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This Article is From Dec 29, 2014

रवीश कुमार की कलम से : गरीबों की गंगा

Ravish Kumar, Rajeev Mishra
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  • Updated:
    दिसंबर 29, 2014 13:05 pm IST
    • Published On दिसंबर 29, 2014 08:38 am IST
    • Last Updated On दिसंबर 29, 2014 13:05 pm IST

"जब धारा के विपरीत जाना हो तो बीच धार में नाव नहीं ले जाते। किनारे-किनारे चलाते हैं। बीच में बहाव काफी तेज़ हो जाता है।" नाविक रवि साधु का ये सहज ज्ञान हम सब अपने जीवन से खोते जा रहे हैं। जिसे मानव समाज ने हज़ारों साल में नदियों के किनारे हासिल किया था। 28 साल से गंगा में नाव चला रहा है। पहले चप्पू से नाव चलाता था अब मोटर से। गंगा में पानी भी कम हो गया है जिसके कारण बड़ा बड़ा जहाज़ नहीं चलता, लेकिन पानी से ज्यास्ती (ज्यादा) कमती तो लोग हो गया दादा। अब वैसे लोग भी नहीं चलते।

वैसे लोग? हां, दादा ज्यास्ती तो ग़रीब लोग होता है। दक्षिणेश्वर से बेलुर के लिए दस रुपया ही भाड़ा है। इसलिए कि चलने वाले ग़रीब हैं। पहले तो बड़ा-बड़ा लोग गंगाजी में चलता था। घाट के किनारे नहाने आता था। रवि साधु की बात सुनते सुनते गंगा के किनारे घाटों को देखने लगा। नदी के तीर तक उतरती सैंकड़ों सीढ़ियां और उनपर बने दरवाज़े। अब तो वैसी अवस्था में नहीं हैं, लेकिन इनकी विशालता बता रही है कि कभी यहां दैनिक रूप से कितने लोग नहाने आते होंगे।

अब ये घाट जर्जर अवस्था में हैं। इससे पहले कि इनके जीर्णोद्धार को लेकर भावुक नारे गढ़े जाने लगे यह समझना ज़रूरी है कि समृद्ध लोगों ने ही गंगा को छोड़ दिया है। चंद कर्मकांडों को छोड़ गंगा उनके जीवन शैली का हिस्सा नहीं है। वो अपनी बालकनी में राष्ट्र में धर्म का काकटेल मिलाकर गंगा को लेकर भावुक होते रहते हैं। खैर इन घाटों पर एक या दो लोग ही नहा रहे हैं। कुछ घाट पर लोग डब्बे में पानी भर कर कहार की तरह ढोते चले जा रहे हैं।

आधुनिक डिजाइनवाले विद्यासागर पुल से गंगा में फेंके गए सिक्कों को निकालने के लिए ग़रीब लड़कों ने डुबकी लगानी छोड़ दी है। लंबी सी रस्सी के एक छोर में बड़ा सा गोल चुम्बक बांध दूर तक फेंक देते हैं। जैसे ही सिक्का चिपकता है रस्सी में हलचल होती है जैसे मछली के फंसते ही बंसी झुक जाती है। ये वो लोग हैं जिनकी ग़रीबी गंगा तक ले आई है।

बेलुर मठ और दक्षिणेश्वर के बीच गंगा का पाट काफी चौड़ा है। नदी के दोनों तरफ कुछ पुराने मंदिर नज़र आए जो कभी समृद्ध रहे होंगे मगर अब जर्जर हो गए हैं। बेलुर की साइड में एक राधा कृष्ण मंदिर है। काफी भव्य कैम्पस लगा और मंदिर की बनावट भी लेकिन रौनक़ उतर गई है। दक्षिणेश्वर की साइड में बारह शिव का मंदिर दिखा। बंगाल छत (पालकी की छत जैसी) शैली में बना एक-एक मंदिर खूसबूरत है, लेकिन कोई हलचल नज़र नहीं आई। रंग उतर गया है और शायद भक्तों की वो पीढ़ी ग़ायब हो गई है जो यहां मन्नतें मांगा करती होगी। नाविक रवि साधु ने बताया कि शिवरात्रि के दिन भीड़ होती है, लेकिन बाक़ी समय ख़ाली रहता है।

बेलुर मठ और दक्षिणेश्वर मंदिर की सादगी और भव्यता में कोई कमी नहीं आई है। शनिवार और सर्दी के कारण खूब भीड़ है। दक्षिणेश्वर से बेलुर की तरफ़ रवाना होते वक्त वहां आए हज़ारों लोगों को निहारने लगा। ज़्यादातर साधारण कपड़ों में थे और चेहरे पर निराशा की थकान। साड़ियों का रंग और छाप बता रहा था कि ग़रीब लोगों के यहां अभी फ़ैशन की एकरूपता नहीं आई है। लड़कों के कपड़े और बाल ब्रांडेड नहीं हुए हैं। इनकी ग़रीबी में ही भक्ति है। इतनी भक्ति है कि दो दो घंटे से लोग क़तार में खड़े हैं, मां काली के दर्शन के लिए।

दक्षिणेश्वर के घाट पर ढेर सारी नावें हैं। यही लोग बेलुर जा रहे हैं। दस रुपया किराया और एक ही नाव में सबके समा जाने की ज़िद ताकि गंगा की यात्रा की सामूहिकता बनी रहे। इन नावों में कोई मध्यमवर्ग का नहीं है। कोई पोलिथिन का बैग संभाले फिसल रहा है तो कोई बहुत मुश्किल से एक रुपया का सिक्का गंगा में उछाल रहा है। ऐसा क्यों है कि ग़रीब ही प्राकृतिक संसाधनों के क़रीब है और अमीर को इनके पास जाने से पहले लाइसेंस चाहिए।

ज़माने बाद मैं भी नाव में गंगा की यात्रा कर रहा हूं। सूरज की रोशनी से पानी का सतह चमक रही है जैसे बहुत सी मछलियाँ सतह पर अपना देह सुखा रही हों। हवा की शीतलता और नदी का चौड़ा पाट विराटता का अहसास कराते हैं। इतनी खुली जगह में यात्रा का सुख तो अब स्मृतियों से भी ग़ायब है। गंगा में चलना अतीत में चलने जैसा लगा। लगा कि पूर्वजों की यात्राओं को दोहरा रहा हूं। नदियों के किनारे की पीढ़ियां अब सुदूर मैदानों में जा बसी हैं। किनारे के घर भी खंडहर जैसे लगते हैं।

एक नाव में तीस लोग ही आ सकते हैं। आने-जाने में डेढ़ लिटर डीज़ल की खपत हो जाती है। पम्प सेट की काली हवा गंगा के लिए भी अच्छी नहीं होगी। अचानक एक दूसरी नाव हमारी नाव के बगल आ जाती है। उस नाव से इस नाव में एक यात्री आ जाता है। नाविक का दोस्त है। जल्दी दोनों बातें करने लगते हैं। रवि साधु बताता है कि हम तो नाव में ही चलते हैं। सड़क भाती (अच्छी) नहीं है। हो सके तो आप भी नाव से यात्रा कीजिये। नदी पर चलकर देखिये!

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