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This Article is From Oct 11, 2014

रवीश कुमार की कलम से : महानायक के दौर में लोकनायक के सवाल

Ravish Kumar, Rajeev Mishra
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  • Updated:
    नवंबर 20, 2014 12:46 pm IST
    • Published On अक्टूबर 11, 2014 18:10 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 20, 2014 12:46 pm IST

लोकनायक जयप्रकाश नारायण उस सिताब दियारा में भी नहीं हैं जहां पैदा हुए और उस राजनीति के केंद्र में भी नहीं हैं जिसे बदलने का एक ज़ोरदार प्रयास किया है। जेपी अचानक किसी पुराने ब्रांड की तरह हमारी राजनीति में पुनर्जीवित होकर उभरते रहते हैं और ग़ायब हो जाते हैं। रामलीला मैदान की सभाएं उनका नाम लेकर किसी क्रांति का आग़ाज़ करने लगती हैं और ल्युटियन दिल्ली की ढलानों पर पहुंच कर सत्ता की बात करने लगती हैं।

जेपी को याद करना क्या इतना आसान है। कई दशक बीत जाने के बाद जेपी को अब एक मूर्ति के रूप में ही याद किया जा सकता है। उनकी संपूर्ण क्रांति को संपूर्णता में देखने का कहां वक्त है। कई पीढ़ियां बदल गईं तो इससे अच्छा है कि माल्यार्पण कर याद करने की रस्म अदा कर दी जाए।

पर लोकतंत्र के लिए सुखद है कि जेपी का नाम किसी न किसी बहाने लौटता रहे। असफल ही सही मगर आज़ादी के बाद के भारत में लोकतंत्र को लेकर जो सवाल उठे वो उन सवालों का पहला पड़ाव है।

जेपी को याद करने का मतलब है लोकतंत्र के सवालों को याद करना। नाकामियों को याद करने से सकारात्मकता आती है। सिर्फ सकारात्मकता की चासनी पसंद करने वाले वो धूर्त लोग होते हैं जो इसके नाम पर जीवन की सच्चाइयों को खत्म कर देना चाहते हैं। बी पोज़िटिव। लोकतंत्र का सबसे बड़ा ठगैत नारा है। उम्मीद का मतलब होता है उन सवालों से टकराना जिनके हल हमें खोजने हैं। उम्मीद का मतलब यह नहीं होता है कि हल खोजने से पहले समाधान के नारे लगाना।

पटना के गांधी मैदान में उस रोज़ बहुत बारिश हो रही थी। मुंगेर से आई एक नानी मां मेरा हाथ पकड़े लिए जा रही थीं। रास्ते में चप्पल छूट गया। पड़ोसी दोस्त की नानी भी तो अपनी नानी होती है। मैं पूछता रहा कि किसे देखने जा रही हैं। कौन हैं। चुप कर। तुमको समझ नहीं आएगा। चलो। बड़ा नेता मरा है। दर्शन करना चाहिए। नेता ही आगे ले जाता है। पटना के कृष्ण मेमोरियल हाल में जेपी का पार्थिव शरीर रखा था। अगर मुझे ठीक ठीक याद है तो लाखों लोगों की भीड़ में उस बूढ़ी नानी का हाथ पकड़ कर मैंने भी जेपी को देखा था।

उसके बाद जब होश संभाला तो जेपी को हर बहस में ज़िंदा पाया। वो उस आत्मा की तरह थे जो हर बहस में भूत का रूप धर कर टपक आते थे। बहसबाज़ जल्दी से उनका नाम लेकर भाग जाते थे। आज उसी जेपी को याद करने के लिए दिवंगत पत्रकार प्रभाष जोशी के लेखों को पलटने लगा। राजकमल प्रकाशन ने उनके लेखों का संग्रह छापा है। एक लेख है जब तोप मुकाबिह हो संग्रह में और दूसरा ल्युटियन के टीले का भूगोल। मैं बस उस लेख के बहाने जेपी के उठाए सवालों को यहां रखना चाहता हूं ताकि जेपी का भूत फिर ज़िंदा हो जाए और उसके बाद जिसे जहां भागना हो भाग जाए।

जेपी और इन्दिरा गांधी लेख का शीर्षक है। प्रभाष जोशी लिखते हैं कि "यूपी और ओडीशा के विधानसभा चुनावों के चार करोड़ रुपये इकट्ठे किए गए। इससे जेपी इतने चिन्तित हुए कि इन्दिरा जी से मिलने गए और कहा कि कांग्रेस अगर इतने पैसे इकट्ठे करेगी और एक एक चुनाव में लाखों रुपया खर्च किया जाएगा तो लोकतंत्र का मतलब क्या रह जाएगा। सिर्फ वही चुनाव लड़ सकेगा जिसके पास धनबल और बाहुबल रहेगा। मामूली आदमी के लिए तो कोई गुंज़ाइश रहेगी नहीं। जेपी ने बताया कि पूरी बातचीत में इंदिरा अपने नाखूनों को कतरती रहीं। इंदिरा के इस रवैये से जेपी बहुत दुखी हुए।"

क्या आज जेपी का नाम लेने वाले इस सवाल से टकराना चाहेंगे। नाम लेने वाले किस नेता ने महंगी होती चुनावी राजनीति के खिलाफ बोलने की भी औपचारिकता निभाई है। जेपी बस माले के मनके समान है। जल्दी जल्दी गिनो और जल्दी जल्दी जपो। अब तो नेता अपनी संपत्ति का विवरण भी देते हैं और जनता पढ़कर उसे किनारे रख देती है। यह सवाल पूछने की हिम्म्त तो जनता में भी नहीं बची है। कोई नहीं बताता कि करते क्या हैं, आय का सोर्स क्या है और कोई पूछता भी नहीं कि करोड़ों रुपये की संपत्ति पिछले विधानसभा से इस विधानसभा के बीच कैसे बढ़ गई।

ये जेपी के सवाल हैं। क्या हमने लोकतंत्र को आम आदमी की भागीदारी के लायक बनाया है। परिवारवार ही एक मात्र रोग नहीं है। स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति में शामिल लोगों का एक नेटवर्क बन गया है जो ठेकों से लेकर डीलरशिप के सहारे फलफूल रहा है। इस नेटवर्क के रहते किसी साधारण व्यक्ति के लिए लोकतंत्र में भागीदारी करना आसान नहीं है। राजनीतिक दल अब इस नेटवर्क को किराये पर लेने लगे हैं। ये नेटवर्क अब किसी भी दल का बनाया हो सकता है और इसे कोई भी दल अपने में मिलाकर सत्ता प्राप्त कर सकता है।

तब जेपी का नाम लेकर सत्ता में आए नेताओं ने ऐसा कुछ नहीं किया जिससे जनता और इंदिरा बनने वाले नेताओं को सबक मिल सके। आज आराम से किसी नेता में इंदिरा की छवि खोज ली जाती है। नेताओं को इससे दिक्कत भी नहीं होती। हम तय ही नहीं कर पाए कि इंदिरा इमरजेंसी की खलनायिका हैं या आदर्श नेता बनने का प्लास्टर ऑफ पेरिस का कोई सांचा जिसमें ढलकर कोई भी इंदिरा जैसा नेता बन जाता है। प्रभाष जोशी आखिर में लिखते हैं कि इस तरह इन्दिरा गांधी को पकड़ने, जेल भेजने और सजा देने की जनता सरकार की कोशिश नौटंकी में समाप्त हो गई।

जेपी ने कहा था कि बदले की कार्रवाई मत करना। मोरारजी और चरणसिंह ने वही करके इन्दिरा गांधी की वापसी का रास्ता तैयार किया। जेपी के सवाल तो अब भी घूम रहे हैं।

प्रभाष जोशी जब तोप मुकाबिल हो नाम के लेख में आपातकाल को याद करते हैं। “अखबार लेखों, विश्लेषणों से नहीं बाजार को साधने के उपकरणों से भरे रहें इसलिए संपादक, पत्रकार और पाठक भी गैर-ज़रूरी हो गए हैं। मार्केंटिंग अखबार की प्रेरणा और मुनाफा लक्ष्य हो गया। रामनाथ गोयनका ने इमरजेंसी की लड़ाई में अपना पूरा अख़बार घराना झोंक दिया था अब किसी राष्ट्रीय सरोकार पर कोई अख़बार स्टैंड तक नहीं लेता। चिकनी-चुपड़ी बातें करके अखबार बाज़ार और राजनेताओं को पटाए रखना चाहते हैं।

इमरजेंसी के बाद वे सब पार्टियां और वे सब नेता सत्तारूढ़ हो चुके हैं जो जेपी आंदोलन में थे- मोरारजी देसाई से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक। पहले जनता पार्टी की अगुआई थी फिर जनता दल की हुई फिर तीसरे मोर्चे की और अब भारतीय जनता पार्टी की। ये सब जेपी आंदोलन की सीढ़ी चढ़कर आई हैं और अब सीढ़ी को उठाकर जनता के पास पहुंचने का रास्ता छोड़ चुकी हैं। कुछ पार्टियों ने मंडल आयोग के नाम पर जातिवादिता को सिंहासन पर पहुंचने का साधन बनाया।

संघ परिवार ने बाबरी मसजिद तोड़कर सांप्रदायिकता का रास्ता लिया। जेपी आंदोलन सत्ता की कांग्रेसी अपसंस्कृति के स्थान पर जनसेवी समर्पण को लाने का आंदोलन था। उसके कन्धे पर चढ़कर जो भी नेता और पार्टी सत्ता की बन्दरबांट के बंटवारे में आए उनने साबित किया कि राज चलाने का एक ही तरीका है और वह है कांग्रेसी तरीका''

"बेचारे जेपी कहा करते थे कि यह आंदोलन इनमें से किसी राजनेता को इन्दिरा गांधी की जगह बैठाने और गैर-कांग्रेस पार्टियों का राज स्थापित करने के लिए नहीं है। यह उस जनता को सिंहासन पर बिठाने के लिए है जो झोंपड़ी से उठकर राजधानी की तरफ कूच कर रही है। जेपी आन्दोलन और सम्पूर्ण क्रांति के नेताओं ने जनता को वापस झोंपड़ियों में भेज दिया और सिंहासनों पर खुद कब्जा किए हुए हैं।''

प्रभाष जोशी की यह बात आज भी कह रही है कि हर राजनीतिक आंदोलन का सख्त मूल्यांकन होना चाहिए। अच्छा है कि हम अपने नेताओं को याद रखते हैं और किसी न किसी बहाने उनका नाम चलाते रहते हैं, मगर और भी अच्छा होगा जब हम उनके सवालों को भी सामने रखें। तभी तो लोकनायक के बाद कोई लोकनायक नहीं हुआ। जो भी होता है या होना चाहता है खुद को महानायक बनाना चाहता है।

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