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This Article is From Sep 20, 2016

यूपी में सपा में कलह और निकले पांच सवाल..

Ratan Mani Lal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    सितंबर 20, 2016 19:11 pm IST
    • Published On सितंबर 20, 2016 18:11 pm IST
    • Last Updated On सितंबर 20, 2016 19:11 pm IST
उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनाव के कुछ महीनों पहले ही सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी में हुई कलह से एक बार फिर परिवार-केन्द्रित राजनीति की सीमाएं उजागर हुईं हैं. सच तो यह है कि समाजवादी पार्टी के यादव परिवार में इस तरह की फूट की उम्मीद किसी को थी नहीं, क्योंकि यह माना जाता था कि पुरोधा मुलायम सिंह यादव कुनबे को पूरी तरह से नियंत्रण में रखते हैं. लेकिन इतिहास ने, एक बार फिर, अपने को दोहरा ही दिया है.

एक महीने पहले तक युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और उनकी उपलब्धियों का बखान करते उनकी यूथ ब्रिगेड के जोश से लगता था कि समाजवादी पार्टी 2017 के चुनाव में मजबूती से बाकी पार्टियों से आगे रहेगी, लेकिन अब पार्टी के अन्दर दो स्पष्ट और अलग खेमों के उजागर होने के बाद इस संभावना पर सवाल उठने लगे हैं. सितम्बर के दूसरे हफ्ते में दो मंत्रियों को बर्खास्त किये जाने के बाद शुरू हुई यह जंग पार्टी में दो सत्ता के केंद्रों के टकराव का रूप धारण कर चुकी है और  चुनाव प्रचार से लेकर परिणाम तक इसके समाप्त होने की कोई संभावना नहीं दिखती क्योंकि इसके मूल मे कोई सिद्धांत नहीं बल्कि पार्टी पर एकाधिकार बनाने की लालसा है जिसमें अखिलेश यादव और उनके चाचा शिवपाल यादव, दोनों ही किसी भी हद तक जा सकने का प्रमाण दे चुके हैं.

जिन दो मंत्रियों को बर्खास्त करके अखिलेश यादव ने अपने तथाकथित भ्रष्टाचार-विरोधी मंतव्य का संदेश देना चाहा था, उनमें से एक, पूर्व खनन मंत्री गायत्री प्रजापति को फिर से मंत्री बनाने का निर्णय लेकर उस मंतव्य की तो इतिश्री हो ही गई और पूरे प्रकरण के निदान के लिए पार्टी अध्यक्ष ‘नेताजी’ मुलायम सिंह यादव के फार्मूले के तहत निकाले गए समाधान के बाद जिस तरह से शिवपाल यादव ने एकएक करके अखिलेश के करीबियों को पार्टी से बाहर का ही रास्ता दिखाया है, उससे साफ़ है कि अधिकारों के प्रश्न पर खिंची हुई तलवारें बहुत जल्दी म्यान में वापस जाने वालीं नहीं हैं.

देश के इस बड़े और राजनीतिक तौर पर संवेदनशील प्रदेश की राजनीति पर इस प्रकरण से कई सवाल उठे हैं. लेकिन ये पांच सवाल सबसे सार्थक और तार्किक हैं. हो सकता है अगले कुछ महीनों में इन सबका जवाब भी मिल जाए.

पहला सवाल : क्या  2012 में मिली भारी जीत के बाद मुलायम ने अखिलेश को मुख्यमंत्री बना गलती की थी?
चुनाव नतीजों के बाद मार्च 2012 में जब यह निर्णय लिया गया तो शुरू के असमंजस के बाद यह आम राय बनी थी कि अखिलेश समाजवादी पार्टी के पुराने नेताओं से अलग हैं, उनकी सोच युवा, आधुनिक और वैश्विक है जो मुलायम के अंग्रेजी-विरोधी और कंप्यूटर-विरोधी विचारों से उलट है. जल्द ही उन्होंने अपने मृदु स्वभाव और सबको साथ लेकर चलने की प्रवृत्ति से विपक्षियों को भी प्रभावित किया था और लगभग सभी दलों के नेताओं ने किसी न किसी समय पर अखिलेश की तारीफ की थी. यह बात अलग है कि सरकार और प्रशासन पर स्थापित सभी लोग उम्र और अनुभव में उनसे वरिष्ठ थे जिसके कारण उन पर कमजोर मुख्यमंत्री होने के आरोप तो लगे ही, यह भी कहा जाने लगा कि प्रदेश में साढ़े-चार मुख्यमंत्री हैं. इशारा मुलायम सिंह यादव, शिवपाल, मोहम्मद आज़म खान और एक वरिष्ठ अधिकारी की ओर था, और बाकि बचा आधा स्वयं अखिलेश की ओर.

लेकिन ताजे घटनाक्रम के दौरान मुलायम ने अखिलेश के मुख्यमंत्री बनाये जाने को अपनी गलती बताते हुए यहां तक कहा कि शिवपाल की सलाह अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाने की नहीं थी। उन्होंने यहां तक कहा कि अखिलेश के मुख्यमंत्री रहते हुए 2014 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा था.

दूसरा सवाल: क्या अखिलेश के मुख्यमंत्री रहते समाजवादी पार्टी का नुकसान हुआ?
पिछले चार सालों में कई बार मुलायम सार्वजनिक तौर पर कह चुके हैं कि पार्टी व सरकार में सब कुछ ठीक नहीं है और कई लोग असामाजिक, गैर कानूनी काम कर रहे हैं जिन पर अखिलेश का नियंत्रण नहीं है. कुछ दिन पहले शिवपाल ने भी साफ़ तौर पर कहा था कि पार्टी के कुछ लोग जमीन पर कब्ज़ा करने और अन्य गैरकानूनी कृत्यों में लिप्त हैं, जिन पर लगाम न लगाये जाने से वे असंतुष्ट हैं और इस्तीफ़ा दे सकते हैं. मुलायम के सुलह फार्मूले के बाद जब शिवपाल को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया तो उन्होंने सबसे पहले पार्टी के वरिष्ठ नेता राम गोपाल यादव के विधायक भांजे अरविन्द यादव, और अखिलेश के करीबी तीन विधायकों समेत नौ लोगों को पार्टी से निष्कासित कर दिया. यदि ये लोग पार्टी विरोधी और अन्य अवांछित गतिविधियों में लगे थी, तो चार सालों तक इन पर कोई कार्रवाई नहीं की गई, क्या सिर्फ इसलिए कि वे सभी अखिलेश खेमे के थे.

तीसरा सवाल: क्या भ्रष्टाचार का आरोप महज खेमेबाजी या व्यक्तिगत प्रतिबद्धता के कारण लगाया जाता है?
अखिलेश ने अपने कार्यकाल में एक दर्जन से ज्यादा मंत्रियों को तमाम तरह के आरोपों के कारण मंत्रिमंडल से निकाला, लेकिन उनमे से कई बा-इज्जत वापस लिए गए, और उनकी वापसी के पीछे उनकी अखिलेश या शिवपाल खेमे से नजदीकी को बताया गया। ऐसे मंत्रियों में पंडित सिंह, बलराम सिंह यादव और गायत्री प्रजापति शामिल हैं. इनके बर्खास्त किये जाने पर पार्टी और सरकारी सूत्रों द्वारा ही उनकी करतूतों के किस्से मीडिया तक पहुंचाए जाते थे, लेकिन प्रतिद्वंद्वी खेमे के हाथ-पैर चलाने के बाद इनकी वापसी हुई. क्या इन सबको गैर-अखिलेश खेमे में शामिल होने के कारण निकाला गया था और दूसरे खेमे के दबाव बनाते ही उन पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप गायब हो जाते थे.

चौथा सवाल : मुलायम सिंह यादव की सलाह और सुझाव कोई टाल नहीं सकता, ऐसा पार्टी में सब कहते हैं. अखिलेश (और बाद में शिवपाल का भी) का यह कहना है कि जो भी फैसले इन्‍होंने लिए, मुलायम की सम्मति से लिए गए. ऐसे में किसी को भी मुख्यमंत्री बनाने का क्या अर्थ है.
चाहे वह मंत्रियों की नियुक्ति हो या उन्हें हटाना, चाहे वह प्रत्याशियों का चयन हो या अनुशासनात्मक कार्रवाई, सभी फैसलों के बाद यह जरूर स्पष्ट कर दिया जाता है कि यह फैसला नेताजी मुलायम से बात करके लिया गया है. यही नहीं, किसी भी अप्रिय स्थिति उत्पन्न होने पर भी उसका समाधान मुलायम से चर्चा कर ही निकाला जाता है.
ऐसे में मुख्यमंत्री द्वारा अपने विवेक के निर्णय लेने की क्षमता का क्या अर्थ है. केंद्र में पूर्व यूपीए की सरकार के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर यह आरोप लगाने का क्या अर्थ रह गया कि वे सभी फैसले कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से राय लेकर करते थे या समाजवादी पार्टी किस अधिकार से कह सकती है कि भारतीय जनता पार्टी की किसी भी सरकार में फैसले राष्ट्रीय स्वयवंसेवक संघ के सरसंघ चालक की सलाह से लिए जाते हैं.

पांचवा सवाल : सत्तारूढ़ पार्टी की अंतर-कलह ऐसे समय पर हुई है जब चुनाव कुछ महीनों बाद होने हैं. कलह से सबका नुकसान होता है और यह अखिलेश भी जानते हैं और शिवपाल भी. इसके बावजूद यदि स्थिति संभल नहीं रही तो क्या पार्टी में टूट होने, और एक धड़े का किसी और पार्टी के साथ जाने की सम्भावना है.
इतना सब हो जाने के बाद भी समाजवादी पार्टी के अधिकतर लोग यही कह रहे हैं कि अगला चुनाव अखिलेश के चेहरे पर लड़ा जायेगा, हालांकि शिवपाल ने ऐसा कुछ होने की सम्भावना से इनकार किया है, और यहां तक खबरें हैं कि अखिलेश ने भी कहा है कि वे केवल अगले चुनाव में पार्टी की जीत सुनिश्चित कराना चाहते हैं और उसके बाद मुख्यमंत्री कौन होगा यह पार्टी का निर्णय है. चुनाव में यदि सपा की जीत होती है तो जाहिर है इसके दोनों अर्थ निकाले जायेंगे,  एक- जीत अखिलेश की उपलब्धियों की वजह से मिली, दो- जीत शिवपाल की प्रचार और प्रत्याशी चयन की समझबूझ की वजह से मिली.

ऐसे में दोनों ही अपने आप को मुख्यमंत्री पद का दावेदार समझेंगे और उनके समर्थक इस तरह की मांग के लिए प्रदर्शन आदि करेंगे. ऐसे में यदि कोई अन्य  पार्टी, जिसके पास बहुमत से कुछ ही कम सीटें हो, ऐसे धड़े का साथ दे सकती है जिसके नेता को मुख्यमंत्री बनने का मौका न मिल रहा हो. यह कोई बहुत आश्चर्यजनक सम्भावना नहीं है क्योंकि उत्तराखंड, अरुणाचल समेत कई राज्यों में ऐसा होता आया है और एक पार्टी में असंतोष का फायदा दूसरी पार्टी उठाती ही है.

वैसे भी समाजवादी पार्टी में, जरूरत पड़ने पर और समय की मांग पर, कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी या बहुजन समाज पार्टी का साथ देने का रिवाज़ रहा ही है...

रतन मणिलाल वरिष्ठ पत्रकार हैं...

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