आज भारत को संविधान का नया संरक्षक मिला है।द्रौपदी मुरमू का राष्ट्रपति बनना पहले से ही तय था, उसकी आज पुष्टि हो गई. द्रौपदी मुरमू को बधाई. पहली बार अनुसूचित जनजाति से किसी को राष्ट्रपति भवन पहुंचने का मौका मिलने जा रहा है. द्रौपदी मुरमू ने आसानी से विपक्ष के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा को हरा दिया है. ज़ाहिर है यह उम्मीदों का दिन है इसलिए भी संविधान की संरक्षिका के सामने चुनौतियों का ज़िक्र ज़रूरी है. द्रौपदी मुरमू इस मामले में भी पहली राष्ट्रपति होंगी जिनका जन्म आज़ादी के बाद हुआ है. यह दृश्य यकीन दिलाता है कि किसी भी पद पर कोई भी पहुंच सकता है. किसी को कोई नहीं रोक सकता. यकीन केवल निजी मसला नहीं है बल्कि संवैधानिक संस्थाओं को भी यह भरोसा दिलाना पड़ता है. कल ही सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि हम पत्रकार को लिखने से कैसे रोक सकते हैं. इस बात का अध्ययन किया जा सकता है कि कितने अखबारों और चैनलों ने इस बात को महत्व दिया कि पत्रकारों को लिखने से कैसे रोक सकते हैं. संविधान के प्रावधान तभी इस्तेमाल में आते हैं जब कोई इनका इस्तेमाल करता है.
कहने तो कई सारे न्यूज़ चैनल हैं और ढेर सारे न्यूज़ एंकर. मगर रिपोर्टर कितने हैं, इसी सवाल से आपको जवाब मिल जाएगा कि लिखने से रोका नहीं जा सकता मगर लिखने वाला है कहां. सारे चैनलों के कंटेंट एक ही थीम के आस-पास नज़र आते है. 2014 के बाद गोदी मीडिया ने जिस तरह आज़ादी और अधिकार शब्द पर हमला किया है, उनकी बात करने वालों को गद्दार और एंटी नेशनल की कैटगरी में डाला है, आज़ादी की बात करने वालों को आज़ादी गैंग कहा गया, हमें याद रखना चाहिए कि मीडिया की आज़ादी का मतलब सबके लिए एक समान नहीं है. आठ साल से इस देश में प्रधानमंत्री की एक भी खुली प्रेस कांफ्रेंस नहीं हुई है, राष्ट्रपति का चुनाव हो गया, उम्मीदवारों में एक ही उम्मीदवार का इंटरव्यू छपता रहा. क्या गोदी मीडिया के किसी भी संपादक को यह बेचैनी हुई कि उम्मीदवार का इंटरव्यू होना चाहिए. ताकि उनकी बातों के बहाने जनता भी राष्ट्रपति चुनाव में हिस्सा ले सके. ऐसा लग रहा है कि यह चुनाव केवल विधायकों और सांसदों के बीच का मामला है. इस चुनाव में जनता के पास यही तो तरीका है वह उम्मीदवारों की कही बातों को लेकर बहस करे, विचार करे. सुप्रीम कोर्ट ने लिखने से मना नहीं किया है, लेकिन लिखने के लिए सवाल पूछना ज़रूरी है जिसे पत्रकारों ने बंद कर दिया है.
पत्रकार जानते हैं कि आज के भारत में लिखने की नौबत नहीं आती हैं. ख़बरें ऐसे छपती हैं जैसे कहीं और लिख कर भेजी गई हों. हिसाब से लिखना आज की पत्रकारिता हो गई है. कई पत्रकारों ने खबरों को खोजना ही बंद कर दिया है, सब ANI की बाइट ट्विट करते रहते हैं, मुख्यधारा के मीडिया में खोज कर लाई गई खबरें अब कम छपती हैं. ऐसा लगता है कि प्रेस रिलीज़ से ही सारा अखबार निकल गया है. द वायर,स्क्रोल, न्यूज़लौंड्री, कैरवान और आर्टिकल 14 न हो तो पता ही न चले कि प्रेस रिलीज़ के अलावा भी ख़बर होती है. आप ट्विटर पर पत्रकारों को देखिए, इनकी खोज कर लाई गई खबरों को ट्विट करने तक से बचते हैं.
कल से लेकर आज तक एक ही अच्छी बात हुई है. गोदी मीडिया के मालिक और संपादक पैदल चल कर सुप्रीम कोर्ट नहीं गए, क्या पता एक दिन चले भी जाएं कि हम तो गोदी मीडिया हैं, हम तो लिखने पर रोक लगा चुके हैं. आपने यह रोक क्यों हटाई है? इससे गोदी मीडिया में गलत संदेश जा सकता है, हमारे ऐंकर सच लिखने बोलने लगेंगे तो दिक्कत हो जाएगी. हमारा मकसद चीख चीख कर प्रोपेगैंडा करना है. सवाल करने वालों को गद्दार बताना है. दो चार ही पत्रकार हैं जो चाहते हैं कि लिखने पर रोक न हो. बाकी तो लिखने पर रोक के तहत ही पत्रकारिता कर रहे हैं और मज़े में कर रहे हैं. अगर गोदी मीडिया के ऐंकर सवाल करने लगेंगे तो देश के युवाओं को नफरत की घुट्टी कौन पिलाएगा. हमारी ही वजह से इस देश का युवा मुर्झाया हुआ है. उसे बर्बादी में भी आनंद आता है. तभी तो किसी को फर्क नहीं पड़ता कि बिहार के मगध यूनिवर्सिटी के दो लाख छात्रों का रिजल्ट साल भर से अटका है, उनका जीवन बर्बाद हो रहा है. इसलिए फिर से विचार कीजिए औऱ पत्रकारों को लिखने से मना कीजिए.
सुप्रीम कोर्ट ने ज़ुबैर के मामले में कहा कि पत्रकार को लिखने से नहीं रोक सकते लेकिन सूचना प्रसारण मंत्री का एक बयान दिलचस्प है. आज का ही है. पिछले दो साल में हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने कई बार चैनलों के कार्यक्रमों के बारे में कहा है कि सांप्रदायिक ज़हर फैलाया जा रहा है. जब कोरोना को तबलीग जमात से जोड़ा गया तब बांबे हाई कोर्ट की टिप्पणी देख लीजिए, जब एक चैनल पर यूपीएससी जिहाद चला तब सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी देख लीजिए. क्या तब कानून या सूचना मंत्रालय ने कोई कार्यवाही की थी, इनके बारे में जानने का प्रयास किया था?
"यह भी जानना जरुरी है कौन फैक्ट चेकर है और कौन फेक्ट चेक के पीछे रहकर समाज में तनाव खड़ा करने का प्रयास कर रहा है. उन पर कोई शिकायत करता है तो कानून के हिसाब से उसपर कार्यवाही होती है"
सूचना प्रसारण मंत्रालय को पता है कि कौन समाज में तनाव फैला रहा है. अप्रैल माह में दिल्ली के जहांगीरपुरी मामले के कवरेज को लेकर सूचना प्रसारण मंत्रालय की ही एक एडवाइज़री है, जिसमें साफ कहा गया है कि न्यूज़ चैनल सांप्रदायिक विद्वेष फैला रहे हैं. तब इन चैनलों का नाम क्यों नहीं लिखा गया, तब क्यों नहीं इनके बारे में जानना ज़रूरी समझा गया. आज सूचना प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने राज्य सभा में एक लिखित जवाब दिया है कि देश में कितनी बार इंटरनेट बंद किए जाते हैं इसका डेटा केंद्र सरकार नहीं रखती है.
राष्ट्रपति के पद के लिए द्रौपदी मुर्मू का चुना जाना आदिवासी समाज के इन लोगों के लिए भी बड़ी खबर है. पांच साल तक जेल में रहने के बाद 113 लोगों को रिहा किया गया है. एक की मौत जेल में ही हो गई. 121 लोगों पर माओवादी संगठनों से संबंध होने के आरोप में UAPA की धारा लगा दी गई थी. इतनी संख्या में आदिवासी को उठाकर पांच साल के लिए जेल में बंद कर दिया जाता है, छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट और NIA कोर्ट से ज़मानत तक नहीं मिलती है. पिछले हफ्ते NIA कोर्ट ने इन सभी को बरी कर दिया क्योंकि सबूत नहीं थे. 2017 में छत्तीसगढ़ के सुकमा ज़िले में CRPF के 25 जवानों की हत्या हो गई थी, इसके आरोप में 6 गांवों के 121 आदिवासियों को गिरफ्तार किया गया. इनमें से 15 आरोपियों ने बताया कि पुलिस ने कभी उनका बयान तक नहीं लिया और वे जेल में पांच साल सड़ाए गए. ये हाल इस देश में जांच का।जवानों को भी इंसाफ नहीं मिला और बेकसूर आदिवासियों के साथ नाइंसाफी हो गई. यह कोई पहली घटना नहीं है, ऐसी अनेक घटनाएं आपको मिल जाएंगी. उम्मीद है पांच साल बाद रिहा हुए ये बेकसूर आदिवासी भी द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने पर राहत महसूस कर रहे होंगे.
यह कोई रहस्य नहीं है कि तथाकथित नेशनल मीडिया आदिवासी क्षेत्रों की खबरों को कितना छापता या दिखाता है, सिर्फ यही नहीं,उनके जंगलों और जीवन को कैसे विकास का कच्चा माल समझता है. द्रौपदी मुर्मु के चुनाव ने एक मौका तो दिया ही है कि उनके बहाने आदिवासी इलाकों की खबरों पर बात हो. उनका राष्ट्रपति बनना इसलिए भी महत्वपूर्ण है. आदिवासी समाज के किसी भी नौजवान को माओवादी घोषित कर देना कितना आसान है, इसे अगर आप नहीं जानते तो फिर आप कुछ नहीं जानते हैं. सिर्फ उन्हें ही नहीं बल्कि जो भी आदिवासी समाज के हकों के लिए लड़ता है चाहें वो विनायक सेन हों या सुधा भारद्वाज उन्हें माओवदी बताने में किसी का कुछ नहीं जाता.
आदिवासी समाज के साथ हो रही इसी नाइंसाफी से लड़ने के लिए सुधार भारद्वाज ने अमरीका की नागरिकता छोड़ दी. नाइंसाफियां कैसी कैसी थीं।आदिवासियों को उनकी ज़मीन से बेदखल किया जाता है, महिलाओं के साथ बलात्कार होते हैं, माओवादी पकड़ कर किसी को भी जेल में बंद कर दिया जाता है. इसी के खिलाफ लड़ने तीस पैंतीस साल पहले सुधा भारद्वाज छत्तीसगढ़ आती हैं. अगस्त 2018 में भीमा कोरेगांव केस में एलगाार परिषद की सबा में भड़काऊ भाषण देने और इसके पीछे माओवादियो के हाथ होने के आरोप में गिरफ्तार कर ली जाती हैं. तीन साल तक जेल में रहने के बाद रिहा होती हैं.
आदिवासी को माओवादी बता देना, उनकी बात करने वालों को माओवादी बता देना यह मुख्यधारा और सिस्टम की सोच का हिस्सा बन चुका है। द्रौपदी मुर्मू की जीत इन सब सवालों पर लौटने का मौका देती है. उम्मीद की जानी चाहिए कि उनके राष्ट्रपति बनने पर आदिवासी समाज को देखने का नज़रिया समाज और सिस्टम के भीतर बदलेगा. 2015 में झारखंड की राज्यपाल बनी थीं. हेमंत सोरेन दिसम्बर 2019 में मुख्यमंत्री बने. उसके पहले जब बीजेपी की सरकार थी तब राज्यपाल के रुप में द्रौपदी मुर्मू ने किस तरह के एक्शन लिए थे, इसकी एक झलक पुरानी रिपोर्ट में मिलती है. हमने केवल प्रभात खबर में छपी खबरों का चयन किया है.
30 अगस्त 2017 की यह खबर देखिए. मैं गर्वनर विद द डिफरेंस हूं. मैं समाज के अंतिम व्यक्ति की समस्या से द्रवित हो जाती हूं. यही कारण हैं कि मैं अस्पताल व छोटे-छोटे स्कूल का दौरा करती हूं और बच्चों को मोटिवेट करती हूं. यह खबर 5 जुलाई 2018 की है, राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू ने कहा कि भूमि अधिग्रहण बिल को ठीक से पढ़ लें. आदिवासियों की ज़मीन लेने जैसी कोई बात नहीं है, इसमें शेड्यूल एरिया को टच नहीं किया गया है. 3 अप्रैल 2018 की खबर भी महत्वपूर्ण है. तब झारखंड में पत्थल गड़ी आंदोलन चल रहा था. गांव के आदिवासी अपनी ज़मीन पर अपना हक मांग रहे थे. सरकारी योजनाओं का विरोध कर रहे थे. उनका कहना था कि अनूसूचित क्षेत्र में कोई भी काम राज्यपाल की अनुमति से ही होगा, और इन कामों को राज्यपाल ने अनुमति नहीं दी है तब इस आंदोलन के संदर्भ में राज्यपाल बैठक बुलाती हैं. खबर के मुताबिक राज्यपाल सभी को अनुसूचित क्षेत्रों में संवैधानिक प्रावधान और गवर्नर के अधिकार व उनकी ओर से किये गये कार्यों की जानकारी देंगी. बैठक में आमंत्रित लोगों से भी उनका पक्ष जाना जायेगा.
यह सही है कि द्रौपदी मुरमू पत्थलगड़ी आंदोलन के खिलाफ थी. राष्ट्रीयता के खिलाफ मानती थीं लेकिन आदिवासी राज्यपाल के रूप में उनकी जवाबदेही दूसरे राज्यपालों से ज्यादा है इसे लेकर सजग थी. इसलिए जब भी सवाल उठा कि पांचवी अनुसूचि का पालन नहीं हो रहा है, राज्यपाल संवाद करती हैं, अपना पक्ष रखती हैं, आश्वासन देती हैं. यह खबर फरवरी 2020 की है. राज्यपाल के रूप में द्रौपदी मुर्मू ने झारखंड के गुदड़ी प्रखंड का दौरा किया था. वहां नरसंहार की घटना हुई थी. राज्यपाल ने लोगों से मुलाकात की थी और लोगों ने पत्थलगड़ी समर्थकों पर प्रतिबंध लगाने की मांग की थी. 30 जून 2019 की यह खबर भी प्रभात खबर में छपी है.
महान क्रांतिकारी सिदो कान्हू की प्रतिमा पर माल्यार्पण करने के बाद द्रौपदी मुर्मू ने कहा कि हूल के इतिहास को फिर से लिखे जाने की ज़रूरत है. 1857 के पहले की इस क्रांति की याद को पूरे देश में सम्मान मिलना चाहिए. यह खबर सितंबर 2018 की है,इसके मुताबिकराज्यपाल द्रौपदी मुर्मू ने राजधानी सहित राज्य में बिगड़ रही विधि व्यवस्था से नाराज़ होकर राज्य के डीजीपी को तलब करती हैं. उसके बाद डीजीपी आदेश देते हैं कि यौन शोषण के मामले में एसएसपी 30 दिनों में जांच पूरी करेंगे। 45 दिनों में चार्जशीट दाखिल हो जानी चाहिए. अप्रैल 2018 में एक फ्लाई ओवर के निर्माण के लिए राजभवन की ज़मीन देने से इंकार कर दिया था. ये दोनों की खबरें तब की हैं जब झारखंड में बीजेपी की सरकार थी.
राज्य में बीजेपी की सरकार के सामने राज्यपाल के रुप में द्रौपदी मुरमू से जुड़ी ये खबरें उन्हें समझने का अच्छा मौका देती हैं. पत्रकारों पर पुलिस लाठी चार्ज करती है तो वे रांची प्रेस क्लब के प्रतिनिधियों से मिलती हैं और मुख्यमंत्री से बात करने का आश्वासन देती है. छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट और संथाल परगना टेनेंसी एक्ट में संशोधन हुआ था. द्रौपदी मुर्मू ने इस पर तुरंत मंज़ूरी नहीं दी.
आज द्रौपदी मुरमू का दिन है, उनकी जीत ऐतिहासिक है लेकिन आज का ही दिन यह जानने का है, राज्यपाल के रुप में वे कैसी प्रशासक थीं। अफसोस कि राष्ट्रपति पद के दौरान उनका इंटरव्यू या भाषण सुनने को नहीं मिला जबकि उनके पास कहने के लिए काफी कुछ रहा होगा। क्या खुद को गवर्नर विद द डिफरेंस कहने वाली द्रौपदी मुरमू प्रेज़िडेंट विद द डिफरेंस साबित होंगी, क्यों नहीं होगी.
प्रणब मुखर्जी काफी अनुभवी राजनेता थे. उनका अनुभव बहुत व्यापक था. उनके राष्ट्रपति बनने पर सभी को बहुत विश्वास था. लेकिन जीवन भर सत्ता के केंद्र में रहने वाले प्रणब मुखर्जी ने दो-दो बार ग़लत तरीके से राष्ट्रपति शासन पर मंज़ूरी दी, अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड के मामले में. अदालत ने प्रणब मुखर्जी के इन फैसलों को पलटते हुए कहा था कि राष्ट्रपति राजा नहीं होता है. इतने अनुभवी राजनेता होने के बाद भी प्रणब मुखर्जी संवैधानिक मामलों में कमज़ोर राष्ट्रपति साबित हुए. के आर नारायणन पहले दलित राष्ट्रपति बने थे. वह दिन भी ऐतिहासिक था. इसी तरह का.
कोचेरिल रामन नारायणन का राष्ट्रपति बनना भी भारतीय गणतंत्र का शानदार दिन था, ठीक इसी तरह जैसे द्रौपदी मुरमू का चुना जाना. प्रभाष जोशी ने उनके शपथ ग्रहण समारोह से लौट कर लिखा था कि सीढ़ियों के ऊपर बरामदा और बरामदे के ऊपर गुंबद औरउनके बीच जोधपुरी कोट पहने छोटे से लेकिन अपनी गरिमा में चुस्त खड़े नारायणन की उस मूरत ने मेरी आंखों में खुशी, गर्व और परिपूर्णता के आंसू भर दिए. महात्मा गांधी की एक इच्छा आखिर पूरी हुई. के आर नारायणन ने गरिमा ही नहीं, भूमिका भी शानदार निभाई थी. जब आई के गुजराल की सरकार ने यूपी में राष्ट्रपति शासन लगाने का प्रस्ताव भेजा तो यह पहला मौका था जब किसी राष्ट्रपति ने सरकार के प्रस्ताव को फिर से विचार के लिए लौटा दिया था. 1998 में स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या के भाषण के बाद के आर नारायणन ने पत्रकारों को काफी विस्तृत इंटरव्यू दिया था. हिन्दू राष्ट्रवादी राजनीति के उभार पर उनकी टिप्पणी को लेकर विवाद हुआ था.
मार्च 2000 में जब अमरीका के राष्ट्रपति भारत आए तब राष्ट्रपति ने विदेश मंत्रालय का तैयार भाषण से अलग अपना ही भाषण दे दिया. उस भाषण में अमरीका की आलोचना भी कर दी थी. राष्ट्रपति के रुप में के आर नारायणन और ए पी जे अब्दुल कलाम काफी सक्रिय रहे. दोनों ने गुजरात दंगों को लेकर अफसोस जताया था और निंदा की थी. भारत के हर राष्ट्रपति का कार्यकाल अलग होता है. 1998 में गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर दिया गया उनका एक भाषण याद आ रहा है.
1998 की बात आज भी उतनी ही सही है।सांप्रदायिकता सर पर सवार हो चुकी है. राष्ट्रपति को अपने समय की समस्याओं पर ज़रूर बात करनी चाहिए. देश उनकी तरफ देखता है, केवल संवैधानिक मामलों में नहीं बल्कि दूसरे मामलों में भी. हम इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि द्रौपदी मुरमू के जीवन का संघर्ष अनुसूचित जनजाति के करोड़ों लोगों का संघर्ष है. जिन इलाकों में दिल्ली कम जाती है, उन इलाकों से कोई दिल्ली के शिखर पर पहुंच रही हैं. कई बार देश इन्हीं प्रतीकों के सहारे चलता फिरता रहता है और अचानक किसी कोने से निकल कर आपके सामने खड़ा हो जाता है. स्वागत कीजिए.
आज एक तरफ द्रौपदी मुरमू राषट्रपति पद की जीत की तरफ बढ़ रही थीं तो दूसरी तरफ लंबे समय तक सत्ता के केंद्र में रहीं सोनिया गांधी ED के दफ्तर की तरफ जा रही थीं. कांग्रेस पार्टी आज सड़क पर थी. इस लड़ाई में भी संवैधानिक संस्थाओं की भूमिका दांव पर है. हमने आज की कहानी प्रेस की आज़ादी से शुरू की और अब जांच एजेंसी की आज़ादी और उसके विरोध की कहानी.
कांग्रेस संवैधानिक संस्थाओं के मिट जाने से बचाने के लिए सड़क पर थी तो बीजेपी दिखाना चाहती थी कि संवैधानिक संस्थाएं पूरी तरह सुरक्षित हैं. उन पर अभी भी आम आदमी की पकड़ है. बीजेपी ने द्रौपदी मुर्मू की जीत का जश्न मनाने की व्यापक तैयारी की थी. इसका नाम अभिनंदन यात्रा दिया गया है. परिमल की रिपोर्ट.
बड़ी-बड़ी ख़बरों के शोर में हर बड़ी ख़बर छोटी हो जाती है. ख़बरों की उम्र ही नहीं होती मगर कुछ ख़बरों की पीढ़ियां होती हैं. ये वैसी ख़बरें हैं, जिनके पूर्वज भी होते हैं,जिनके नाना-नानी भी होते हैं और नाती-पोते भी होते हैं. पोती भी कह सकता था लेकिन ऐसी खबरों में पोतों की ही करतूत होती है. तो आज हम आपको मिलाते हैं ऐसी ही ख़बरों की पीढ़ियों से.
तो आरोप लगाने के अगले दिन तक क्या हुआ कि नमामि गंगे प्रोजेक्ट में भयंकर करप्शन चल रहा है, क्या ED के अधिकारी नाव से लखनऊ चले गए और मां गंगा को पवित्र बनाने के काम में भ्रष्टचार करने वालों को धरने-पकड़ने लगे हैं? जलशक्ति मंत्री दिनेश खटीक ने करप्शन का आरोप लगाया है, वह भी नमामि गंगे में. दिनेश खटीक ने बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष से मुलाकात की और लखनऊ लौट गए हैं. लेकिन नमामि गंगे को लेकर जो आरोप लगाए गए हैं उनका क्या होगा? जिस दिन एक आदिवासी महिला के शिखर पर पहुंचने का जश्न मनाया जा रहा है उससे एक दिन पहले दलित मंत्री आरोप लगाते हैं कि अफसर उनकी नहीं सुनते. दलित समाज से होने के कारण उनकी कोई हैसियत नहीं है। आज भी बीजेपी के एक और दलित विधायक का पत्र वायरल हो रहा है। अभी भी देश के राष्ट्रपति पद पर रामनाथ कोविंद ही हैं। दलित समाज से आते हैं.
राष्ट्रपति अगर संविधान के संरक्षक हैं औऱ गंगा भारतीय संस्कृति की संरक्षक है. नमामि गंगे को लेकर कोई पहली बार भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगे हैं।गंगा सफाई अभियान से जुड़ी ख़बरों का एक भरा पुरा ख़ानदान हैं।उन सबको निकाल कर एक जगह रखेंगे तो आप देख पाएंगे कि गंगा के नाम पर क्या क्या होता है.
2018 में प्रो जी डी अग्रवाल यानी स्वामी सानंद ने गंगा में खनन को रोकने के लिए 111 दिनों तक अनशन रखा था। 112 वें दिन उनकी मौत हो गई थी. प्रो जी डी अग्रवाल ने राजनेताओं को गंगा का मुद्दा समझाया था. पत्रकारों को पढ़ाया था. लेकिन जब उनकी मौत हुई तो केवल 54 लोगों को अंतिम दर्शन करने दिया गया. अनशन के दौरान प्रो जी डी अग्रवाल ने प्रधानमंत्री मोदी को तीन पत्र लिखे थे. वे प्रधानमंत्री से उम्र में बड़े होने के नाते उन्हें तुम कह कर संबोधित करते थे. 24 फरवरी और 13 जून को पत्र लिखकर बता दिया था कि गंगा को लेकर उनकी मांगे नहीं मानी गईं तो वे 22 जून से उपवास पर बैठेंगे और प्राण त्याग देंगे. उन्होंने गंगा के लिए प्राण त्याग दिया. अपने आखिरी पत्र में जी डी अग्रवाल ने लिखा था.
मुझे आपसे उम्मीद थी कि आप गंगाजी के लिए दो कदम आगे बढ़ते हुए विशेष प्रयास करेंगे क्योंकि आपने आगे आते हुए गंगा पर अलग से मंत्रालय बनाया था लेकिन पिछले चार वर्षों में आपकी सरकार द्वारा किए गए सभी कार्य गंगाजी के लिए लाभकारी नहीं रहे, लेकिन उनके स्थान पर केवल कारपोरेट क्षेत्र और व्यावसायिक घरानों का लाभ देखने को मिला, अब तक आपने केवल गंगाजी से लाभ अर्जित करने के मुद्दे पर सोचा है, गंगाजी के संबंध में आपकी सभी परियोजनाओं से धारणा बनती है कि आप गंगाजी को कुछ नहीं दे रहे हैं.
राजनीति में प्रतीक बहुत ज़रूरी हैं. मां गंगा को भी चुनावी प्रतीक बनाया गया. भावुकता की प्रवाह पैदा हो गया. दलित राष्ट्रपति और आदिवासी राष्ट्रपति। इन प्रतीकों को आप यूं ही खारिज नहीं कर सकते, ये भी न हों, तो सारा भरोसा ही टूट जाएगा लेकिन उन सवालों को निकाल कर सामने रखिए जिन्हें उठाने से आपको डरा दिया गया है. जिसके लिए सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ता है कि हम पत्रकार को लिखने से कैसे रोक सकतेहैं. ब्रेक ले लीजिए.