यह ख़बर 10 दिसंबर, 2014 को प्रकाशित हुई थी

रवीश कुमार की कलम से : नोबल पुरस्कार इतना शानदार कभी होगा?

नमस्कार मैं रवीश कुमार।
आज नॉर्वे की राजधानी ओस्लो में तालियों की गड़गड़ाहट ने कुछ ऐसा कहा कि मैंने आखिरी वक्त में प्राइम टाइम का अपना विषय बदल दिया। इन तालियों की ऊर्जा हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दोनों मुल्कों को छू रही थीं। तरोताज़ा कर रही थीं। ऐसे में आगरा में हिन्दू बनाम मुसलमान के झगड़े पर होने वाली बहसें अपने आप हाशिये पर चली गईं। इन सब के होते हुए भी इन तमाम बंदिशों के होते हुए भी आज एक तीसरे मुल्क में भारत और पाकित्सान कुछ ऐसा साझा कर रहे थे जिस पर इन खित्ते के लाखों लोगों का सीना चौड़ा हुआ होगा। हमारे मुल्क में ऐसे कई सियासी मसले हैं जो अक्सर एक दूसरे के प्रति भरोसे को कमज़ोर कर देते हैं लेकिन ये एक लम्हा है जो आपको ले चलता है, उस भरोसे की तरफ जिसे आप और हम सीमा के भीतर और सीमा के पार भी बना सकते हैं। इससे पहले एशिया के मुल्कों में नोबल पुरस्कार इतना कभी शानदार और यादगार नहीं हुआ होगा। हिन्दुस्तान और पाकिस्तान अपने मकसद में एक हो रहे थे इसलिए आगरा से लेकर रायपुर तक धर्म के नाम पर बांटने वालों की राजनीति पर बहस करने का आज मौका नहीं था।

मेरे लिए तो बस इसी से ये मौका यादगार बन गया जब खादी के सफेद कुर्ते में कैलाश सत्यार्थी मंच पर नोबल पुरस्कार लेने के लिए उठे। हालांकि उससे पहले ही माहौल हिन्दुस्तानी हो गया था, लेकिन सत्यार्थी जी के लिबास की इस पसंद को मैं याद रखूंगा। उनका संबोधन भी दुनिया भर के प्यारे बच्चों से शुरू हुआ। हम वैसे ही अपने नेताओं के यहां वहां हिन्दी बोलने से भावुक होते रहते हैं मगर यहां कमाल हिन्दी का नहीं उस मकसद था जिसे किसी भाषा से नहीं बल्कि लंबे संघर्ष यात्रा के दौर में हासिल किया गया था। कैलाश सत्यार्थी ने अपने इस सम्मान का श्रेय आंदोलन से जुड़े कालू कुमार धूमदास और आदर्श किशोर और पाकिस्तान के इकबाल मसीह को दिया।

लाहौर में पैदा हुआ था इकबाल मसीह। चार साल की उम्र में परिवारवालों ने इकबाल को बेच दिया था। इसे शिकंजे से बांध कर रखा जाता था ताकि भाग न सके। दस साल की उम्र में इकबाल वहां से भागा और एक संस्था में शामिल हो गया जो बाल मजदूरी के खिलाफ काम करती थी। इकबाल ने पाकिस्तान के तीन हज़ार बंधुआ बच्चों को मुक्ति दिलाई। 12 साल की उम्र में इकबाल को गोली मार दी गई। सत्यार्थी जी ने बताया कि वे बुद्ध की धरती से आए हैं गुरुनानक की धरती से आए हैं महात्मा गांधी की घरती से आए हैं।

मैं यहां चुप्पी की आवाज़ का प्रतिनिधि बनकर आया हूं। कैलाश सत्यार्थी की इस बात पर हाल में तालियां खनक गईं। दुनिया के कई देशों में उनकी बात आज तमाम तरह की धार्मिक वहशीपन आर्थिक नाइंसाफियों के खिलाफ एक तर्कशील आवाज़ की तरह गुंजने लगी। उन्होंने कहा कि मैं यहां दुनियाभर के बच्चों के सपनों और आवाज़ को साझा करने आया हूं। भाषण अंग्रेजी में है, लेकिन सुनिएगा तो भाषा नहीं जानते हुए भी आप भाव से बहुत कुछ समझ जाएंगे। नोबेल का शांति पुरस्कार मलाला और सत्यार्थी को संयुक्त रूप से दिया गया है।

i represent here the sound of silence…….to free to dream

इस बीच सत्यार्थी जी के भाषण का एक पन्ना भी गुम हो गया लेकिन उन्होंने अच्छे से संभाल लिया। हाल में तालियों के साथ साथ हंसी भी बिखर गई। काफी उदार लोग वहां मौजूद थे। खैर भाषणा का पन्ना भी मिला और पूरा भी हुआ।

कैलाश सत्यार्थी ने इस मौके को दुनियाभर में विचार करने के अवसर में बदल दिया। वो धर्मों का आह्वान कर रहे थे। कह रहे थे कि मैं नहीं मान सकता हूं कि मंदिर मस्जिद गुरुद्वारों में यह क्षमता नहीं है कि वे बच्चों के आंसू पोछ सकें। मैं यह भी मानने के लिए तैयार नहीं हूं कि दुनिया इतनी गरीब है कि वो बच्चों को क्लास रूम तक नहीं ला सकती है। पूरी दुनिया संविधान संस्थाओं सबको झकझोरने लगे कि हम बच्चों के प्रति संवेदनशील हो जाएं।

चैनल कोई भी हो भले ही वो एनडीटीवी इंडिया न हो लेकिन इस समारोह को आप अपने बच्चों को ज़रूर दिखाइएगा। खुद भी देखिएगा कि कैसे ऐसे मौकों पर हमारे भीतर की असहिष्णुता मुंह छिपाने लगती है। सत्यार्थी ने सही ही कहा कि आज मानवता के दरवाज़े पर सबसे बड़ा संकट है असहिष्णुता। वही जो आप और हममें से कई हिन्दू मुसलमान के नाम पर नफरत फैलाते हैं और इस नफरत को भी राष्ट्रवादी बताने लगते हैं। सत्यार्थी ने इसके प्रति भी आपको चेताया है। इससे आज़ाद न हुए तो कोई बचपन आज़ाद नहीं हो सकता।

अपने भाषण के इस हिस्से में सत्यार्थी ने कहा कि मलाला जैसे बच्चे हर जगह खड़े हो रहे हैं। वो हिंसा की जगह शांति चुन रहे हैं वो अतिवाद की जगह सहिष्णुता सीख रहे हैं और डर की जगह साहस। सत्यार्थी ने कहा कि आज हम संपर्क के तमाम साधनों से जुड़ें हैं मगर करुणा नहीं है। किसी को समझने की सहनशीलता नहीं है। जब तक करुणा नहीं होगी हम कुछ भी हासिल नहीं कर सकेंगे।

हम कर सकते हैं। हम अगर अपने पूर्वाग्रहों से आज़ाद होकर करुणा को गले लगा लें तो यह सब कर सकते हैं। आज ऐसा सोचने वाले कम नहीं है। यही उनका भरोसा था और यही उनके भाषण का सार।

पूरे समारोह पर भारत पाकिस्तान की सांस्कृतिक तबीयत का असर रहा। समारोह से पहले गायन हुआ तो कैलाश सत्यार्थी का भाषण खत्म होते हुए पश्तून गायक को भी मौका मिला अपनी छंटा बिखेरने का। आप सुनिये। हर बात समझने के लिए नहीं होती है मलाला पश्तून है इसलिए उसकी शान में पश्तो गायब सरदार अली टक्कर को बुलाया गया। टक्कर क्रांतिकारी गायक ग़नी ख़ान के गीत गाने के कारण मशहूर हैं। पश्तों में इस गीत को सुनेंगे तो आप याद करने लगेंगे कि हिन्दी गानों में ऐसा तो हम सुन ही चुके हैं।

अब बारी थी मलाला के आने की। सत्यार्थी और मलाला के बीच पिता पुत्री का संबंध बन गया। सत्यार्थी उसे बेटी मलाला बुलाते रहे। मलाला ने कहा कि उसे पश्तून होने का गर्व है। पहली पाकिस्तानी होने का भी गर्व है और मैं चाहती हूं कि हर जगह शांति कायम हो। मलाला ने कहा कि हम और कैलाश सत्यार्थी एक साथ खड़े हो सकते हैं। और दुनिया को दिखा सकते हैं कि भारत और पाकिस्तान बच्चों के अधिकारों के लिए एकजुट हो सकते हैं और शांति कायम कर सकते हैं। यह भरोसा तो कोई बच्चा ही ज़ाहिर कर सकता है। सयाने तो सियासत को ही नसीब मान बैठे हैं।

मलाल से मलाला बना है। मलाला का मतलब उदास लड़की। लेकिन उदासी नाम वाली इस लड़की ने अरबों लोगों को गुदगुदा दिया। 17 साल की उम्र में इसके बोलने का लहज़ा भी कमाल का है। कई बार आवाज़ ऊंची कर ऐसी तासीर पैदा कर रही थी जैसे सोये हुओं को जगा रही हो।

मलाला पाकिस्तान ने उनक इलाकों के हालात भी सामने ला रही थी जहां के स्कूलों को आतंकवाद ने लील लिया। वो उसी पाकिस्तान की है जिसकी ज़मीन पर पैदा हुआ आतंकवाद सीमा के दोनों तरफ लोगों को मार रहा है और भड़का रहा है। लेकिन क्या यह कम बड़ी बात नहीं कि बंदूक के खिलाफ़ एक बच्ची खड़ी हो गई है। उसी पाकिस्तान में, लेकिन सिर्फ अपने लिए नहीं। मलाला ने खुद को स्वात से लेकर नाइजीरिया, सीरिया, जोर्डन की लड़कियों से जोड़ लिया जो आतंकवाद की शिकार हो रही हैं।

मलाला अपने भाषण में हिंसा के तमाम दौर को याद कर रही थी। उसने कहा कि यह साल प्रथम विश्व युद्द के सौ साल हो जाने का भी। लेकिन हमने अब तक सबक नहीं सीखा है। अभी भी दुनिया के कई हिस्सों में युद्ध जैसे हालात हैं। इराक, ग़ाज़ा, सीरिया, अफगानिस्तान और पाकिस्तान भी। अफ्रीका में कई बच्चे गरीबी के कारण स्कूल नहीं जा सकते। 17 साल की एक लड़की अपनी नहीं दुनिया की आवाज़ बन रही थी। मलाल ग्लोबल नेता की तरह बात कर रही थी। उसने कहा कि भारत और पाकिस्तान में सामाजिक बंदिशों के कारण कई बच्चे स्कूलों से वंचित किए जाते रहे हैं।

मलाला और कैलाश सत्यार्थी का भाषण इतना शानदार था तो अगर ये भारत के चुनावों में घूम रहे होते तो जनता इनके पीछे हो लेती। वैसे दोनों के भाषण में वैसे किसी नेता का ज़िक्र नहीं हुआ जिनके नाम पर जिनकी किताबें पढ़कर दोनों मुल्कों में कुछ लोग धार्मिक उन्माद फैलाते हैं। धर्म से राष्ट्र की व्याख्या करते हैं और जिसका मतलब सिर्फ और सिर्फ सामाजिक खाई को गहरा करना होता है। दोनों ने गांधी का नाम लिया मार्टिन लूथर किंग, मंडेला, मदर टेरेसा का नाम लिया। रेलवे स्टेशनों से आप भले ही हिटलर की आत्मकथा खरीद कर चोरी छिपे पढ़ लेते होंगे मगर ऐसे लोगों का ज़िक्र सभ्य लोगों की महफिल में कहां होता है। ये तो आप जानते ही हैं। फिलहाल ये सुनिये वायलीन पर एलिना को, इनकी पैदाइश रूस की है, लेकिन नागरिकता है जर्मनी की।

पहली बार है जब भारत और पाकिस्तान एक मंच पर सम्मानित महसूस कर रहे हैं। वर्ना एक के सम्मान से दूसरे का दिल जलता रहा है। समारोह को किसी सीरियल के सेट की तरह भव्य बनाया गया था। कैलाश सत्यार्थी के सम्मान में राहत फतेह अली ख़ान ने गाया और अमज़द अली ख़ान और उनके बेटे ने भी प्रस्तुति की। सुनिएगा। सिर्फ कव्वाली तक ही नहीं उसके बाद भी। कहां प्राइम टाइम में सरोद वादन होता है, कैलाश सत्यार्थी और मलाला आप दोनों का शुक्रिया, आपकी वजह से यह भी हो गया, लेकिन अगर सरोद वादन की टीआरपी आ गई तब रेटिंग रणबांकुरों का क्या होगा। मज़हब और मुल्क की दीवारों को बेमानी हो जाने की कविता लिखते ऐसे पलों का लुत्फ उठाइए। हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के लिए आज का दिन मुबारक है। जो भी जहां से इस कार्यक्रम को देख रहा है, उन सबको इन दोनों की तरफ से बधाई और आप सबकी तरफ से इन दोनों को बधाई।

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कैलाश सत्यार्थी ने समारोह के बाद तिरंगा भी लहरा दिया। अब ऐसे मौकों पर हम भावुक नहीं होंगे तो कब होंगे, लेकिन इस भावुकता में इनकी बातों को याद रखिएगा।