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This Article is From Apr 04, 2016

कोई तो बताए भागते समाज को, आखिर खुशी आएगी कैसे...?

Rakesh Kumar Malviya
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अप्रैल 04, 2016 13:27 pm IST
    • Published On अप्रैल 04, 2016 13:20 pm IST
    • Last Updated On अप्रैल 04, 2016 13:27 pm IST
पिछले दिनों खंडवा में एक युवक को मार डाला गया, सरेआम पीटा गया लाठियों से। उसने सुअर चुरा लिया था, ऐसा आरोप मढ़ा गया। उससे पहले इटारसी स्टेशन पर भी ऐसा ही एक हादसा हुआ, और एक युवक को कोच से लटका दिया गया। संभवत: रेलगाड़ियों के इतिहास में पहली बार। चलती ट्रेन में वह ढाई सौ किलोमीटर तक लटका रहा, क्योंकि उसने बिना पूछे पानी पी लिया था। उससे थोड़ा और पहले हम दिल्ली की घटना देख चुके हैं। स्कूटर से बॉल ही तो टकराई थी। फिर थोड़ी अनबन हुई और उसके बाद जो कुछ हुआ, उससे आप वाकिफ हैं। इनमें कोई भी घटना ऐसी नहीं है, जिनमें हम हत्या पर उतारू हो जाएं, या जानलेवा व्यवहार करें, लेकिन हो रहा है... यही हो रहा है...

आपको एक बात और बता दें। इन तीन घटनाओं में से दो जिस राज्य में घटीं, वहां की सरकार 'हैप्पीनेस मंत्रालय' बनाने जा रही है, जो देश में पहली बार किसी सरकार द्वारा बनाया जा रहा है। यह खुशियों का मंत्रालय होगा, यानी हैप्पीनेस मिनिस्ट्री आफ मध्य प्रदेश।

...तो क्या दिनोंदिन हमारे समाज से मूल्यों का पतन हो रहा है, खुशियां खो रही हैं... इतनी कि उन्हें लौटाने के लिए औपचारिक जतन करना पड़ रहा है, एक विभाग का गठन करना पड़ रहा है। वैसे इस कदम की आलोचना नहीं है। ऐसी हर पहल का सम्मान होना चाहिए, लेकिन क्या यह ऐसा विचार नहीं है, जब पास में रोटी नहीं है और केक खाने की सलाह दी जाती हो। या फिर हम यह सोचेंगे कि अपराधों का संबंध कहीं आर्थिक स्तर, लोगों के रहन-सहन और उसके आसपास के वातावरण से भी है, जैसा अपराधशास्त्री बताते हैं।

जीवन में मूल्यों का खोना, खुशियों के खोने का बड़ा कारण है। वैश्विक दुनिया में अब ऐसा ही हो रहा है। तकनीक की दुनिया में अब ऐसा ही हो रहा है। पता तब चलता है, जब दुख और कष्ट की घड़ी में कितने लोग साथ आते हैं। पिछले दिनों एक दोस्त की मां के अंतिम संस्कार में जाना हुआ। वहां एक और संस्कार होना था। एक संस्कार राजधानी का था, एक गांव का। एक में कार वाले लोग थे, दूसरे में ट्रैक्टर-ट्रॉली में भरकर आए थे। पहनावा देखकर साफ समझ आ रहा था कौन कहां से है, लेकिन संख्या के लिहाज से वे ज्यादा थे, 10 गुना ज्यादा थे। उनके दुख की घड़ी में 10 गुना ज्यादा लोग खड़े थे। व्हाट्सऐप पर तमाम समूहों पर लोगों ने RIP टाइप करके काम पूरा कर दिया था, लेकिन वहां जिंदगी के सबसे नाजुक वक्त पर लोग साथ थे। यह महिमामंडन नहीं है, सच्चाई है। विकास हमारी ज़िन्दगी को कुछ दे रहा है, तो बहुत कुछ छीन भी रहा है, और ऐसे ही समाजों में जब हम घटनाओं को देखते हैं तो समझ आता है - हां, हमारा ताना-बाना टूट रहा है।

लेकिन जड़ में कुछ और भी है - जीवन का संघर्ष, रोजी-रोटी का संघर्ष... गौर कीजिए, अपने आसपास को देखिए। देखिए, अपराध कहां हो रहा है, कैसा हो रहा है। एक साल के अपराधों का विश्लेषण कर लीजिए। एनसीआरबी की 2014 में रिपोर्ट - 33,000 हत्याएं, 41,000 लोगों को मारने की कोशिश, 36,000 बलात्कार, 77,000 अपहरण, 38,000 लूट। कुल मिलाकर तकरीबन तीन लाख ऐसे मामले, जो हिंसात्मक अपराध के तहत आते हैं।

'आई एम निर्भया' (IAmNirbhaya.Me) का पोर्टल खोलकर देख लीजिए। अपराध की हर श्रेणी में या तो दिल्ली आगे नजर आएगी या मुंबई। आप जनसंख्या अधिक होने का तर्क भी गढ़ सकते हैं, लेकिन सुविधाएं और संसाधन भी तो यहीं हैं, सबसे ज्यादा। सुरक्षा सबसे ज्यादा है। मीडिया सबसे ज्यादा यहीं के मुद्दों को उठाता है, तो फिर दिक्कत क्या है।

लिखते-लिखते ख्याल आ रहा है, प्रत्यूषा बनर्जी की क्या मजबूरी रही होगी। ऐसे लोगों की क्या मजबूरी रही होगी, जिनके पास नाम, काम और दाम सब कुछ है, लेकिन खुशहाल ज़िन्दगी नहीं है।

...तो खुशहाली आखिर कहां से आएगी...? क्या वह किसी दुकान से मिलेगी, बाज़ार में मिल जाएगी...? पार्क में सुबह-सुबह ठहाके लगाने से आ जाएगी...? मिनिस्टर ऑफ हैप्पीनेस इसे ले आएंगे...? 'जय श्री राम' का नारा लगा देने से आ जाएगी...? रोड ब्लास्ट कर जवानों को उड़ा देने से खुशी आएगी...? यमुना किनारे तंबू लगा देने से आएगी खुशी...? सांसे रोकने और छोड़ने से आएगी खुशी...? हमने 'मौन' रहकर भी खुशी का इन्तज़ार किया और 'मन की बात' कहकर भी खुशी को बुला रहे हैं, लेकिन वह आती नहीं... भेड़ियाघसान की तरह एक दिशा में मुंह करके भागते जा रहे समाज को कोई तो बताए कि खुशी आखिर कैसे आएगी...?

राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के फेलो हैं, और सामाजिक मुद्दों पर शोधरत हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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