ऐसा कुछ हमने पिछले साल सिंहस्थ के आयोजन में देखा था. हमने देखा कि किस तरह केवल सुविधाएं, संसाधन जुटा देने भर से पांच-छह करोड़ वाले एक समाज के आयोजन को सरकार अपना आयोजन करार दे देती है. इसी आयोजन के नाम को यदि सिंहस्थ-कुंभ या कुछ और बदलकर किसी और जगह कर दिया जाए और फिर सरकार से कहा जाए कि करो, अब करो, तो शायद सरकार का दम फूल जाएगा. उसे बस में जबरन ठूंस-ठूंसकर भाड़े की भीड़ इकट्ठी करनी होगी. ऐसी ही कोशिश हम छत्तीसगढ़ में देख भी चुके हैं, जहां सरकार धर्मस्थल राजिम में हर साल कुंभ का आयोजन करने की असफल कोशिश कर रही है. यहां तक कि साधु-संतों को सुविधाओं के साथ-साथ नगद भुगतान के भी आरोप लगे हैं, लेकिन कुंभ संभव नहीं हो पा रहा, क्यों...? क्योंकि इसमें समाज की भूमिका नहीं है.
दूसरा उदाहरण फिर आ रहा है कि सरकार एक नदी को बचाने की सरकारी कोशिश कर रही है, जिसे विश्व का सबसे बड़ा नदी संरक्षण अभियान बताया गया. नर्मदा की सेवा का झंडा-डंडा, बैनर, मंडली-टोली के साथ मुख्यमंत्री स्वयं पिछले डेढ़ सौ दिनों से एक यात्रा में न केवल खुद शामिल रहे, उनकी पूरी मशीनरी इस सेवा यात्रा में लगी रही. देश के प्रधानमंत्री ने समापन करते हुए इस यात्रा को ऐतिहासिक करार दिया. ऐसी पहल का स्वागत किया जाना चाहिए, उनकी मंशा और नेकनीयत पर भी कोई सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए, परंतु नदी के मूल सवालों को छुए बिना यह तय कर पाना मुश्किल है कि यह मंशा, नीयत और नीति कहां तक सफल हो पाएगी.
वह इसलिए भी, क्योंकि नर्मदा के उन मूल सवालों से यह यात्रा किनारा कर जाती है, जिनकी चर्चा केवल नर्मदा घाटी, या नर्मदा प्रदेश मध्य प्रदेश में ही नहीं, संसारभर में होती है. नर्मदा सेवा यात्रा बनाम नर्मदा बचाओ आंदोलन के इस विरोधाभास में नर्मदा बैचेनी से न बहे, तो क्या करे! आखिर कैसे पर्यावरण के इतने बड़े मसले को और एक बहती नदी को बड़े-बड़े तालाबों में तब्दील कर देने की कहानी क्या किसी से छिपी है, इस पर सरकार ने अपना रवैया अब तक स्पष्ट नहीं किया है, नर्मदा घाटी में रहने वाली नर्मदा की संतानों के विस्थापन और उनकी आजीविका का मसला तो खैर अब एक अलग बातचीत है.
दूसरा मसला अवैध रेत खनन का है, जिस पर तमाम मीडिया से लेकर आंदोलन तक तो चेता ही रहे हैं, आम जन को भी यह सब सामान्य-खुली आंखों से दिख ही रहा है. इस पर भी नर्मदा के सेवादारों का गोलमोल जवाब है, क्यों...! आखिर क्यों इसी नर्मदा के किनारे सेवादार सरकार परमाणु बिजली संयंत्र लगाने की अनुमति दे रही है, जिस पर कई संगठन अंदेशा जता रहे हैं कि यह नर्मदा के पर्यावरण के अनुकूल नहीं है. आखिर ऐसे कैसे हो जाता है कि नर्मदा किनारे उसका दोहन करने के लिए बहुराष्ट्रीय शीतल पेय कंपनी को सरकार प्लांट लगाने की बाकायदा अनुमति देती है, उसके लिए जमीन का इंतज़ाम भी कर देती है. ऐसी किसी सेवा यात्रा निकालने पर किसी को भी क्या आपत्ति हो सकती है, लेकिन किसी भी रोग के इलाज से पहले उसका उचित परीक्षण करवा लेना चाहिए, वरना ऐसी स्थितियां घातक होती जाती हैं. गंभीर बात तो यह है कि रोग का परीक्षण करने वाले पर्यावरणविद, नेता-अभिनेता और सरकारी मेहमाननवाज़ी लूटने वाले तमाम लोग सरकार की मेहरबानी के तले नर्मदा सेवा यात्रा से कई बरस पहले से उठाए जा रहे इन सवालों से कन्नी काट जाते हैं. अहंकार तो उन्हें भी है.
यह एक किस्म का अहंकार है. प्रकृति आदमी के इस अहंकार को एक मिनट में ठीक कर देती है, बैलेंस कर देती है. मनुष्य प्रकृति को बचा पाएगा, यह बहुत बड़ा दावा लगता है, इसलिए नर्मदा के बहाने पर्यावरण बचाने भर का दावा किसी टोटके जैसा लगता है. सरकार भी समझती है कि वह बचा लेगी, खुद अपने बूते बचा लेगी, इसके लिए तमाम जतन के साथ एक जतन यह भी हो जाता है कि नदी को जीवित मनुष्य का दर्जा दिया जाए. जिस नदी को लोग अपने प्राणों का आधार सदियों से मानते आ रहे हों, उस समाज में भी ऐसा कोई अधिकार एक और टोटका है. उसे मनुष्य से भी बढ़कर दर्जा दिया जाता रहा है, उसे खतरा तो असल में उन लोगों से है, जो खुद संवेदनशील और ज़िम्मेदार मनुष्य नहीं हैं, दुख इसी बात का है कि सरकार इन्हें पहचानते हुए भी नहीं पहचानती. यदि सचमुच नदी को जीवित मनुष्य होने से पहले के जितने सरकारी नियम-कायदे-कानूनों का भी पालन कर लिया जाता, तो ऐसी कोई नौबत आती ही नहीं.
नदी तो ज़िन्दा रहेगी, क्योंकि नदी जानती है, किसका अहंकार कब एक क्षण में खत्म करना है...
राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...
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