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This Article is From Apr 27, 2018

सरकार को हुजूर नहीं, जी हुजूर जज चाहिए, सुप्रीम कोर्ट की घटनाओं को गौर से देखिए

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अप्रैल 27, 2018 11:41 am IST
    • Published On अप्रैल 27, 2018 11:41 am IST
    • Last Updated On अप्रैल 27, 2018 11:41 am IST
क्या आप सुप्रीम कोर्ट और सरकार के बीच जो कुछ चल रहा है, उसे बारीकी से देख रहे हैं? जो भी ख़बरें छप रही हैं, न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर प्रहार करने वाली हैं. कांग्रेस राज के समय न्यायपालिका में हस्तक्षेप की दुहाई देकर मौजूदा सरकार अपने हस्तक्षेप पर पर्दा डाल रही है. यह सरकार इसलिए नहीं है कि कांग्रेस के गुनाहों को दोहराती रहे. क्या जजों की नियुक्ति के मामले में मोदी सरकार ने कोई अलग नैतिक पैमाना कायम किया है? सुप्रीम कोर्ट के चार मुख्य न्यायाधीशों और चार पूर्व जजों ने जजों की नियुक्ति के मामले में सरकार के हस्तक्षेप को लेकर चिन्ता जताई है. ये सभी जज कांग्रेस के महाभियोग के प्रस्ताव को खारिज भी कर चुके हैं. इनका सवाल है कि चीफ जस्टिस मिश्रा ने कॉलेजियम के प्रस्ताव को ठुकराने की अनुमति सरकार को कैसे दे दी है?

पूर्व चीफ जस्टिस आर एम लोढ़ा ने कहा है कि सरकार ने कॉलेजियम द्वारा भेजे गए नामों में पसंद के आधार पर चुन कर स्वीकृति देकर न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर हमला कर दिया है. उत्तराखंड हाई कोर्ट के जस्टिस के. एम. जोसेफ का नाम अलग कर दिया, उनके नाम पर अभी तक सहमति नहीं दी है और कॉलेजियम के भेजे दूसरे नाम इंदु मल्होत्रा पर सहमति जताई है, यह ठीक नहीं है. ऐसा करके सरकार ने भविष्य में कुछ जजों के चीफ जस्टिस बनने की संभावना को ठुकरा दिया है. कॉलेजियम द्वारा भेजी गई फाइल पर हफ्तों बैठे रहना और उसके बाद एक नाम को छोड़ एक पर सहमति भेजना कोई नया खेल खेला जा रहा है.

जस्टिस आर एम लोढ़ा ने कहा है कि ऐसी स्थिति में चीफ जस्टिस मिश्रा को तुरंत कॉलेजियम की बैठक बुलाकर सरकार से बात करनी चाहिए. जस्टिस लोढ़ा ने कहा कि चीफ जस्टिस भी फाइल पर अनिश्चितकाल के लिए बैठे नहीं रह सकते हैं और न ही सरकार. चीफ जस्टिस को अभी और तुरंत अपनी दावेदारी करनी चाहिए. परंपरा यही है कि सरकार कॉलेजियम के भेजे गए नामों में से पसंद के आधार पर नहीं छांट सकती है. मगर जस्टिस लोढ़ा के कार्यकाल में भी सरकार ने एक नाम को अलग किया था. एक्सप्रेस की सीमा चिश्ती ने अपनी रिपोर्ट में यह लिखा है. जस्टिस लोढ़ा ने याद करते हुए कि कहा कि जब वे बाहर थे तब सरकार ने बिना उनकी जानकारी के गोपाल सुब्र्हमण्यम को अलग कर दिया था. उनके जज बनाए जाने को मंज़ूरी नहीं दी थी.

जस्टिस लोढ़ा ने कहा कि यह बहुत गलत था, मैंने तुरंत कानून मंत्री को पत्र लिखा कि फिर से ऐसा नहीं होना चाहिए. किसी चीफ जस्टिस के साथ ऐसा नहीं होना चाहिए. जस्टिस लोढ़ा ने कहा कि हम इसे अंजाम तक ले जाते मगर गोपाल सुब्रमण्यम ने ही अपना नाम वापस ले लिया था.

पूर्व जस्टिस टी एस ठाकुर ने भी जस्टिस के एम जोसेफ का प्रमोशन रोकने को दुर्भाग्यपूर्ण कहा है. इसके अलावा दो और पूर्व चीफ जस्टिस और चार पूर्व जजों ने नाम न ज़ाहिर करने की शर्त पर एक्सप्रेस की सीमा चिश्ती से कहा है कि वे इस बात पर सहमत हैं कि चीफ जस्टिस मिश्रा को तुरंत सरकार से इस बारे में संवाद कायम करना चाहिए. तीन महीने हो गए हैं और अभी तक चीफ जस्टिस ने ऐसा कुछ नहीं किया है, इसे लेकर वे चिन्तित हैं. दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस ए पी शाह ने कहा है कि धीर-धीरे कॉलेजियम पर हमला बढ़ता जा रहा है. मैं हैरान हूं कि चीफ जस्टिस ने भरी अदालत में कहा कि जस्टिस के एम जोसेफ की फाइल लौटा देने में कुछ भी ग़लत नहीं है.

आप जानते हैं कि जस्टिस के एम जोसेफ ने उत्तराखंड में असंवैधानिक तरीके से राष्ट्रपति शासन लगाए जाने के फैसले को पलट दिया था. अरुणाचल प्रदेश में भी इसी तरह 26 जनवरी की आधी रात को राष्ट्रपति शासन लगाया गया था, वह भी तो अदालत में नहीं टिक सका. मोदी लहर में जनता इन घटनाओं पर ध्यान नहीं दे रही थी, उसे अभी भी लग रहा है कि संविधान की धज्जियां तो कांग्रेस के शासन में उड़ती थीं, अब नहीं. वह नहीं देख पा रही है कि उसकी आंखों के सामने क्या हो रहा है. अब सबकी नज़र इस बात पर है कि क्या चीफ जस्टिस मिश्रा के बाद जस्टिस रंजन गोगोई को चीफ जस्टिस की कुर्सी मिलेगी? वरिष्ठता क्रम में उन्हीं का नंबर है. उस दिन तय हो जाएगा कि सरकार सिर्फ इरादा ही नहीं रखती है, इरादे में कामयाब भी हो चुकी है. आप जब पूछेंगे तो यही कहेगी कि कांग्रेस हमें लेक्चर न दें. न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अपना रिकार्ड देखे. आप की गर्दन दूसरी दिशा में मुड़ जाएगी और इस तरह आप जो हो रहा है वो नहीं देखेंगे. दुखद है.

10 सितंबर 2017 को केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने एक ट्वीट किया था कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार मोबाइल नंबर को आधार से लिंक कराना होगा. कई न्यूज़ संगठनों ने ऐसी ख़बरें दिखाई हैं कि मोबाइल सिम को आधार से लिंक करना अनिवार्य है और यह सुप्रीम कोर्ट का आदेश है. मगर बुधवार को सुप्रीम कोर्ट में सरकार के इस झूठ की पोल खुल गई. आधार की सुनवाई कर रहे बेंच के जजों में से एक जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने UIDAI के वकील राकेश द्विवेदी से पूछा कि सुप्रीम कोर्ट ने कब आदेश दिया है तब वकील साहब सकपका गए. पहले सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश का हवाला दिया कि कोर्ट ने ही कहा है कि सिम कार्ड को वेरीफाई कराना है मगर आधार से लिंक करने का आदेश तो उसमें था नहीं. अंत में उन्हें यह स्वीकार कर लेना पड़ा कि यह सही नहीं है और सरकार मिसगाइड कर रही थी यानी लोगों को भटका रही थी.

सुप्रीम कोर्ट के आदेश का नाम लेकर देश से झूठ बोलने पर रविशंकर प्रसाद के साथ क्या किया जाना चाहिए? क्या उन्हें नैतिकता के आधार पर इस्तीफा नहीं देना चाहिए? संविधान की शपथ लेने वाला मंत्री अगर इस तरह से झूठ बोले तो उसकी नैतिकत जवाबदेही क्या ये है कि कांग्रेस के राज में भी मंत्री इस तरह की हरकत करते थे. रविशंकर प्रसाद के हर बयान को देखिए, लगता है कि अपनी फाइल कम पढ़ते हैं, कांग्रेस की फाइल दिन रात रटते रहते हैं. हिन्दी के अख़बारों में ऐसी ख़बरें छपती भी नहीं हैं. जनता को पता भी नहीं होता है. लेकिन क्या आपको लगता है कि मंत्री और सरकार की यह हरकत नैतिक और संवैधानिक है?

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