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This Article is From Feb 23, 2016

यूपी में शुरू हुई मुस्लिम वोट पर हक जमाने की होड़

Ratan Mani Lal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 23, 2016 20:13 pm IST
    • Published On फ़रवरी 23, 2016 19:50 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 23, 2016 20:13 pm IST
क्या मुस्लिम समुदाय ने किसी भी चुनाव में अपने समर्थन देने के अधिकार को चुनने की जिम्मेदारी किसी एक शख्स को दे रखी है? भले ही ऐसा होना संभावित न लगे, लेकिन कम से कम उत्तर प्रदेश में तो ऐसे कई चेहरे उभरने लगे हैं जो प्रदेश के 2017 के चुनाव में अपने समुदाय का एकमुश्त समर्थन देने का दावा करते हुए बड़े-बड़े बयान दे रहे हैं।

चुनाव पूर्व के जाने-पहचाने घटनाक्रम के अंतर्गत सभी राजनीतिक दलों में पहले तो दलित वर्ग के प्रति प्रतिबद्धता दिखने की होड़ लगी और अब मुस्लिम समुदाय का एक वोट बैंक के रूप में उपयोग करने की संभावनाएं तलाशने का क्रम शुरू हो चुका है। उत्तर प्रदेश में चूंकि यह वर्ग पूरे प्रदेश में कई जगह चुनावी नतीजों को प्रभावित करता है इसलिए केवल राजनीतिक दल ही नहीं, बल्कि समुदाय के धार्मिक नेता भी अपने महत्व को दर्शाने में जुट गए हैं।

आज़म खान के एकाधिकार को चुनौती दे रहे मुस्लिम नेता
प्रदेश की सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी में तो यह जिम्मेदारी वरिष्ठ मंत्री मोहम्मद आज़म खान के हिस्से पहले से ही है, लेकिन अब उनके तथाकथित एकाधिकार को चुनौती देने के लिए अन्य राज्यों के मुस्लिम नेता भी प्रदेश में अपने उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। बीते दिनों हुए तीन उप-चुनावों में हैदराबाद के एआईएमआईएम नेता असदुद्दीन ओवैसी ने फैजाबाद के निकट बीकापुर में हुए एक उप-चुनाव में अपना उम्मीदवार उतारा और खुले तौर पर एक जनसभा में मुस्लिम और दलित वर्ग को साथ आने की अपील की। यही नहीं, उनका उम्मीदवार मुस्लिम न होकर एक दलित था, फिर भी उसे भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के प्रत्याशी से केवल 77 वोट कम मिले जो अपने आप में यह संकेत है कि मुस्लिम वर्ग नए विकल्प को अपनाने के बारे में सोच सकता है। ओवैसी ने अपनी प्रचार सभा के दौरान सभी राजनीतिक दलों पर हमला बोला, लेकिन बहुजन समाज पार्टी के बारे में कुछ न कहकर यह संकेत दिया है कि बीएसपी के साथ जुड़ने की संभावनाएं बरक़रार हैं।

बीकापुर में ओवैसी ने मजबूती का एहसास कराया
ओवैसी ने पिछले वर्ष हुए बिहार विधानसभा के चुनाव में बिहार के सीमांचल क्षेत्र में पहले 24 सीटों पर चुनाव लड़ने का दावा किया था लेकिन अंततः केवल 6 सीटों पर अपना उम्मीदवार उतारा। भले ही उनका कोई उम्मीदवार जीता न हो, लेकिन उनके ऊपर मुस्लिम वोट बांटने का आरोप जरूर लगा और कहा गया कि वे परोक्ष रूप से बीजेपी को फायदा पहुंचा गए। शायद इसी आरोप से बचने के लिए उत्तर प्रदेश के उप-चुनाव में उन्होंने मुस्लिम बहुल मुज़फ्फरनगर और देवबंद (सहारनपुर) में अपना उम्मीदवार नहीं उतारा और बीकापुर में अपनी मजबूती का एहसास करा गए।

वोटों पर हक जताने में मौलाना बुखारी भी पीछे नहीं
इसके बावजूद आज़म खान,  ओवैसी की चुनौती को कोई भाव न देकर उन्हें बीजेपी का एजेंट कहते आ रहे हैं। यही नहीं, मुस्लिम समुदाय के वोट पर हक जमाने के लिए हाल में लखनऊ पहुंचे दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम मौलाना बुखारी को भी आज़म खान ने आरएसएस के मोहन भागवत का एजेंट बता दिया। मौलाना बुखारी मुस्लिम मतदाताओं पर एकाधिकार का दावा करने वाले दूसरे शख्स हैं जो हर चुनाव के पहले लखनऊ आकर उत्तर प्रदेश की सरकार (चाहे वह किसी भी पार्टी की हो) पर मुस्लिम समुदाय को नज़रअंदाज करने का आरोप लगाया करते हैं। जैसा आज़म खान ने कहा, ' भले ही मौलाना बुखारी का काम है कि वे ख़ास मौकों पर चांद दिखने का ऐलान करते हैं, लेकिन इस आधार पर वे पूरे मुस्लिम वर्ग की राजनीतिक पसंद को प्रभावित करने का दावा कैसे कर सकते हैं?' यही बात बुखारी के दौरे के बाद शिया और सुन्नी वर्ग के धर्मगुरुओं ने भी कही। जहां शिया और सुन्नी धर्मगुरु अपने वर्ग के लोगों पर कुछ प्रभाव रखते हैं, वहीं मौलाना बुखारी साफ़ कहकर गए कि वे बदलते मिजाज़ के अनुरूप अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता भी बदलते रहते हैं।

2012 के विधानसभा चुनाव में अयूब ने दिखाई थी ताकत
मुस्लिम वर्ग का प्रतिनिधित्व करने को पिछले दशक में उत्तर प्रदेश में पीस पार्टी मैदान में आई थी जिसके सर्वेसर्वा डॉ. अयूब ने पूरे समुदाय को एक झंडे तले लाने का दावा किया था। उनकी पार्टी को 2012 के विधानसभा चुनाव में 2 फीसदी से ज्यादा वोट मिले थे और उनके चार विधायक जीत भी गए थे। भले ही चुनाव में जीत सपा को मिली, लेकिन कुछ जगहों पर नुकसान बीएसपी को हुआ। यह देखने की बात है कि अगले चुनाव में क्या ओवैसी की पार्टी भी यही भूमिका निभाएगी। वैसे तो ओवैसी किसी भी मोर्चे की संभावना से इनकार करते आये हैं, लेकिन यदि वे बीएसपी के साथ कोई परोक्ष समझौता करते हैं तो दलित-पिछड़ा-मुस्लिम वोटों के बंटने का नुकसान सपा को ही होगा।

बहुत छोटे हिस्से पर होता है धर्मगुरुओं की अपील का असर
मुस्लिम मामलों के जानकार और सेंटर फॉर ऑब्जेक्टिव रिसर्च एंड डेवलपमेंट के डायरेक्टर अतहर हुसैन का कहना है कि बुखारी और अन्य धर्मगुरुओं की अपील का असर आमतौर पर मुस्लिम वर्ग के बहुत छोटे हिस्से पर होता है और उत्तर प्रदेश में पिछले कई चुनावों से यह भी संकेत मिलते हैं कि मुस्लिम मतदाता किसी एक व्यक्ति के कहने पर नहीं, बल्कि किसी एक पार्टी के खिलाफ या समर्थन में वोट देते आये हैं। उदाहरण के तौर पर, पिछले लोकसभा चुनाव में इमाम बुखारी ने कांग्रेस को समर्थन देने का ऐलान किया था, लेकिन इन चुनावों में कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा था।

एसपी में चलती रही है दूसरे मुस्लिम नेताओं को आगे बढ़ाने की चर्चा
पीस पार्टी द्वारा इधर कुछ दिनों से अख़बारों में विज्ञापन और कुछ शहरों में होर्डिंग लगाकर उनके अस्तित्व की जानकारी फिर दी जा रही है, लेकिन उनको समर्थन देने से पहले यह तथ्य आड़े आ जाता है कि उनके चार विधायक पार्टी छोड़कर अन्य पार्टियों में जा चुके हैं। सपा के लिए वैसे तो मुस्लिम समर्थन बनाये रखने का जिम्मा आज़म खान पर ही है, लेकिन वे भी किसी न किसी तौर पर पार्टी या सरकार से अपनी नाराज़गी का इज़हार कर ही देते हैं। शायद इसीलिए पार्टी में उनके विकल्प के रूप में एक के बजाए कई मुस्लिम नेताओं को आगे बढ़ाने की चर्चा भी होती रहती है। ऐसे में अगर मुस्लिम वर्ग एक बार फिर किसी एक नेता या पार्टी की अपील पर ध्यान न दें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

रतन मणिलाल वरिष्ठ पत्रकार हैं...

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