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This Article is From May 10, 2015

संस्कारों और परिवारों की सुपर मार्केट - हमारी मदर्स

Ravish Kumar
  • Blogs,
  • Updated:
    मई 10, 2015 11:28 am IST
    • Published On मई 10, 2015 11:26 am IST
    • Last Updated On मई 10, 2015 11:28 am IST
फादर्स और मदर्स डे पर सोशल मीडिया में अपने माता-पिता के बारे में लोग जिस तरह से बयां कर रहे हैं उन सबको मिला दें तो परिवार की ऐसी तस्वीर उभरती है जहां संकट समस्या और अंतर्विरोध नाम का कोई तत्व मिलेगा ही नहीं। जिस तरह से इन दिवसों पर माता और पिता की तमाम ख़ूबियों को उनके अंतर्विरोधों से काट कर पेश किया जाता है उससे तो यही लगता है कि हमारे परिवार वाकई एक स्वर्ग के समान हैं जहां कम से कम दो शख्स देवतुल्य हैं। फेसबुक खोलिये तो हर तस्वीर में किसी न किसी की मां नज़र आ रही है। इन माओं के कई प्रकार हैं मगर तमाम विवरणों को मिला दीजिए तो सबकी मां एक जैसी है। क्या दो माताओं में कोई अंतर नहीं होता होगा।

ऐसा कैसे हो सकता है कि सबकी मां एक जैसी हो जाए। क्या मां होना कोई एक ब्रांड होना है। क्या वो बिल्कुल सिस्टम नहीं है जिस सिस्टम को मिलकर हमारा समाज क्रूर बनाता है। क्या हमेशा मां सिस्टम से बचने का एक रास्ता है जहां वो पिता की सख़्तियों को झेलकर अपने बच्चे को चंद पलों के लिए आज़ाद लम्हें थमा देती है। क्या मां परिवार के नाम के सिस्टम को बनाने में भागीदार नहीं है जिसके भीतर की समस्याओं को देखते हुए कई बार परिवारों का शोषण कारखानों से भी भयानक लगता है। क्या मां हमेशा एक मां के अनुसार बेटे या बेटी को बना रही होती है। क्या वो पिता या पितृसमाज के अनुसार बेटे या बेटी को बड़ा नहीं करती होगी। कोई मां अपने परिवेश से इतना स्वतंत्र कैसे हो सकती है।

कई बार लगता है कि ये सब दिवस इसलिए आयोजित किये जाते हैं ताकि अंतर्विरोधों को दरकिनार कर कम से कम एक दिन के लिए सही हमें उसी में खूबियां देखने या जीते रहने की आदत पड़ जाए जैसे एक मां को आदत पड़ जाती है। वो अपने परिवार की ज़्यादतियों को सहते हुए अपने बच्चों के लिए स्वर्ग की देवी बन जाती है और उन्हें गढ़ने लगती है। फिर वही बच्चे बड़े होकर जब अपना परिवार बसाते हैं तो वहां वो मां या मां जैसी भूमिका कम निभाते हैं। अपने पिता की तरह बन जाते हैं और उनकी पत्नी फिर से उनकी मां की तरह एक अलग सफ़र तय करने लगती है। वही सफ़र जो बेटे या बेटी की मां ने तय की होती है।

मां और पिता से हम सबका एक ख़ास रिश्ता रहा है। उस व्यक्तिगत रिश्ते से बड़ा कोई रिश्ता नहीं है लेकिन वहां सब कुछ बड़ा ही हो यह भी ज़रूरी नहीं है। आप मदर्स, फादर्स, सिस्टर और ब्रदर्स डे के स्टेटस को मिलाकर देखें तो यही नतीजा निकलेगा कि हमारे परिवार में कोई बुरा नहीं है। अच्छा होने के मामले में सब एक से बढ़कर एक हैं। इस लिहाज़ से बुरा कौन है। जब लाखों की संख्या में परिवार इतने अच्छे हैं तो समाज और सरकार भी बेहतर होना चाहिए। फिर तो समाज में किसी प्रकार की कोई बुराई नहीं होनी चाहिए।

कई लोग इन संकटों के संदर्भ में मां को याद कर रहे हैं लेकिन उसमें भी ईमानदारी नहीं है। ऐसा लगता है कि वे मदर्स डे के दिन याद करने के लिए वो सब कुछ होते देखते रहे, सहते रहे जो उनकी मां के साथ हो रहा था। इन स्टेटस में वो सब कुछ नहीं दिखता जो उनकी मां किसी और के साथ कर रही होती है। मदर्स डे के दिन हमें इस तरह से याद करना चाहिए कि कैसे ज्यादातर परिवारों में मां अदर्स की तरह हमें बड़ा करती रही। इसलिए मदर्स डे का नाम अदर्स डे कर देना चाहिए। एक तर्क यह हो सकता है कि आए दिन तो हम इन संकटों के बारे में याद करते ही हैं कम से कम एक दिन तो अच्छा अच्छा बोल लें। ज़रूर बोलना चाहिए। हम सबका जीवन एक अच्छी मां और एक अच्छे पिता के बिना अधूरा है मगर बहुत लोग इसके बाद भी बहुत अच्छे हुए जबकि उनके मां या पिता अच्छे नहीं थे।

इसलिए हे पुत्रो और पुत्रियों आज अपनी माताओं को ख़ूब याद करो। अपने मां होने को भी याद करो लेकिन याद रखो कि यह एक प्रायोजित उत्सव है जिसमें हम सब कुछ पलों के लिए प्रवेश कर रहे हैं। मां होने का मतलब आम औरत के होने के वजूद से अलग होना नहीं है। मां होते हुए स्त्रियों के जो संकट हैं, बस से लेकर घर तक में वो कम नहीं हो जाते हैं। वो वहीं रहते हैं। मां अगर संस्कारों की सप्लायर है तब तो समाज में इसकी कोई कमी ही नहीं होनी चाहिए। हम घर से लेकर सरकार तक में किसी स्वर्ण युग या स्वर्ग के अवतरित होने का एलान क्यों नहीं कर देते हैं।

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