। तब की बंबई का राज़दार अब्दुल मेरा पहला हीरो, ऐसा हीरो जिसे दुनिया ने मुझे विकलांग कहना सिखाया।

'कसमें वादे प्यार वफा सब... वादे हैं वादों का क्या...' इस गाने की बेचैनी याद है आपको। उपकार फिल्म के लिए दूरदर्शन का शुक्रिया। टीवी पर ही देखी थी यह फिल्म। इस गाने की खामोशी और प्राण साहब की कमज़ोरी, एक राष्ट्र का हताश क्षण कैसे एक व्यक्ति का बन जाता, प्राण साहब के पास रखी बैसाखी बता रही है। जैसे ही वे उठते हैं उनके साथ दर्शक भी उठता हुआ महसूस करने लगता है।

चित्रहार के दिन थे, जब दोस्ती का गाना देखेने को मिला। उसके बाद बहुत दिनों तक दोस्ती का ऑडियो कैसेट संभाल कर रखा रहा। 'राही मनवा दुख की चिन्ता क्यों सताती है दुख तो अपना साथी है...'

जैसे दुनिया ने मुझे विकलांग कहना सिखाया फिल्मों से मैं यह भी सीखने लगा कि दुख ही इनका साथी है। इनके हिस्से में दुख के अलावा कुछ नहीं है। एक किस्म की बेचारगी-लाचारी के साथ इन्हें इनके हाल पर ही छोड़ दिया जाना चाहिए।

'सत्ते पे सत्ता' के इस सीन को याद कीजिए। समंदर के किनारे सहेलियों को मस्ती करते देख आज भी हैरान होता हूं कि क्या ये सब उस दौर में मुमकिन रहा होगा। जैसे ही व्हीलचेयर पर रंजीता को मारने के लिए पत्थर का गोला ढहाया जाता है, पटना के हॉल में बैठे-बैठे मुझे लगा कि अमिताभ के बाकी छह भाइयों से पहले खुद जाकर व्हीलचेयर को पत्थर के रास्ते से हटा दूं। पहली बार लगा कि इन्हें इनकी हाल पर छोड़ने के बजाए इनके साथ खड़ा हो जाना चाहिए।

अब यह रंजीता के कारण हुआ या मेरी उस उम्र के... यह समझने का कोई मतलब नहीं है, मगर सिनेमा आपको गढ़ता है तो बदलता भी है।

हम दिल्ली आकर विकलांग की जगह नए-नए शब्दों और इन कमज़ोरियों को संभावनाओं के साथ देखने समझने लगे। स्पास्टिक सोसायटी पहली बार नाम सुना। शायद पत्रकार न बनते तो वही सोचते रह जाते कि दुख तो इनका साथी है। अब मैंने विकलांग बोलना छोड़ दिया है। शारीरिक चुनौतियों या विशेष रूप से सक्षम लोग कहने लगा। तब भी अदर्स यानी इनका उनका का फर्क नहीं गया।

इस बीच कई फिल्मों ने ज़हन पर असर डाला। सदमा में श्रीदेवी का अभिनय याद रहा। पटना के मोना सिनेमा में अंजली देखने का अनुभव उन बीमारियों के करीब तो नहीं ले गया, जिनके बारे में अभी जानना बाकी था। फिर भी अंजली का गाना आज भी गुनगुना लेता हूं। 'अंजली अंजली...प्यारी अंजली अंजली...'

बहुत दिनों के बाद अमिताभ बच्चन और अक्षय कुमार की फिल्म 'आंखें' देखी। इस फिल्म में परेश रावल ने नहीं देख पाने की क्षमता के बावजूद जिस तरह का अभिनय किया है, वह लाजवाब है। मगर हिन्दी फिल्में हमेशा ऐसे प्रतिभाशाली किरदारों को या तो अपराधियों का प्यादा बनाती रही हैं या शातिर अपराधी। फिर भी आंखे थ्रीलर थी तो सब माफ।

एक सवाल कभी फिल्म तो कभी अखबारों में छपी कहानियों के ज़रिये टकराता ही रहा कि क्या हम वाकई संवेदनशील हुए हैं। यह संवेदनशीलता सहानुभूति से उभरी है या जानकारी से। जब तक जानकारी नहीं होगी, हम अपनी संवेदनशीलता को व्यावहारिक नहीं बना सकते। समाज के लिए उपयोगी नहीं बना सकते। मैं यह सब बातें इसलिए कह रहा हूं ताकि खुद की जांच कर सकूं कि एक दर्शक के नाते सिनेमा के साथ हम कितने बेहतर हुए हैं। आप कितने बेहतर होते रहते हैं।

तभी तो आप संजय लीला भंसाली की ब्लैक को काफी पसंद करने लगते हैं। इस फिल्म से मेरी थोड़ी सी शिकायत दूर होती है। लाचारी की जगह रानी मुखर्जी के किरदार की चाहत को चार इंच जगह पाते देख खुश हो गया कि चलो हमने इनके हिसाब से देखना शुरू किया, लेकिन चुंबन के सीन में बच्चन साहब ने अपनी उम्र का लिहाज़ कर जिस तरह से झटका, वह मेरे दिमाग में इस तरह से खटका कि बदलना इतना आसान नहीं।

बच्चन साहब ने शायद यह याद दिलाया कि इनकी कोई चाहत नहीं होती है। चाहत मतलब किसी को प्यार करना, किसी के साथ प्यार किया जाना। हम इस विराट भावना को एक शब्द में समेट देते हैं 'सेक्स'। इस पर बात करने की हिम्मत नहीं होती तो सेक्स को संस्कृति के ख़िलाफ खड़ा कर देते हैं और खुद बंद अंधेरे कमरों में करवटें बदलने लगते हैं।

इस बीच एक और फिल्म याद आ रही है 'पा'। अमिताभ बच्चन की फिल्म में वह सवाल नहीं था जिनका सामना मैं एक दर्शक के रूप में करना चाहता था। फिर भी प्रोजेरिया नाम की गंभीर बीमारी से वास्ता तो पड़ ही गया। एक सुपर स्टार को इस बीमारी से शिकार किरदार में देख बहुत कुछ जानने-समझने का मौका भी मिला। इस पर बातें भी हुईं।

लेकिन अपने होश में मैंने सिनेमा के ज़रिये एक बड़ा बदलाव तब देखा, जब 'तारे ज़मीन पर' आई। खुद बाएं हाथ से लिखता था मगर परिवार में लोग कान पकड़ लेते थे कि दाएं हाथ से लिखो। बायां बुरा है। फितरत से बायां हूं, लेकिन सामाजिक ट्रेनिंग से दायां बना दिया गया। राइट हैंडर।

तारे ज़मीन पर के बाद बहुत से माता-पिता को डिसलेक्सिया के बारे में बात करते देखा। कई दिनों तक वे यह समझते रहे कि क्या वे वाकई अपने बच्चों के मन को समझते हैं। आमिर की फिल्म ने अंदर तक झकझोर दिया था।

गुज़ारिश नहीं देख सका। बर्फ़ी ज़रूर देखी। प्रियंका चोपड़ा और रणबीर कपूर। पर यहां बीमारी या किसी कमज़ोरी पर हीरो हीरोइन का लेवल ही हावी रहा। प्रियंका का अभिनय मुझे अच्छा लगा... लेकिन इस फिल्म में भी किरदार का मन पूरी तरह नहीं उभरा।

धीरे-धीरे मैं अब काफी कुछ जानने लगा। तरह-तरह की बीमारियां जो किसी को हमसे अलग बना देती हैं, उनके नाम जाने, उनकी चुनौतियों के बारे में पढ़ा-सुना, लेकिन तब भी वह सब नहीं जा सका जो जानना चाहिए। अखबारों में ऐसे किरदारों को हीरो की तरह ही छपा देखा। कोई पहाड़ चढ़ गया है, तो कोई पांव से ही चित्र बना देता है।

इन बीमारियों और कमज़ोरियों के बाद भी जीवन कैसे जीया जाता है, हम नहीं जान पाए। मैं कब से इंतज़ार कर रहा हूं कि हिन्दी सिनेमा में कोई इन कहानियों को सजावटी अलमीरे से निकाल कर ड्राइंग रूम के उस सोफे पर बिठा दे और हम इन बीमारियों के बारे में बात करते हुए, इनसे उबरने का सबर पालते हुए, इनके प्रति खुद को सामान्य बनाते हुए इनकी सहजता को समझ सकें। बहुत मुश्किल है। देखकर कुछ कहना और जीकर कुछ कहने में बहुत फर्क है।

क्या वह इंतज़ार 'मार्गिरिटा विद अ स्ट्रा' से पूरा होगा... शोनाली बोस की इस फिल्म की चर्चाएं सुन रहा हूं। पर इस फिल्म के बहाने उन माता-पिता में एक किस्म का उत्साह देख रहा हूं जो अपने बेटे बेटियों की चाहतों को समझने की भयावह चुनौती से जूझ रहे हैं। उनकी इस ख्वाहिश को पूरा करने के लिए आगे आ रहे हैं। मैं फिल्म देखने से पहले पहली बार एक सामाजिक व्यक्ति और दर्शक के रूप में इस चाहत को समझ रहा हूं। तरह-तरह की बीमारियों के कारण शारीरिक चुनौतियों का सामना करने वाले इन लोगों की ज़रूरतों को व्हील चेयर से आगे जाकर देख पा रहा हूं। मार्गरिटा विद अ स्ट्रा को देखने से पहले इनके माता पिता की आंखों में देख पा रहा हूं।

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