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This Article is From Jul 14, 2022

कौन हैं 'जुमलाजीवी', कौन हैं 'तानाशाह'...

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 15, 2022 09:20 am IST
    • Published On जुलाई 14, 2022 23:48 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 15, 2022 09:20 am IST

2021 के साल में भारत की लोकसभा, राज्य सभा, विधानसभाओं और विधान परिषदों और कॉमनवेल्थ देशों की संसद में जिन जिन शब्दों को कार्यवाही से हटाया गया है, उन शब्दों की सूची प्रकाशित हुई है. संसदीय कार्यवाही में शब्दों को हटाने का अधिकार स्पीकर का होता है. सवाल यहां अधिकार और नियम का नहीं है, विपक्ष की तरफ़ से बहस उन शब्दों को लेकर हो रही है जिन्हें पिछले साल असंसदीय मान कर हटाया गया।इस सूची को देखने से सभी शब्दों के मामले में नहीं पता चलता है कि किस सदर्भ में किसी वाक्य या शब्द को हटाया गया है. किसके भाषण से हटाया गया है? क्या एक बार जो शब्द असंसदीय सूची में आ जाता है, उसका दोबारा इस्तमाल नहीं होगा? लोक सभा के स्पीकर ओम बिड़ला ने कहा कि पिछले साल के संदर्भ अलग थे, उन संदर्भों में शब्दों को हटाया गया है इसका मतलब यह नहीं है कि उन पर बैन लग गया है. लेकिन विपक्ष के उठाए गए इन सवालों के साथ अच्छी बहस तब और हो सकती थी  जब हटाए गए शब्दों के संदर्भ हमारे सामने होते. देखने को मिलता कि हटाए गए जिन शब्दों को लेकर बहस हो रही है, उसे विपक्षी सांसदों या विधायकों ने किस संदर्भ में बोला है या सत्ता पक्ष ने भी बोला है. लेकिन पिछले वर्ष जिन शब्दों को हटाया गया है, उनकी तरफ मुड़कर देखना कहीं से भी बेमकसद नहीं हो सकता है. 

राज्य सभा और लोकसभा की कार्यवाही से तानाशाही, तानाशाह, डिक्टेटोरियल को हटा दिया गया. अब यह स्पष्ट नहीं है कि क्या विपक्ष ने सत्ता पक्ष के किसी को तानाशाह कह डाला, किसे तानाशाह कहा, किस मामले में तानाशाही का ज़िक्र हुआ, कई बार सरकार ही आरोप लगाती है कि विपक्ष की तानाशाही नहीं चलेगी, क्या इस पर बहस नहीं होनी चाहिए कि यह असंसदीय कैसे है? या स्पीकर का विशेषाधिकार इस बहस को रोकता है कि आप नहीं कर सकते हैं ? क्या यह देखना नहीं बनता है कि इस शब्द में ऐसा क्या था जिसे असंसदीय माना गया? भारत में हर प्रधानमंत्री को तानाशाह कहा जाता है, हर सरकार को जनता ही तानाशाही कह देती है तब फिर यह असंसदीय कैसे हुआ?  स्पीकर ओम बिड़ला के जवाब के बाद भी इन शब्दों को संसदीय कार्यवाही और बाहर की राजनीति में इस्तमाल को लेकर देखा ही जा सकता है कि इन्हें लेकर किस तरह की सतर्कता बरती जा रही है और किस तरह के ख़तरे पैदा हो रहे हैं . 


ये सारे चेहरे तानाशाहों के हैं, जिन्होंने न केवल लोकतंत्र को बर्बाद किया बल्कि लाखों की संख्या में अपनी ही जनता को मार दिया, गैंस चेंबर में डाल दिया तो किसी को साइबेरिया भेज कर. इनके चेहरों को याद करने के लिए एक ही शब्द है तानाशाह और तानाशाही. इन शब्दों के ज़रिए जनता बार बार खतरे की घंटी बजाती है कि लोकतंत्र फिसलकर तानाशाही की तरफ न चला जाए. क्या इन चेहरों, नामों और इनकी करतूत के लिए बने शब्दों के बिना आप लोकतंत्र के बड़े खतरों की बात कर सकते हैं, क्या आप तानाशाही और तानाशाह के बिना लोकतंत्र के ख़तरे की चेतावनी दे सकते हैं ? हमें याद रखना चाहिए कि विपक्ष भी तानाशाही का इस्तमाल करता है और सत्ता पक्ष भी. फिर किसकी आलोचना को रोकने के लिए तानाशाही और स्नूपगेट के इस्तेमाल को हटाया गया?  फिर बीजेपी ही आपातकाल पर चर्चा करते हुए सदन में तानाशाही का इस्तेमाल नहीं करेगी? जिन शब्दों को पिछले साल असंसदीय घोषित किया गया है, उनकी बात पब्लिक में हो सकती है, मगर संदर्भ सही होने चाहिए क्योंकि इनमें से ज्यादातर शब्द पब्लिक के संघर्ष से ही निकले हैं इसलिए बात हो सकती है कि पिछले साल उसके हिस्से के किन किन शब्दों को असंसदीय घोषित किया गया है जब सूची के कारण सवाल उठ ही रहे हैं तो. असंसदीय शब्दों की सूची से पता नहीं चलता कि जुमलाजीवी का इस्तेमाल किसने किया था, किसके बारे में किया था. 9 फरवरी 2021 को लोकसभा की कार्यवाही से जुमलाजीवी शब्द को असंसदीय मानकर हटाया जाता है. जबकि उससे ठीक एक दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राज्य सभा में आंदोलनजीवी का इस्तेमाल करते हैं. आंदोलनजीवी की प्रतिक्रिया में जुमलाजीवी आता है. आंदोलन जीवी असंसदीय नहीं है जबकि उसके इस्तमाल पर काफी प्रतिक्रिया हुई थी, जुमलाजीवी असंसदीय हो जाता है.


कई बार जब शब्द हटाए जाते हैं तब चर्चाएं होती है लेकिन कई बार नहीं होती है, इस सूची से हटाए गए शब्दों को समग्र रुप से देखने का मौका तो मिलता ही है.अगर असंसदीय घोषित होने वाले शब्दों  में ऐसे शब्द हैं, जिन्हें विपक्ष अपने औज़ार के रूप में करता है और उन्हीं को हटाया गया है तो इसे लेकर विपक्ष की चिन्ता बहुत हद तक वाजिब लगती है. विश्वासघात शब्द विपक्ष की राजनीति का केंद्रीय शब्द रहा है, इसके बगैर विपक्ष का नेता किसी सरकार को उसके वादे कैसे याद दिलाएगा? विश्वासघात किस संदर्भ में असंसदीय रहा होगा ये हम नहीं जानते लेकिन ये जानना बहुत ज़रूरी है. प्रेस में अमित शाह कह सकते हैं कि सभी के खाते में पंद्रह लाख देने का वादा जुमला था लेकिन इसी बात को लेकर कोई सांसद लोकसभा या राज्य सभा में सरकार को घेरे और कहे कि आपकी सरकार जुमलाजीवी सरकार है,तो जुमलाजीवी असंसदीय माना जाएगा. अमित शाह ने जुमला शब्द नहीं गढ़ा क्योंकि यह शब्द अरबी का है. अरबी के इस्तेमाल से हिन्दी समर्थक अमित शाह ने अपने ही नेता के वादे को जुमला कह दिया, मौजूदा राजनीति में जुमला को फिर से लाने का श्रेय अमित शाह से कोई नहीं ले सकता. फरवरी 2015 में अमित शाह ने कह दिया कि काला धन वापस आने और सबके खाते में पंद्रह लाख देने की बात जुमला थी. लेकिन तब तक जुमलाजीवी शब्द अस्तित्व में नहीं आया था, यह शब्द आता है प्रधानमंत्री के आंदोलनजीवी के जवाब में. क्या आपको पता था, क्या फिर से जानने में कोई बुराई है कि जुमलाजीवी को असंसदीय मानकर कार्यवाही से हटाया गया? इसके बहाने हमें जुमला के इस्तेमाल पर लौटने का मौक़ा नहीं मिला? यह कौन कह सकता है कि इस आधार पर  कभी इसे असंसदीय मानकर नहीं हटाया जाएगा, इसका फ़ैसला स्पीकर करेंगे और संदर्भों के आधार पर करेंगे, वही बता सकते हैं उस वक्त, दोनों शब्दों का अस्तित्व एक दूसरे के बिना नहीं है, एक सत्ता पक्ष से आया है और एक विपक्ष से. आप सिर्फ यही नहीं कह सकते कि शब्दों का मामला खास नहीं है.


यह खबर तो याद होगी. अप्रैल के महीने में कई अखबारों में उमर खालिद के मामले में सुनवाई की खबर छपी थी. दिल्ली हाई कोर्ट में जज ने सवाल उठा दिया था कि प्रधानमंत्री के लिए जुमला शब्द का इस्तेमाल उचित है. जागरण के अनुसार कोर्ट ने कहा कि जब सरकरा की आलोचना की बात आती है तो उसके लिए भी लक्ष्मण रेखा होनी चाहिए. दिल्ली हाई कोर्ट ने महाराष्ट्र के अमरावती में खालिद द्वारा दिए गए भाषण को सुनने के बाद अपनी टिप्पणी करते हुए कहा कि छात्र नेता और दिल्ली दंगों के आरोपित उमर खालिद ने अपने भाषण में प्रधानमंत्री के बारे में 'जुमला' शब्द इस्तेमाल किया. हाई कोर्ट ने उमर खालिद के व्यवहार और शब्दों को लेकर पूछा कि क्या यह उचित है.


तो जुमलाजीवी के बहाने हम कितने ही पहलुओं पर लौट सके. इन संदर्भों और तारों को जोड़िए,संसद के भीतर और बाहर की राजनीति और अदालत की कार्यवाहियों में शब्दों को लेकर जिस तरह के सवाल उठ रहे हैं उन सबके साथ असंसदीय शब्दों की सूची को देखिए तो आज का समय समझ में आएगा.  तब आप समझ पाएंगे कि जुमलाजीवी को असंसदीय बता कर हटाने के क्या क्या पहलू हो सकते हैं. 2021 में संसद के दोनों सदनों से लेकर विधानसभा, विधानपरिषदों और कॉमनवेल्थ देशों की संसद में जिन शब्दों को असंसदीय मानकर रिकार्ड से हटाया गया है, उन्हीं शब्दों की सूची आई है।ऐसा भी नहीं है कि सारे शब्द गैर ज़रूरी तरीके से हटाए गए हैं. ये बहुत अहम बात है. कुछ शब्दों को बहुत ही वाजिब तरीके से हटाया गया है इनके बारे में जनता को भी जागरुक किया जाना चाहिए. लेकिन इसकी छूट हटाए गए सभी शब्दों को समान रूप  नहीं मिल सकती है. उनकी व्याख्या अलग अलग होगी. 


अंग्रेजी के इन शब्दों को लेकर विपक्ष के नेताओं ने सवाल उठाए हैं कि इनके बिना फिर क्या बोलेंगे। जैसे betrayal, betrayed, corrupt,curse,coward, crocodile tears, shedding crocodile tears, eyewash, fake, fraud,GAG incompetent, ashamed,Beaten with shoes, murder, looting, posterboy, विपक्षी दलों के नेता पूछ रहे हैं कि इनमें ऐसा क्या है जिससे संसद की गरिमा प्रभावित होती है? यह जिज्ञासा तो पैदा होती ही है कि fraud, fake, ashamed, corrupt या coward को क्यों हटाया गया? इन्हें आगे नहीं हटाया जाएगा इसका संबंध भी स्पीकर के फ़ैसले और उस समय के सॉदर्भ से होगा. यह ज़रूर पूछ सकते हैं कि अगर murder असंदीय है तो क्या murder of democracy बोलने की इजाज़त होगी? देखा जाएगा जब इसका इस्तेमाल होगा. हिन्दी के शब्दों की सूची को लेकर भी सवाल खडे हो रहे हैं. काला दिन, काला बाज़ारी, नौटंकी, दलीला, धज्जियां उड़ाना ये सब हटाए गए हैं. राज्यसभा से विधायकों के लिए ख़रीद-फरोख्त के इस्तेमाल कर असंसदीय मानकर हटा दिया गया है. लोकसभा से गद्दार शब्द को असंसदीय शब्द हटा दिया गया है. चीरहरण, चोर कोयला चोर, गोरू चोर, जयचंद को हटा दिया गया. 

किस सांसद ने किसे क्या कहा पता नहीं लेकिन किस अहम और अहंकार में डूबे हैं, इस वाक्य को राज्य सभा की कार्यवाही से हटाया गया है. विपक्ष के नेताओं ने इस सूची को देखते ही सवाल उठाए हैं. तृणमूल कांग्रेस के सांसद डेरेक ओ ब्रायन ने कहा कि वे इन शब्दों का इस्तेमाल करेंगे और निलंबित किए जाने का खतरा उठाएंगे. क्या जुमलाजीवी से आप प्रधानमंत्री को अलग कर  सकते हैं?  विपक्ष ने जब भी यह आरोप लगाया है प्रधानमंत्री मोदी के ही संदर्भ में तो लगाया है.

हमारे सहयोगी अखिलेश शर्मा ने सूत्रों के हवाले से बताया है कि सरकार इस बहस को विपक्ष का दीवालियापन मानती है. विपक्ष ने बिना तथ्यों को जाने विवाद का रुप दिया है। हर साल ये सूची निकलती है. ऐसी सूची हर साल बनती है. कई सारे शब्द यूपीए सरकार के समय भी हटाए गए हैं. इसमें कामनवेल्थ देशों की सूची भी शामिल है।इस खंडन के लिए भी सूत्र आगे आए. पंजाब, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा में हटाए गए शब्दों का उदाहरण देकर नहीं कहा जा सकता है कि लोकसभा और राज्य सभा में जिन शब्दों को हटाया गया, उन पर सवाल नहीं हो सकता या बहस नहीं हो सकती है.  
अगर 9 मार्च 2021 को पंजाब विधानसभा में लॉलीपॉप शब्द को हटाया गया तब इस पर भी बहस होनी चाहिए कि  हम इस स्थिति में कैसे आ गए कि लॉलीपॉप से भी आहत होने लग गए।विधायक ने अगर बजट की घोषणा को लालीपाप बोला है तब यह पंजाब की कांग्रेस पर  भी सवाल है कि उसके भीतर शब्दों की लोकतांत्रिक समझ कैसी है? लेकिन लॉली पॉप तो लोकसभा की कार्यवाही से भी हटाया गया है, एक बार नहीं तीन तीन बार.

13 फरवरी, 10 अगस्त और 9 दिसबंर 2021 को लोकसभा से लॉलीपॉप हटाया गया है. तो क्या यह सवाल समाप्त हो जाता है कि कांग्रेस के दौर में भी हुआ, मोदी सरकार के दौर में भी हुआ? दोनों सरकारों के दौर में हुआ तो गलत को सही मान लिया? सरकार के सूत्रों के जवाब में कर्नाटक का उदाहरण क्यों नहीं था? जहां की विधान परिषद में चमचा और चमचागिरी शब्दों को असंसदीय मानकर हटाया गया है? कर्नाटक के मंत्री को irresponsible कहा गया तो इस शब्द को हटा दिया गया. क्या मंत्री गैर ज़िम्मेदार नहीं होते हैं? छत्तीसगढ़ की विधानसभा से अक्षम सरकार, अनर्गल और अंट शंट हटाया गया है. हत्या, सांप, शर्मनाक,उल्टा चोर कोतवाल को डांटे हटाया गया है. राजस्थान विधान सभा की कार्यवाही से विनाष पुरुष क्यों हटाया जाता है,इस पर बीजेपी को भी (sawaal) एतराज़ करना चाहिए। पूछना चाहिए कि कांव-कांव करना कैसे असंसदीय है.


इससे पता चलता है कि हमारी राजनीति में आरोपों और शब्दों के प्रति कितनी सहनशीलता बच गई है. संसद को विधानसभा के लिए आदर्श बनना चाहिए, लेकिन सत्ता पक्ष के लोग सूत्रों के हवाले से विधानसभाओं का उदाहरण दे रहे हैं.  असंसदीय मानकर हटाए गए सभी शब्दों को लिए आप एक पैमाना नहीं बना सकते. कुछ ऐसे शब्द भी हटाए गए हैं जिनमें जातिगत पूर्वाग्रह हैं, किसी पेशे को लेकर जातिगत और धार्मिक टिप्पणी है और शारीरिक रुप से कमज़ोर लोगों का मज़ाक उड़ाते हैं। इनकी प्रशंसा की जानी चाहिए कि सदन के पीठासीन अधिकारी इसके प्रति सजग हैं. 


जैसे लोकसभा से छोकरा शब्द का हटाना अनुचित नहीं है. अंधा बांटे रेवड़ी को छत्तीसगढ़ की विधानसभा से हटाया तो राजस्थान विधानसभा से अनपढ़ टाइप का हटा देना. भाषा से असंवेदनशील शब्दों की सफाई एक सतत प्रक्रिया है लेकिन इसके नाम से लोकतांत्रिक मूल्यों वाले शब्दों को ही साफ कर दिया तब तो न शब्द बचेंगे और न लोकतंत्र. इसलिए बहस होती रहनी चाहिए. अगर शब्द ही आपसे छीन गए तो फिर क्या बचेगा। हिमाचल प्रदेश की विधानसभा की कार्यवाही से गुंडागर्दी हटा दिया गया। यही नहीं मंत्री हमारे खिलाफ गुंडागर्दी करते हैं, क्या ये बाहुबली की सरकार है, गुंडो की सरकार है, इसे भी हटाया गया. इसे भी हटाया जाना बेहस का विषय नहीं हो सकता?  


जिस तरह से शब्दों और तस्वीरों के इस्तेमाल से पत्रकार गिरफ्तार हो रहे हैं, उन पर यहां से लेकर वहां तक FIR हो रही है ताकि जेल में ही रहे. इस संदर्भ में ये बहस बिल्कुल भी गैर वाजिब नहीं लगती है. आखिर एक राज्य के कितने ज़िले की पुलिस ज़ुबेर से पूछताछ करना चाहती है? उसके वकील ने सुप्रीम कोर्ट  में याचिका दायर की है कि यूपी में उसके खिलाफ 6 FIR हुई है, उसे रद्द किया जाए। (केतकी और ज़ुबैर का टू वे विंडो फोटो लगा देना) महाराष्ट्र में शरद पवार के खिलाफ केतकी चिताले ने लिखा तो करीब सवा महीने तक जेल में डाल दिया गया. केतकी के मामले में अगर पुलिस की मनमानी है तो इसलिए ज़ुबैर के मामले में होनी चाहिए, क्या केतकी चिताले से ही पूछा जाए कि इसके पहले जिन लोगों को बोलने भर के लिए पुलिस ने जेल में डाल दिया,क्या वे उनकी रिहाई के लिए मोर्चा लेकर गई थीं, क्या हम इन मामलों पर इस तरह बहस करेंगे कि केतकी पर कौन चुप रहा और ज़ुबैर पर कौन चुप रहा? क्या इस तरह से हर गलत को सही किया जाता रहेगा. (मोंटाज आउट) लोकतंत्र की हत्या से पहले शब्दों के ज़रिए विचारों को मारा जाता है फिर उन शब्दों को ही मारा जाने लगता है. जब आप सवाल उठाने वाले को गद्दार कहते हैं और जब आप सवाल उठाने वाले से उसके शब्द छीन लेते हैं कि आप जुमलाजीवी या तानाशाही का इस्तेमाल नहीं कर सकते. एंटी नेशनल कर सकते हैं क्योंकि उसका इस्तेमाल सत्ता पक्ष की तरफ से विपक्ष के लिए हुआ है. इस विषय से थोड़ा सा अलग हटते हुए जार्ज आरवेल के उपन्यास 1984 का यहां ज़िक्र ज़रूरी है. 1949 की रचना है, इसका नायक साइम विंसेंट स्मिथ भी पुराने शब्दों को मिटाकर नए शब्दों को जमा करता है जो उसके देश के नायक बिग बॉस इस्तेमाल करते हैं.  


इस उपन्यास में एक काल्पनिक देश है, ओशिनिया, इसका तानाशाह चाहता है कि एक नई भाषा गढ़ी जाए, इसका नाम न्यूस्पीक है. ओशिनिया में चुप रहने वालों की भी खैर नहीं होती है, उनके चेहरे के हाव-भाव में अगर बिग बॉस के प्रति निष्ठा या आदर कमी दिख जाती है तो भी अपराध माना जाता है, जिसे फेस क्राइम कहते हैं. बिग बॉस के शब्दों का संकलन कर रहा विंसेट बताता है कि भाषा में हज़ारों ऐसी संज्ञाएं,क्रियाएं और विशेषण होते हैं जिन्हें आसानी से समाप्त किया जा सकता है. हमें किसी शब्द का विलोम ही क्यों चाहिए। मिसाल के तौर पर गुड के लिए बैड की क्या ज़रूरत है? बिग बॉस चाहता है कि नागरिक के पास कम से कम भाषा रहे, कम से कम शब्द उतने ही शब्द रहें जिससे वह केवल सरकार के आदेश को समझ सके.  अगर भाषा खत्म हो जाती है तो उससे समाज का कोई नुकसान नहीं है.


इस उपन्यास का नायक ओशिनिया के तानाशाह की हर चाल को समझ रहा है. एक जगह कहता है कि क्या आपको दिखाई नहीं देता कि न्यू-स्पीक की भाषा आपके विचारों को उड़ान भरने से रोकती है, उसके पंख काट देती है. एक दिन कुछ कहने के लिए शब्द ही नहीं बचेंगे, तो आप तानाशाह के अपराधों को कहेंगे कैसे, शब्द तो रहेंगे नहीं. इसलिए कहता हूं कि 1984 पढ़ा कीजिए, अब तो यह किताब हिन्दी में भी आ गई है, अभिषेक श्रीवास्तव ने अनुवाद किया है, राजकमल प्रकाशन ने छापा है. इस उपन्यास का एक एक प्रसंग भारत सहित कई देशों में अक्सर दिख जाता है. अब इसमें आरवेल लिखते है कि ओशिनिया की मीडिया में हर दिनएक कार्यक्रम चलता है, जिसका नाम है टू मिनट हेट. क्या ठीक ऐसा ही गोदी मीडिया की बहसों में नहीं होता? दो मिनट की जगह आधे आधे घंटे के डिबेट में नफरत नहीं फैलाए जाते हैं? समाचार एजेंसी  ANI ने लोकसभा के उच्च पदस्थ सूत्रों के हवाले से इस प्रकरण पर विस्तार से छापा है, सूत्र ने जितनी लंबी सफाई दी है,उससे तो बेहतर प्रेस कांफ्रेंस ही हो जाती. 


विद्वान सूत्र ने बताया है कि 2011 में बेईमान शब्द हटाया गया था,2012 में भी SHAME, cheating, चोरी और लूट हटाा गया है। सूत्र ने यह भी कहा है कि कोई भी शब्द जो संसदीय परंपरा के विपरीत हो और सदन की गरिमा को कम करता हो, उसे हटाने का अधिकार स्पीकर को है। अगर सरकार चाहती है कि यूपीए के समय हटाए गए शब्दों पर बहस हो तो फिर उसे सूत्रों की जगह सामने से आकर इस बहस को सेट करना चाहिए. यह होता है कि कई चीज़ों पर उस समय ध्यान नहीं गया लेकिन अब अगर गया तो इस पर समग्र चर्चा हो सकती है, यहां कोई नहीं कह रहा कि नियमों के खिलाफ जाकर हुआ या स्पीकर के अधिकार में नहीं आता, सवाल है कि जिन शब्दों को असंसदीय माना गया है उनमें से कई असंसदीय माने जा सकते हैं? यह सवाल इसलिए ज्यादा महत्वपूर्ण है कि आज संसद के बाहर भी शब्दों के इस्तेमाल पर खतरा है, तरह तरह के मुकदमे हो जाते हैं. दिल्ली के पटियाला कोर्ट के एडिशनल सेशन जज ने आज पूछा कि ज़ुबैर के खिलाफ जिस व्यक्ति ने ट्विट किया था @hanumanbhakt के हैंडल से, वह कौन है, क्या उसका बयान दर्ज हुआ है, कोर्ट ने कहा कि आपने अभी तक उसका बयान भी दर्ज नहीं किया है. पुलिस ने जवाब दिया कि जब तक वह सामने नहीं आता गुमनाम ही है. हमने संपर्क करने का प्रयास किया था. जिस ट्विटर हैंडल की शिकायत पर ज़ुबैर गिरफ्तार है, दिल्ली के अलावा यूपी की छह छह ज़िलों में मामला दर्ज है, उसका कोई पता नहीं, उसे पता लगाने के लिए कई ज़िलों की पुलिस क्यों नहीं लगती है?यही नहीं कोर्ट में रेज़र पे का बयान भी पेश किया गया कि आल्ट न्यूज़ को उनके प्लेटफार्म से विदेशी चंदा नहीं मिला है। ज़ुबैर के मामले की सुनवाई केवल दिल्ली में नहीं हुई, लखीमपुर खीरी और हाथरस कोर्ट में भी सुनवाई हुई. 


हवा बदल रही है…तो नदी भी अपनी धारा बदल रही है. नर्मदा नदीकी धारा पश्चिम से पलट कर पूरब की तरफ बहने लगी है। युगों युगों से नर्मदा की अविरल धारा पूरब से पश्चिम की ओर बहा करती थी. सरदार सरोवर बांध स्थल से मध्य प्रदेश के धार और बड़वानी जैसे जिलों में ऐसा लग रहा है कि नर्मदा नदी की दिशा विपरीत हो गई है. स्थानीय लोग कह रहे हैं कि सरदार सरोवर बांध के गुजरात के जल संग्रहण इलाके में भारी वर्षा से ऐसा हो रहा है हालांकि विज्ञान कुछ और कह रहा है. मथुरा में एक दलित महिला के साथ सामूहिक बलात्कार उसकी टांग तोड़ दी गई जिससे उसका एक पैर काटना पड़ा। इस मामले में 4 लोगों के खिलाफ मामला दर्ज हुआ जिसमें दो लोगों की गिरफ्तारी हुई है. इस रिपोर्ट का भी संबंध समाज के द्वारा इस्तेमाल किए जा रहे शब्दों और विचारों से है. इसलिए जब भी शब्दों और विचारों पर बहस करने का मौका मिले उसमें जुट जाइये. डॉलर के आगे रुपया कमज़ोर होता होता अस्सी के करीब पहुंचने वाला है. आज एक डॉलर की कीमत 79 रुपये 90 पैसे हो गई, चिन्ता मत कीजिए, अर्थव्यवस्था और उसके असर पर बहस की नौबत नहीं आएगी, नए नए टापिक आपका इंतज़ार कर रहे हैं. ब्रेक ले लीजिए.

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