क्या केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने वह कह दिया, जो सब जानते हैं. उनका बयान आया कि आरक्षण लेकर क्या करोगे, सरकार के पास नौकरी तो है नहीं. बाद में नितिन गडकरी की सफाई आ गई कि सरकार आरक्षण का आधार जाति की जगह आर्थिक नहीं करने जा रही है, मगर इसी बयान का दूसरा हिस्सा भी था कि सरकार के पास नौकरी है नहीं. क्या वाकई सरकार या सरकारों के पास नौकरी नहीं हैं या वे देना नहीं चाहती हैं...? आइए, ज़रा इस पर विचार करते हैं. इस बयान को 5 अगस्त के 'टाइम्स ऑफ इंडिया' में छपी पहली ख़बर के साथ मिलाकर देखिए. अख़बार ने फरवरी से जुलाई के बीच संसद में अलग-अलग विभागों के संदर्भ में दिए गए आंकड़ों को एक जगह जमा कर पेश किया है. इससे तस्वीर बनती है कि केंद्र और राज्य सरकारों के पास 24 लाख नौकरियां हैं, जिन पर वे बैठी हुई हैं.
भारत के नौजवानों का दिल आज धड़क ही गया होगा, जब उनकी नज़र इस ख़बर पर पड़ी होगी. 'Prime Time' की 'नौकरी सीरीज़' में हम यह बात पिछले कई महीने से दिखा रहे हैं. अपने फेसबुक पेज @RavishKaPage पर ही पचासों लेख लिख चुका हूं. 24 लाख नौकिरयां होते हुए भी नहीं दी गई हैं, नहीं दी जा रही हैं या देने में देरी की जा रही है, यह सूचना भारत के नौजवानों के उस तबके में है, जो इन नौकरियों की तैयारी करते हैं. जो हर दिन भर्तियां निकलने का इंतज़ार करते हैं, जिन्हें पता है कि किस राज्य के लोक सेवा आयोग की भर्ती नहीं निकली है. 'टाइम्स ऑफ इंडिया' ने जो संकलन किया है, उसके अनुसार 10 लाख नौकरियां तो सिर्फ प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा में हैं. लाखों नौजवान बीटेट और बीएड करके घर बैठे हैं, मगर कहीं बहाली नहीं है. जहां कहीं है भी, वहां ठेके पर है. पूरा काम करते हैं, पूरी सैलरी नहीं मिलती है. हक की बात करो, तो सबको निकम्मा बताया जाने लगता है. क्या वाकई राजनीति को व्हॉट्सऐप पर भेजे जाने वाले प्रोपेगैंडा पर भरोसा हो चला है कि छात्र इन्हीं में उलझा रहेगा, कभी अपनी नौकरी की न बात करेगा, न पूछेगा...?
अख़बार ने लिखा है कि पुलिस में पांच लाख 40 हज़ार वेकेंसी हैं. अर्द्धसैनिक बलों में 61,509, सेना में 62,084, पोस्टल विभाग में54,263, स्वास्थ्य केंद्रों पर 1.5 लाख, आंगनवाड़ी वर्कर में 2.2 लाख वेकेंसी हैं. AIIMS में 21,470 वेकेंसी हैं. अदालतों में 5,853 वेकेंसी हैं. अन्य उच्च शिक्षा संस्थानों में 12,020 वेकेंसी हैं. इन सबके अलावा रेलवे में 2.4 लाख नौकरियां हैं. चार साल से नौजवान तैयारी करते रह गए, रेलवे में बहाली नाममात्र की आई. किसी-किसी विभाग में तो आई ही नहीं. रेलवे में 2 लाख से अधिक वेकैंसी है, फिर भी डेढ़ लाख भी नहीं निकली हैं. इस बार ज़रूर फॉर्म भरे जाने के बाद रेलवे ने सहायक लोको पायलट की संख्या 26,500 से बढ़ाकर 60,000 करने का फैसला किया है. अच्छी बात है, मगर सहायक स्टेशन मास्टर की बहाली जैसा न हो जाए. 2016 में 18,000 पदों के लिए फॉर्म भराया, मगर नतीजा आया, तो 4,000 सीटें कम हो गईं. ऐसी कितनी ही परीक्षाओं के उदाहरण मिल जाएंगे. रेलवे में भी और रेलवे के बाहर भी.
रेलवे की परीक्षा के सेंटर दूर-दूर दिए गए हैं. सरकार ने इस मामले में कोई राहत नहीं दी है, जबकि बड़ी संख्या में ग़रीब छात्र नहीं पहुंच पाएंगे या जाने के लिए कर्ज़ ले रहे हैं. वे अभी भी लिख रहे हैं कि एक-दो बार और 'Prime Time' में दिखा दें, हम लोग वाकई तनाव में हैं. रेल समय से नहीं चलती है. कई दिन पहले निकलना पड़ेगा. इस बीच दूसरी परीक्षाएं छूट जाएंगी. क्या पास के सेंटर पर परीक्षा नहीं हो सकती है...? लेकिन रेलवे ने इसकी जगह वेकेंसी बढ़ा दीं. बहुत अच्छा किया, मगर इससे छात्रों की इस समस्या का समाधान नहीं हुआ कि पैसे के कारण वे सेंटर तक नहीं जा पा रहे हैं. 'टाइम्स ऑफ इंडिया' का यह डेटा पूरा नहीं है. इसमें केंद्र और राज्य सरकारों के कर्मचारी चयन आयोगों के आंकड़े नहीं हैं. इसमें यह भी नहीं है कि कितनी भर्तियां अटकी पड़ी हैं. कितनी भर्तियां तीन-तीन साल से अटकी पड़ी हैं. फॉर्म भरा गया है, परीक्षा नहीं, परीक्षा हो गई है, रिज़ल्ट नहीं, रिज़ल्ट निकल गया है, ज्वाइनिंग नहीं. भारत के सरकार के स्टाफ सेलेक्शन कमीशन की भर्तियां कम हो गई हैं. नौजवानों से फॉर्म भरने के 3,000 रुपये तक लिए जा रहे हैं. पैसे लेकर परीक्षा रद्द होती है, वे लौटाए नहीं जाते. नौजवानों को पीसकर रख दिया है इन आयोगों ने. आयोग छोड़िए, कोर्ट की भर्तियां समय से और बिना विवाद के नहीं हो पा रही हैं.
बिहार सिविल कोर्ट क्लर्क परीक्षा, 2016 का रिज़ल्ट अभी तक नहीं निकला है. हाल ही में नौजवानों ने रिज़ल्ट निकालने को लेकर पटना के गांधी मैदान में प्रदर्शन भी किया था. अगर 24 लाख में राज्यों के आयोगों से आंकड़े लेकर जोड़ दिए जाएं, तो यह संख्या 50 लाख तक पहुंच सकती है. 28 जुलाई के 'The Hindu' में विकास पाठक की रिपोर्ट है कि पिछले तीन साल में कॉलेजों में टेम्परेरी से लेकर प्रोफेसर की कुल संख्या में 2.34 लाख की गिरावट आ गई है. 2015-16 में 10.09 लाख शिक्षक थे, 2017-18 में यह संख्या घटकर 8.88 लाख पर आ गई है. रिपोर्टर ने इस का सोर्स ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन रिपोर्टर, 2017-18 का बताया है. 'टाइम्स ऑफ इंडिया' की रिपोर्ट में यह संख्या नहीं है.
हमने कई महीने नौकरी सीरीज़ चलाई है. अभी भी चलती रहती है. अभी भी छात्र अपनी नौकरियों को लेकर लिखते रहते हैं. उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग इंजीनियरिंग सेवाओं की परीक्षा आयोजित करती है. 2013 की परीक्षा का फॉर्म दिसंबर, 2013 में निकला था. तीन साल बाद, यानी अप्रैल, 2016 में परीक्षा होती है. अब छात्र जब रिज़ल्ट के लिए आयोग से संपर्क करते हैं, तो कोई जवाब नहीं मिलता. 2017 से लेकर आज तक वे विरोध प्रदर्शन ही कर रहे हैं. ऐसे अनेक उदाहरण हैं. राजस्थान, बिहार, बंगाल, पंजाब, मध्य प्रदेश से तो आए दिन छात्र लिखते रहते हैं. ज़ाहिर है, इन सभी नौकरियों की संख्या को जोड़ लें और कुछ साल पहले की संख्या से मिलाकर देखें, तो समझ आएगा कि कितनी नौकरियां कम कर दी गई हैं. कम करने के बाद भी जो सीटें हैं, उन्हें भरा नहीं जा रहा है. क्या ये नौजवान वोट नहीं देते हैं, क्या इन्होंने किसी को वोट नहीं दिया था...? सरकारों को कितना वक्त लगेगा हर विभाग में ख़ाली पदों के बारे में बताने में...? लेकिन यह सवाल पूछ कौन रहा है...? क्या नौजवानों को इस सवाल का जवाब चाहिए...? यह सवाल पहले वे ख़ुद से पूछें.
नोट : ऐसे लेख अंग्रेज़ी अख़बारों में कहीं कोने में तो कभी इधर-उधर छप जाते हैं, लेकिन हिन्दी अखबारों से ऐसे विश्लेषण गायब होते जा रहे हैं. ज़रा ध्यान से पढ़िए. आपकी ही जवानी का सवाल है. नौकरी का तो है ही.
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