क्या आप जिस रैली में गए हैं वहां से लौटते वक्त यह भी जानना चाहेंगे कि भव्य पंडाल, मंच, हज़ारों कुर्सियों पर कितना ख़र्च आया और इसका पैसा कैसे जुटाया गया? जो पार्टियां दूसरों की कमज़ोरी बताने के लिए हफ़्तों आयोजन में लगाती हैं क्या उन देवदूत सरीखे अवतरित नेताओं को भाषण के अंत में नहीं बताना चाहिए ताकि आप तुलना तो कर सकें कि जब आप अपने घर के लिए शामियाने वग़ैरह लगाने जाते हैं तो कितना किराया देना पड़ता है और अमुक दल कितना बता रहा है। इससे आप जानेंगे कि ग़रीबी दूर करने के लिए जो रैली आयोजित हुई है उस पर लाखों खर्च हुए हैं या करोड़ों।
जनता किस बात पर जागरूकता का दंभ भरती है। क्या लोकतंत्र में उसकी भागीदारी वोट देने तक ही सीमित है? सरकार को बरक़रार रखना या बदल देने भर से उसकी लोकतांत्रिक ज़िम्मेदारी पूरी नहीं होती। आप जाकर देखिये रैलियों में ज़्यादातर कौन लोग बुलाकर बिठाए जाते हैं। ये वो लोग नहीं हैं, जो न्यूज़ चैनलों के सामने बैठकर मध्यम वर्ग होने का अभिनय करते हैं। इंडिया इंडिया करने वाला हमारा मध्यम वर्ग क्यों नहीं है किसी रैली में। क्यों ज़्यादातर लोग जुटाकर और उठाकर लाए जा रहे हैं।
राजनीतिक रैलियां एक ऑर्गेनिक आयोजन हैं। समाज और लोकतंत्र को जीवंत रखने के लिए रैलियां बहुत ज़रूरी हैं। मगर अब यह आयोजन बनावटी हो गया है। सबकुछ भाड़े पर हो रहा है। लोग भी भाड़े पर लाए जा रहे हैं। किसी भी दल की रैली में जाइए और नज़र दौड़ाइए कि हर रैली में कौन लोग आए हैं। ग़रीब लोगों को दो घंटे पहले से बिठाया जाता है। इसके कुछ घंटे पहले इन्हें सभा स्थल से कहीं दूर जमा किया जाता है। मैंने सभी दलों की रैलियों में देखा है। भीड़ आती नहीं है, लाई जाती है। बड़े नेता के आने से पहले ये लोग बुझाए बुझे से बैठे होते हैं।
एक सभा में मैंने देखा कि कुछ दूरी पर एक व्यक्ति खड़ा है जो नेताजी की बात पर ताली बजाकर तालियों की लहर पैदा करता है। पहले खुद ताली बजाता है फिर सामने बैठाए कुछ लोगों को उकसाता है कि बजाओ बजाओ तब जाकर कुछ सेकेंड के लिए गड़गड़ाहट पैदा हुई।
अब तो जहां रैली होती है, उसके आस-पास के ज़िलों से भी बसों और एसयूवी गाड़ियों में भरकर लोग और कार्यकर्ता लाए जाते हैं। बहुत कम प्रतिशत में स्थानीय लोग आते हैं। ज़रूर यह लोग मतदाता हैं और किराये पर लाए गए इन लोगों को भी नेता अपने पक्ष में वोट देने के लिए प्रभावित कर सकता है। मगर जब ये स्वाभाविक रूप से नहीं आए तो क्या आयोजन का मक़सद पूरा हुआ? अपार संसाधनों के दमपर यह भीड़ आ रही है। हर रैली में वही ग़रीब क्यों है? क्या वो इतना निर्दलीय और सर्वदलीय है कि हर नेता को सुनने जा रहा है। वो भी सोमवार, मंगलवार को दोपहर दो बजे की रैली के लिए काम छोड़कर।
आप किसी झुग्गी में जाकर लोगों से पूछिये। एक-एक आदमी या औरत यह कहते मिल जाएंगे कि कितनी रैलियों में गए और ज़रा कुरेद कर पूछेंगे तो पता चलेगा कि कितने पर गए। कुछ महीने पहले आधार कार्ड पर एक कार्यक्रम कर रहा था। कुछ लोगों से बात की गई कि आप आइए और अपनी बात रखिये। सभी तैयार भी हो गए। उन्हें आधार कार्ड, राशन कार्ड और विधवा पेंशन को लेकर ढेरों शिकायतें थीं। सबने आसानी से हां, कह दिया। जिस दिन शूटिंग थी उस दिन बहुत ही कम आए।
जब हमने उन दो चार लोगों से कहा कि आना चाहिए था। आप अपना अनुभव नहीं रखेंगे तो बात जमेगी नहीं। उनमें से कुछ लोगों ने हंसते हुए कहा कि आज फलाने नेता की बड़ी रैली है। सबको इतने इतने पैसे मिले हैं। हमें भी मिलते अगर हम जाते तो।
अब ऐसे कई आयोजक बिना कैमरे के टकराने लगे हैं। हमारे एक सहयोगी ने बताया कि हरियाणा में कोई है जो रैलियों के लिए गाड़ी भर भर कर लोग जमा करता है। आप युवा मांगिये, युवा लाकर देंगे, आप बुज़ुर्ग मांगिये, मिलेगा।
यूपी में चुनाव लड़ने का शौक़ पूरा करने गए एक पैराशूट नेता ने कहा कि उनसे कुछ लोग मिलने आए। कहा कि इतने पैसे दीजिए हम आपके लिए तीन सौ बाइक सवार युवाओं की रैली कर देंगे। आए दिन हम ऐसी ख़बरें पढ़ते भी रहते हैं, मगर अपनी अपनी राजनीतिक निष्ठाओं का लिहाज़ कर चुप हो जाते हैं। बेहतर होगा कि आप मिडिल क्लास या जो भी क्लास हैं इन रैलियों में जायें। कुछ तो जाते हैं मगर ज़्यादा से ज़्यादा जाएं।
इन धंधेबाज़ आयोजक किस्म के नेताओं से रैलियों को बचाना होगा क्योंकि रैलियां बहुत ज़रूरी हैं। रैलियों को नौटंकी और अनर्गल भाषणबाज़ी से बचाइए।
दरअसल, मतदाता का राजनीतिकरण के नाम पर दलीयकरण हो गया है। हरियाणा के एक गांव में रिटायर्ड टीचर ने कहा कि बहुत ज्यादा पक्षबंदी हो गई है। लोग 'रीजीड' हो गए हैं यानी वो अपने दल से बाहर निकलकर मुद्दों पर बहस नहीं करते। यही वजह है कि आम चर्चाओं में भी राजनीतिक बहस का स्तर गिरा है। बहस करते वक्त रिश्ते ख़राब हो जाते हैं और एक दूसरे को किसी का घोर समर्थक या घोर विरोधी बताकर बहस ख़त्म हो जाती है। यह अच्छा नहीं है।
रैलियों में भी भाषणों का स्तर रद्दी हो चला है। मुद्दा है न विचार। बस मुझे सत्ता दो। उनको मत दो वो सत्ता चाहते हैं। हम सेवा करेंगे। हम सत्ता नहीं चाहते। सेवा का नया नाम सत्ता है जो बिना कुर्सी के नहीं होती। सत्ता नहीं दोगे तो सेवा नहीं करेंगे। पहले भी नहीं कर रहे थे और नहीं दोगे तो भी नहीं करेंगे।
आपने सही में किसी को सत्ता में सेवा करते देखा है। दो चार अपवादों को छोड़कर। कोई राजनीति के अपराधीकरण से लेकर कॉरपोरेट होने पर नहीं बोल रहा और न लोग पूछ रहे हैं। उस नेता से कोई नहीं पूछ रहा कि भाई हमारी सेवा के लिए तुमको यही अपराधी उम्मीदवार मिले हैं। यही भ्रष्टाचारी मिले हैं। और आप हेलिकॉप्टर और महंगी गाड़ियों में वाक़ई हमारी सेवा करने आए हैं तो छोड़ जाइए एकाध गाड़ियां हम पब्लिक के लिए भी!
दरअसल नेता और जनता के एक हिस्से के बीच भी यह गठजोड़ हो गया है। जहां मतदान का स्वरूप बदलने के लिए पैसे का लेनदेन होता है। यह स्थिति नशे के चंगुल में फंसे समाज के समान है। वोट ख़रीदे और बेचे जा रहे हैं। कार्रवाई सिर्फ पैसे बांटने वाले नेता ही नहीं, लेने वाले के ख़िलाफ़ होनी चाहिए। चुनाव आयोग को मौक़े पर ही रैलियों के खर्चे का ऑडिट करना चाहिए। अगले दिन बताना चाहिए कि बाज़ार दर से इतना ख़र्च हुआ और इतना दावा किया गया।
रैलियां विशेष प्रबंधन का खेल हो गई हैं। इन्हें टीवी पर स्थानीय और राष्ट्रीय प्रसारण के लायक बनाया जाता है। इसे सीरियल के सेट की तरह बनाया जाने लगा है। रैली स्थल में ही बड़े-बड़े एलईडी स्क्रीन लगाकर हाइपर-रियलिटी रची जाती है ताकि नेता और भव्य और नायकनुमा लगे। यही प्रभाव टीवी के सामने घर बैठे दर्शकों के लिए भी पैदा किया जाता है ताकि आपको भी लगे कि आप भी उस भव्य भीड़ का हिस्सा हैं। अब तो नेता बोलते वक्त तालियों के लिए रुकते हैं, ताकि कैमरे इस कुछ सेकेंड में ताली की तस्वीरों का प्रसारण कर सकें।
यह अच्छा नहीं हो रहा है। नौटंकी की तरह रैलियां आयोजित हो रही हैं। अनाप शनाप नारों को गढ़ने और वादों का बंडल बनाने के लिए। बड़े बड़े नेता नामों से लेकर नारों की तुकबंदी कर रहे हैं। लोगों को ऐसे कृत्रिम प्रभावों से निकल कर असली सवाल पूछने होंगे। वो सवाल व्यवस्था में बदलाव से जुड़े होने चाहिए। व्यवस्था नहीं बदलेगी या बनेगी या बेहतर होगी तो कुछ नहीं होगा। नेता जी के जाने के बाद रैली का व्यवस्थापक अपनी कुर्सी और पंडाल लेकर चला जाएगा दूसरे नेता जी की रैली में लगाने।
This Article is From Oct 13, 2014
रवीश कुमार की कलम से : रद्दी होती रैलियां
Ravish Kumar, Rajeev Mishra
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Updated:नवंबर 20, 2014 12:45 pm IST
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Published On अक्टूबर 13, 2014 09:35 am IST
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Last Updated On नवंबर 20, 2014 12:45 pm IST
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