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This Article is From Jun 18, 2016

'उड़ता पंजाब' में दिखता है खोखला पंजाब

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जून 18, 2016 10:31 am IST
    • Published On जून 18, 2016 10:29 am IST
    • Last Updated On जून 18, 2016 10:31 am IST
पंजाब को सिर्फ नशे का नशा नहीं है। उसे रेंज रोवर, एस क्लास मर्सिडीज़, डीजे संगीत, डॉलर और टूटी फूटी अंग्रेज़ी के साथ हर उस चीज़ का नशा चढ़ गया है जिसका पंजाबियत से कोई वास्ता नहीं है। उड़ता पंजाब के हर सीन में पंजाब कम दिखता है। फ़िल्म पंजाब की ऐसी भाषा संस्कृति को पेश करती है जो हाईब्रिड भी नहीं है। मिश्रण की जगह आयातित है। आम बोलचाल में गालियाँ ऐसे स्वीकृत हैं जैसे सुरजीत पातर और पाश की कविता हो।

यहां तक कि शरीर की बनावट तक से पंजाबियत गायब है। भद्दे और बेमतलब गोदना से गुदे शरीर के ऊपर जो गबरू क्रू का टी शर्ट है वो पंजाब का नहीं है। शाहिद कपूर का शरीर पंजाब के युवाओं का प्रतीक शरीर है। शाहिद का पहनावा और देह एक त्रासदी की तरह पर्दे पर उतरता है। वही पहनावा और जूते जो पहले की फ़िल्मों में फ़ैशन बनकर आए होंगे। निर्देशक अभिषेक चौबे ने शाहिद के शरीर और नाम का खूब का इस्तमाल किया है। अच्छी फ़िल्म होने के बाद भी निर्देशक अभिषेक चौबे प्रचलित तरीके से फ़िल्म बनाने में माहिर लगते हैं। उनके पास अपनी कोई फ़िल्म भाषा नहीं है जैसे शाहिद के पास अपना कोई देह नहीं है। नायक का शरीर आयातित है। पंजाब के गबरू जवानों का शरीर नहीं है। वो शरीर ग़ायब है इसलिए नौजवान अब नाम और अल्बम नंबर में गबरू ढूंढ रहे हैं।

भाषा शरीर के अलावा पंजाब ने अपना पहनावा भी कब का फेंक दिया है। पंजाब का कई हिस्सा अमरीका के किसी शहर का बी-टाउन जैसा लगने लगा है। न्यूयॉर्क में शानदार और विशालकाय म्यूज़ियम भी है। नक़ल तो उसकी भी की जा सकती थी। उड़ता पंजाब में जिस पंजाब की शक्ल दिखाई गई है वही तो पंजाब हाईवे के किनारे और भीतर के गांवों में दिखता है। मॉल संस्कृति ने सार्वजनिक वातानुकूलित केंद्रों के अलावा क्या दिया है हमें सोचना चाहिए। अब भी कोई नहीं देखना चाहता कि खेतों और पार्कों को उजाड़ कर बनें बड़े बड़े मॉल का अधिकांश हिस्सा ख़ाली है। मॉल काला धन को पार्क करने का सांस्कृतिक ज़रिया है।

उड़ता पंजाब सिर्फ नशे की फ़िल्म नहीं है। उस पंजाबियत के मिट जाने की फ़िल्म है जिसे वहां के सियासी और मज़हबी बाबाओं के डेरे खा गए हैं। हम सबने वर्षों से देखा है कि कैसे पंजाब ने एक एक कर पंजाब को छोड़ना शुरू किया। पंजाबी म्यूज़िक वीडियो में अपनी मिट्टी की नोस्ताल्जिया कम है, अमरीका, कनाडा और लंदन से आयातित डॉलर संस्कृति की धमक ज़्यादा है। जाने की याद कम है वहां से कुछ लाने का दिखावा ज़्यादा है। मकानों की छतों पर हवाई जहाज़ और फुटबाल बन गए। एक पत्रकार के तौर पर हम सबने इसका जश्न मनाया है मगर एक समाजशास्त्री की नज़र से नहीं देख पाए कि पंजाब कैसे पंजाबियत को मिटा कर विचित्र प्रकार के स्मृति चिन्ह गढ़ रहा है जो आगे चलकर उन्हीं सपनों की मौत साबित होने वाले थे। वे सपने क्या थे? शाहिद कहता तो है कि गाने से हिट नहीं होता तो टैक्सी चला रहा होता। वेटर का काम कर रहा होता। हमारी अर्थनीति और राजनेता यही हमसे करवाना चाहते हैं। उनके पास रोज़गार देने के नाम पर ऐसे ही सपने बचे हैं जिसका एक अंग्रेजी नाम खूब प्रचलित है। स्किल ।

सबसे ख़तरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौट कर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना


यह पाश की एक मशहूर कविता है जो पंजाब ही नहीं पूरे देश पर फ़िट बैठती है। इस कविता को बहुत लोग नहीं पढ़ पाते हैं क्योंकि ये कविता उन्हें बदल देती है। इसलिए वे म्यूज़िक वीडियो की शरण में चले जाते हैं ताकि वे मुर्दा शांति से भर सके। पंजाब का पहनावा, खेत, गिद्धा, गीत और साहित्य गायब होता जा रहा है। पोपुलर कल्चर का जो नशा पहले घोला गया उसके बाद कोकेन और अफीम का ही नशा बचता है। संस्कृतियों की आवाजाही से मिश्रण अपरिहार्य है मगर सब कुछ मिट जाने की जगह संतुलन बना रहे तो सांस्कृतिक अवसाद की नौबत नहीं आती है। फ़िल्म की भाषा मौलिक है, इससे कौन इंकार कर सकता है। गालियों की मौलिकता बता रही है कि पंजाबी साहित्य के विपुल भंडार पर मॉल बन चुका है।

पुराना अनिवार्यत श्रेष्ठ नहीं होता। उसका कुछ हिस्सा मिट जाए तो अफ़सोस नहीं होना चाहिए लेकिन सारा हिस्सा मिट जाए तो दुख मनाना चाहिए। फिर वो पंजाब नहीं रहता। अस्सी के दशक से हमारे गांवों से लोग पंजाब जाते थे। मैंने ऐसे किस्से ख़ूब सुने हैं कि मालिक अफीम का नशा देकर खूब खेती कराता है। तरह तरह की बीमारी लेकर मज़दूर लौटा करते थे। गांव के लोग उनके कमज़ोर शरीर पर हंसा करते थे कि ये देखो गए थे पंजाब कमाने। हालत देखो इनकी। इस हंसी में सवर्ण और पिछड़े ज़मींदारों का अहंकार होता था। सस्ता मज़दूर किसे अच्छा नहीं लगता !

आलिया भट्ट ने अपना नाम नहीं बताया। गोवा के समुद्री तट से उसने जो नाम बताया न तो वो किसी बिहारन का है न किसी पंजाबन का। इशारा था कि अब तो ऐसे किरदार भारत में और दुनिया में कहीं भी हो सकते हैं। जगह और आदमी का नाम मत पूछो। उस चक्र को देखो जिसमें वो फंसा है। आलिया भट्ट ने बहुत अच्छी अदाकारी की है। जिस अभिनेत्री का इतना मज़ाक़ उड़ाया गया हो उसके बाद भी वो अपने अभिनय को संजो कर रख पाई हो उसकी तारीफ तो बनती है। आलिया ने 'इंटेलिजेंट' एक्टिंग की है!

शाहिद और करीना कपूर ख़ान ने भी अच्छी अदाकारी की है। उस पुलिस अफसर ने भी जिसका ज़मीर तो जागता है मगर ज़माने का ज़मीर सोया रह जाता है। अंत में वो अपनों को ही गंवा कर हार जाता है। टीवी पर नेता खंडन पुरुष बनकर अपनी महिमा मंडन कर रहा है। पंजाब की जवानी और बुढ़ापे में कुछ तो दम बचा होगा। कोई तो आलिया भट्ट की तरह मुंह में कपड़े ठूंसकर नशे की तलब से लड़ रहा होगा। आलिया के पास तो एक सपना है तो क्या पंजाब के पास कोई सपना ही नहीं बचा है? ऐसा कैसे हो सकता है।

आलिया का किरदार अलग से एक कहानी कह रहा है। बिहार से आई एक लड़की पंजाब के खेतों में काम करती है लेकिन वो पंजाब की भाषा बोली को पकड़ नहीं पाती। दरअसल पंजाब में जब पंजाब ही नहीं बचा है तो कोई बिहार से आकर किसमें घुले मिले। अस्सी के दशक में पंजाब गए कई मज़दूरों को पंजाबी बोलते सुनता था। उनमें से कइयों को पंजाब के गांवों में भी देखा है जो खेती करते करते पंजाबी संस्कृति में रच बस गए। पगड़ी बांधने लगे और खूब अच्छी पंजाबी बोलने लगे।

हम राजनीति को नहीं बदल पा रहे हैं। भारत के जवानों की त्रासदी है कि उसके ज्यादातर नेता साठ सत्तर के दशक के हैं। वे नौजवानों की नुमाइंदगी करने का ढोंग करते हैं। उनकी सोच युवाओं के राजनीतिक इस्तेमाल से ज्यादा कुछ नहीं है। पुराना जाएगा तो नया भी पुराने जैसा आएगा। इस आने जाने में पंजाब को सख्त सवाल करने होंगे। वो लोग जो पंजाब छोड़ कर चले गए हैं वे पंजाब न सही कम से कम बल्ली के उदास और खोखले चेहरे को तो देर तक देखते रह सकते हैं। बल्ली उस सूखता पंजाब का नौजवान है जिसके सपने उड़ान भी नहीं भर सकते। पूछें तो सही कि किसने पंजाब की ये हालत की है।

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