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This Article is From Mar 16, 2015

आपको बेहतर प्रेमी बना सकती है 'बेदाद-ए-इश्क़ : रूदाद-ए-शादी'

Ravish Kumar, Saad Bin Omer
  • Blogs,
  • Updated:
    मार्च 16, 2015 17:20 pm IST
    • Published On मार्च 16, 2015 00:25 am IST
    • Last Updated On मार्च 16, 2015 17:20 pm IST

जिन लोगों को कुछ मशहूर हस्तियों की निजी ज़िंदगी में झांकने का शौक रहता है, उन्हें भी 'बेदाद-ए-इश्क़ : रूदाद-ए-शादी' नाम की इस किताब को पढ़ना चाहिए। पहली बार कब मिले, फिर क्या हुआ, किसने प्रपोज़ किया और हनीमून पर कहां गए इन सब तयशुदा सवालों के ज़रिए शादीशुदा ज़िंदगी में झांकना चुटकी भर का काम है। जैसे आप किसी ऑब्जेक्टिव सवालों के आगे टिक किए जा रहे हों, यह सोचते हुए कि कुछ तो तुक्के में भी सही हो ही जाएगा। इस किताब को पढ़ना प्रेम विवाहों के तमाम उतार चढ़ावों से गुज़रने जैसा है। जहां पहली बार मिलना और प्रपोज़ करने की रूमानियत की जगह ज़िंदगी का वह चेहरा नज़र आने लगता है, जो एक बार डरा भी देता है कि कलेजा नहीं है तो इश्क़ मत कीजिए।

बेदाद-ए-इश्क़ : रूदाद-ए-शादी किताब नहीं, एक दस्तावेज़ है जिसमें कई लोगों ने अपनी प्रेम कहानियों के बनने से लेकर टूटने तक की तकलीफ़देह दास्तानों को ख़ुद दर्ज किया है। अपने प्रेम को खुद की नज़र से देखना और उसे दुनिया भर के पाठकों के लिए लिखना उतना ही मुश्किल रहा होगा, जितना पहली बार अपनी मां या पिता को बताना कि मुझे यह लड़का अच्छा लगता है या यह लड़की अच्छी लगती है। ज़रूर कुछ लोगों ने सरसरी तौर पर अपनी कहानी लिखी हैं, लेकिन कुछ ने इतनी शिद्दत से कहानी लिखी है कि उससे पढ़ना खुद को कष्ट देने जैसा है। ऐसा कष्ट जिससे हम सब भागना चाहते हैं। उनकी प्रेम कहानी की हर घटना का ज़िक्र भले न हों मगर सबने ईमानदारी से इतना तो बता ही दिया है कि प्रेम के भीतर कितना कुछ घटता रहता है। जो लोग इस वक्त प्रेम में हैं या जो किसी भी वक्त प्रेम में हो सकते हैं उन्हें यह किताब पढ़नी चाहिए।

'जब हमारे कॉमरेड मित्रों सहित हम दोनों ने जातिवाद मुर्दाबाद के नारे लगाए तो हमारे भीतर कुछ सुलग रहा था... ऐसा लगा जैसे हमारी कल्पनाओं का वह समाज साकार होने जा रहा था, जिसे बनाने के लिए हम प्रतिबद्ध हैं। जब हम अपना साथी चुनते हैं तो समाज के लिए प्रतिपक्ष बन जाते हैं। ऐसे में हमारा परिवार भी समाज का ही साथ देता है।'

विभावरी और प्रियंवद की प्रेम कहानी में गोरखपुर वाया इलाहाबाद होते हुए जेएनयू के कैंपस तक एक लड़की को बाहरी स्पेस तो मिलता है, लेकिन विभावरी अपने घर के भीतर जब उस स्पेस की तलाश करती हैं जो एक दलित लड़की अपने माता-पिता से एक ब्राह्मण लड़के से शादी की लड़ाई लड़ने लगती है। दोनों की प्रेम कहानी को आप विभावरी की नज़र से ही पढ़ते हैं, क्योंकि प्रियंवद ने अपनी कहानी नहीं लिखी है। विभावरी बता भी देती हैं कि उनकी कहानी एकतरफा है। यह देखकर आश्चर्य होता है कि कैसे समाज अपनी सारी ताकतों का इस्तमाल प्रेम के खिलाफ करता है।

विभावरी और प्रियंवद की प्रेम यात्रा में समाज से संघर्ष तो है लेकिन व्यक्तिगत जीवन में एक बेहतर सामंजस्य भी है, जिसे देखकर बहुत लोग प्रेम विवाह के लिए प्रोत्साहित हो सकते हैं। बल्कि बिना इस प्रक्रिया से गुज़रे आप समाज की उन ताकतों को कभी समझ ही नहीं सकते जिन्हें आप बदलना चाहते हैं।

'कहने को प्रेम भी किया और जिससे प्रेम किया उसी से विवाह भी किया, उसी प्रेम के लिए घर से भाग कर गई और आखिर एक दिन उस प्रेम से भी भाग आई। लेकिन यह बार-बार का भागना किस बात से भागना था?'

देवयानी भारद्वाज और शिव की कहानी में आप बीकानेर से जयपुर नहीं आते, बल्कि कविता रचते रचते इस जोड़े के बीच से एक दिन कविता ही गायब हो जाती है। जब वह पूरी दुनिया से लड़कर अपना घर बसा लेते हैं तो जिसके भरोसे घर बसा है वह अपना मन कहीं और रमा लेता है। किसमें पता नहीं, लेकिन शिव यह बताना भी ज़रूरी नहीं समझता और एक दिन देवयानी और उनके दो बेटों की दुनिया से अलग हो जाता है। देवयानी शिव की गरिमा को ठेस पहुंचाएं बिना उसके दूर जाने की बात लिखती है, लेकिन यह कहानी बिना शिव के पक्ष के पूरी भी नहीं हो सकती।

बेदाद-ए-इश्क़ : रूदाद-ए-शादी की प्रेम कहानियां कम्युनिस्ट परिवारों के ढकोसलेपन से लेकर उन परिवारों के जातिगत अहंकार को खोलती हैं जो खुद दूसरी जातियों के कारण हाशिये पर धकेले जाने की शिकार रही हैं। कुछ कहानियां कॉमरेडों की हैं। आप उन कहानियों से गुज़रते हुए विचारधारा और समाजधारा की उलझनों में झांक सकेंगे।

देवयानी प्रेम में सब गंवा देती हैं जो इसी दौरान कुछ अच्छे दोस्तों को पा लेती हैं। बेहद जोखिम का काम है इस समाज में प्रेम करना। उससे भी ज्यादा मुश्किल काम है उससे गुज़रकर लिखना। देवयानी के लिए पत्थर के नीचे दबने जैसा रहा होगा अपनी इस कहानी को दबने से बची रह गईं उंगलियों से लिखना।

नवीन और पूनम की कहानी में फिल्मी टच तो है, मगर टीबी के दर्द से कराह रही पूनम को प्यार करते रहने के जुनून ने नवीन को कितना कुछ बदल दिया। पूनम वापस में ज़िंदगी में आई तो नवीन उसे नई ज़िंदगी देने लगा। लेकिन जाट परिवार की ज़्यादतियों को स्वाभाविक मानकर जीने वाला नवीन कभी अपने भीतर के अंतर्विरोधों को देख ही नहीं पाता अगर संध्या के ब्राह्मण पिता ने चतुराई से यह न कहा होता कि बेटा जाट लोगों से मुझे डर लगता है। वे लड़कियों को मारते हैं। तुम अपने पिता का फोन नंबर दे दो मैं उनसे बात कर लूंगा। नवीन यहीं से अपने भीतर झांकने लगता है। कुछ समय द पूनम नवीन के भीतर झांकने लगती है। उसका नवीन वाकई बहुत अच्छा है। शायद मुंहफट जाट है इसलिए भी बहुत अच्छा है।

अशोक कुमार पाण्डेय और नीलिमा चौहान ने इस पुस्तक को संपादित किया है। दखल प्रकाशन ने छापा है। यह किताब आपको प्रेम की वास्तविकताओं से परिचय कराती है। वेलेंटाइन डे से लेकर आर्ची कार्ड और फिल्मी गीतों में खपा दिए गए प्रेम की गाथाओं को बचाना ज़रूरी है। ताकि हम सिर्फ किसी को प्यार ही न करें या किसी से प्यार किये जाने की चाहत ही न रखें, बल्कि एक बेहतर प्रेमी भी बन सकें। पर इस किताब को प्रेमियों से ज्यादा उन्हें पढ़ना चाहिए जो समाज बनकर ऐसी प्रेम कथाओं को कुचलते हैं। शायद यह किताब उनके लिए हैं। इस किताब को पढ़ते हुए आपको किसी प्रकार का अपराधबोध हो तो लेखकों को माफ कर दीजिएगा। उन्हें पता नहीं है कि आप भी वैसे ही हैं।

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