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This Article is From Apr 14, 2015

मीडिया में अंबेडकर जयंती की कवरेज़ क्यों नहीं है - रवीश कुमार

Ravish Kumar
  • Blogs,
  • Updated:
    अप्रैल 14, 2015 21:13 pm IST
    • Published On अप्रैल 14, 2015 15:27 pm IST
    • Last Updated On अप्रैल 14, 2015 21:13 pm IST

नई दिल्ली : शैनन। ऐसा कुछ नाम सुनाई दिया, भीड़ को चीरती मुस्कुराती हुई मेरे पास आ गई। फर्राटेदार बढ़िया अंग्रेज़ी में पूछने लगी कि आज अंबेडकर जयंती है। गांधी, नेहरू और पटेल जयंती के दिन अखबारों में कितना कुछ होता है, अंबेडकर पर क्यों कुछ नहीं है। क्यों नहीं यहां के मेले को दिखाया जाता है।

शैनन ने वही सवाल किया, जो सारे कर रहे थे। जवाब तो था मगर बात बढ़ाने के लिए पत्रकारिता की छात्रा शैनेन से एक सवाल पूछ लिया, अंबेडकर आपके लिए क्यों इतना मैटर करते हैं। वो बोल तो रही थी हंसते हुए, मगर उसकी आंखें छलक गईं। सर आज अंबेडकर नहीं होते तो हम यहां नहीं होते। मैं ऐसे नहीं होती। मेरे हाथ में ये आईफोन नहीं होता। हमारा कैमरा उसकी आंखों में नहीं झांक सका, लेकिन मैं नज़दीक खड़ा देख रहा था कि अंबेडकर के बारे में कृतज्ञता जताते हुए उसकी आंखों से आंसू की धार बह रही थी। शैनन ने इस धार को अपनी हंसी से छिपा तो लिया, मगर उसका सवाल काफी था दूसरे को मजबूर करने के लिए।

जिस अंबेडकर के कारण शैनन के पास आज सबकुछ है, उस अंबेडकर को जब शैनन अखबारों या टीवी में ढूंढती है, तो नहीं मिलते हैं। अनुपात के लिहाज़ उसकी बातों पर बहस हो सकती है, मगर कुछ तो आधार होगा, तभी तो शैनन के अलावा संसद मार्ग पर मिलने वाले हर शख्स ने यह सवाल किया। लोग पूछ रहे थे, सुना रहे थे और बोले जा रहे थे। आप पहले हैं, जो यहां शूटिंग के लिए आए हैं। यहां प्रेस का कोई नहीं आता। देखिये यहां कितनी भीड़ है, लेकिन कोई कवरेज नहीं होती। मैं यहां तीस साल से आ रहा हूं। बच्चा था, मगर अब दादा बन गया हूं, लेकिन आज तक किसी अखबार में यहां की कवरेज़ नहीं देखी। आप आज तक क्यों नहीं आए। मैं इन सवालों को सुनता हुआ भीड़ से गुज़रता जा रहा था। ये सवाल उनके भी थे, जो मेरे साथ सेल्फी खिंचाना चाहते थे और उनके भी जो इस बात से खुश थे कि कोई टीवी वाला यहां आया है।

इस सवाल की तल्ख़ी का कोई तो वजूद होगा, जिसके कारण हर दूसरा आदमी अंबेडकर जयंती के जश्न को छोड़ मुझे सुनाकर जा रहा था। मुझे नहीं मालूम कि नई दिल्ली के संसद मार्ग पर लगने वाला यह मेला अगले दिन के अखबारों में कभी छपा है या नहीं। दावे से नहीं बता सकता, मगर सरसरी तौर पर कह सकता हूं कि याद नहीं आता है। मेरे पास यह कहने का कोई भी प्रमाण नहीं है कि अंबेडकर जयंती की कवरेज न्यूज़ चैनलों पर नहीं हुआ होगा। लेकिन इतने लोगों का सवाल जब सवाल की जगह पीड़ा बन जाए, तब यह सोचना पड़ता है या सोचना चाहिए कि कोई यह बात क्यों कह रहा है।

नई दिल्ली के संसद मार्ग के बारे में कौन नहीं जानता होगा। आकाशवाणी है, भारतीय रिज़र्व बैंक, नीति आयोग का मुख्यालय है, पार्लियामेंट एनेक्सी है। जब से दिल्ली आया हूं, तब से सुनता आ रहा हूं कि वहां 14 अप्रैल के रोज़ बहुत बड़ा मेला लगता है। एक दिन पहले से ही तरह तरह के स्टॉल बनकर तैयार हो जाते हैं और हज़ारों की संख्या में लोग घंटों कतार में खड़े अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे होते हैं कि कब उनकी बारी आएगी और वे संसद के भीतर डॉक्टर भीमराव आंबेडकर की प्रतिमा पर फूल चढ़ा सकें। कई साल पहले जब 14 अप्रैल के दिन संसद मार्ग पर गया, तब रिपोर्टिंग नया-नया सीख रहा था। उसके बाद से इस दिन वहां तो नहीं, मगर कहीं और ज़रूर गया। आज भी नहीं जाता, मगर आगरा में लगने वाली भीम नगरी के आयोजन के समय के कारण संसद मार्ग का ही विकल्प बच गया था।

संसद मार्ग पर मेले का नज़ारा था। हज़ारों की भीड़ आ जा रही थी। आने वाले लोग बाराती की तरह सज धज कर आए थे। कोई दिल्ली के बाहर से था, तो कोई दिल्ली के गांवों से। इस भीड़ में डॉक्टर, राजस्व अधिकारी, पुलिस अधिकारी, वकील, बैंक कर्मचारी सहित वो सारा तबका था, जो अपनी इस ज़िंदगी के लिए डॉक्टर अंबेडकर का शुक्रगुज़ार है। उनकी पूजा करता है और प्यार करता है। इसीलिए कई लोगों ने कहा कि अगर आप डॉक्टर अंबेडकर की जगह बाबा साहब कहेंगे, तो हमें अच्छा लगेगा। हम बाबा साहब से बहुत प्यार करते हैं। यह बात करते करते न जाने कितनों की आंखें छलक आईं।

भंडारा और लंगर की भरमार थी, तो बाबा साहेब की मूर्तियां खूब बिक रही थीं। संविधान निर्माता की भूमिका में उनकी तस्वीर के खरीदार खूब नज़र आए। इस मेले में कई तरह के सामाजिक आंदोलन के स्टॉल लगे थे। एक स्टॉल पर बेटी बचाओ और बाल मज़दूरी मिटाने के लिए लोग नारे लगा रहे थे। किसी मंच पर कोई अंबेडकर के विचारों को लेकर तकरीरें कर रहा था। कहीं किताबों की भरमार थी। मनुस्मृति क्यों जलाई गई से लेकर मनु स्मृति की किताब भी। मैंने पूछा कि दोनों ही बेच रहे हैं। जवाब मिला कि हां जलाने से पहले पढ़ना ज़रूरी है, कि क्यों यह जला देने के लायक है।

14 अप्रैल के दिन अंबडेकर को लेकर असंख्य सेमिनार, सम्मेलन और मेले लगते हैं। शहर से लेकर गांव तक में। अंबेडकर को चाहने वाले की शिकायत है कि मीडिया उनकी कवरेज़ नहीं करता। अगर किसी भी तरीके से यह शिकायत सही है तो मीडिया को सोचना चाहिए। यह सवाल कोई पहली बार नहीं पूछा गया है। कुछ ही दिन पहले आईआईटी दिल्ली में एक नौजवान छात्र ने यही सवाल किया था। पता नहीं क्यों लगा कि यह सवाल पूछने वाले लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। व्यक्तिगत स्तर पर बहुत खुश हूं। एक उपभोक्ता के नाते भी पाठक, दर्शक का अधिकार तो बनता ही है, वो पूछें कि क्यों इस जयंती को दरकिनार कर दिया जाता है।

दरअसल दरकिनार नहीं किया जाता। अंबेडकर जयंती के दिन के उत्सवों को हमारे राजनीतिक दल हाई जैक कर लेते हैं। उनके बयान और दावों के बीच ही बाबा साहब की प्रासंगिकता का विवेचन होकर रह जाता है। तरह-तरह के नाम वाले दलों की रैलियों और दौड़ों के पीछ भागते कैमरे कभी देख ही नहीं पाते हैं कि अंबेडकर की जयंती लोग भी मनाते हैं। चैनलों पर अब पहले से कहीं ज्यादा अंबेडकर जयंती को लेकर कार्यक्रम हो जाते हैं, मगर यह हो सकता है कि नई राजनीतिक दावेदारियों की प्रतिक्रिया में ऐसा किया जाता हो।

हमने सार्वजनिक माध्यमों में अंबेडकर की मौजूदगी को इतना कृत्रिम और अवसरवादी राजनीतिक बना दिया है कि भूल जाते हैं कि बाबा साहब को याद करते हुए कोई रो भी देता है, कोई हंस भी देता है और कोई शुक्रगुज़ार हो नारे लगाने लगता है जैसे उनकी ज़िंदगी में कोई दूत आ गया हो। लोक उत्सव में अंबेडकर या अंबेडकर का लोकरूप तो कहीं नहीं दिखता। क्यों नहीं दिखता, यही तो सवाल पूछा है मुझसे शैनन ने।

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