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This Article is From Sep 23, 2016

#युद्धकेविरुद्ध : क्या हम एक वक्त खाने को तैयार हैं...?

Rakesh Kumar Malviya
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    सितंबर 25, 2016 14:34 pm IST
    • Published On सितंबर 23, 2016 14:56 pm IST
    • Last Updated On सितंबर 25, 2016 14:34 pm IST
यह देश सचमुच लालबहादुर शास्त्री के एक बार कहने पर दिन में एक बार भोजन करने लगा था. देश को युद्ध की चुनौती से निपटना था. इस देश में ऐसा भी होता था कि पूरे शहर को अंधेरे में रखना है, घंटे-आधा घंटे हर घर की बत्ती बुझानी है, इसलिए पूरा का पूरा शहर स्वतः 'ब्लैकआउट' का अभ्यास करता था. इस देश में ऐसा भी होता था, जब लोग घरों से तरह-तरह की चीजें बनाकर विशेष रेलगाड़ियों से आवागमन कर रही सेना की और दौड़ पड़ते थे, कोई हलवा बनाकर खिलाता, कोई महिला बिना त्योहार के ही राखी बांधती नजर आती, किसी ने स्वेटर तक बना डाला, इसलिए कि फौजी भाई सीमा पर उनकी रक्षा करने जा रहे हैं. युवाओं की टोली स्कूल-कॉलेज के बाद टीन के डिब्बों में एक-एक दो-दो रुपये जमा करने के लिए निकल पड़ती. किसी सोशल मीडिया के बिना यह सब कुछ बिना अतिरिक्त प्रयास के स्वतः चलता रहता था. एक जुड़ाव के साथ...

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एक और माहौल है अब. उरी में जो कुछ भी हुआ, उसके बाद इस तरह के गुस्से से कौन इंकार कर सकता है...? भारत की आवाम अब कोई हल चाहती है, ठोस हल. इसके लिए जो सबसे आसान तरीका सोशल मीडिया पर भावाभिव्यक्ति का है, वह हो भी रहा है. रोज-रोज की शहादत, रोज-रोज की अशांति को किसी एक निर्णय से निपटा देने का यह बेहतरीन वक्त लगता है, इसलिए भी, क्योंकि यह जो सरकार है, जिसे कई-कई सालों बाद भारतीय जनता ने अपनी पूरे समर्थन से सत्ता पर आसीन कराया है, वह कोई निर्णय ले पाने में समर्थ है. वह कुछ कर सकती है. वह हल निकाल सकती है, लेकिन क्यों नहीं निकलता कोई हल. और सबसे बड़ा सवाल यह कि क्या युद्ध इसका हल है...?

ध्यान दीजिए, तमाम ख़बरों के बीच अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा का अख़बारों में छपा बयान, जिसमें उन्होंने उरी के हमलों ओर आतंक को प्रश्रय देने की निंदा तो की, लेकिन साथ ही यह भी कहा है कि 'इस वक्त दुनिया का कोई भी बड़ा देश किसी दूसरे देश पर युद्ध नहीं कर सकता है...' इस वक्त इस परिस्थिति में ओबामा के इस वक्तव्य के क्या मायने हैं...? इसका छिपा सन्देश क्या है...? दुनियाभर में अपनी दादागिरी दिखाने वाला यह देश क्या भारत-पाकिस्तान के इस मसले को यूं ही सुलगाए रखना चाहता है...?

जैसा इस दौर में सोशल मीडिया पर हो रहा है, उसका बहुत बड़ा श्रेय हमारे वॉररूम बने टीवी चैनलों को भी जाता है. सोशल मीडिया पर जो संदेश प्रसारित हो रहे हैं, वे जनता की इस भावना को अभिव्यक्त तो करते हैं, लेकिन क्या उनमें उन्माद की जगह थोड़ी अक्लमंदी भी है या नहीं. यह एकदम सही है कि हम रोज-रोज की शहादत नहीं देख सकते और यह भी सही है कि हमारे पास अब कोई और रास्ता भी नहीं है, लेकिन क्या यह भी सही नहीं है कि पाकिस्तान जिस मकसद के लिए इस पूरे मामले को प्रश्रय देता रहा है, क्या वह इसमें सफल नहीं हो रहा. क्या इस पूरे दौर में भारत का ध्यान अपने विकास और लोगों के भले से हटकर केवल एक मुद्दे पर सीमित नहीं हो रहा.

पाकिस्तान के पास अपने मूल सवालों, लोगों की बदहाल स्थिति, गरीबी से लड़ने और लोगों को उनके हकों से वंचित रखने के लिए इस कथित राष्ट्रवाद और कश्मीर के मसले को जिन्दा रखने के अलावा कोई हल नहीं है, लेकिन क्या हमारी राजनीति और विमर्श में भी कश्मीर का यह मुद्दा दूसरे अन्य मुद्दों पर पानी डालने का काम नहीं करता है...?

यदि पूरी गंभीरता से विकास के पहिये को और आगे ले जाना है तो निश्चित ही इस मुद्दे का हल निकालना होगा, लेकिन यदि अमेरिकी राष्ट्रपति खुले रूप में किसी भी हमले से इंकार कर रहे हैं, तो क्या हमारी राजनीतिक, कूटनीतिक रणनीति उनके खिलाफ जाकर हमले का साहस कर पाएगी, यदि हां, तो हम इसके लिए कितना तैयार हैं...? लड़ाई होती भी है, तो गौर कीजिए, क्या यह केवल भारत और पाकिस्तान ही की लड़ाई रह जाएगी, क्या दुनिया के दूसरे देश चुप बैठेंगे...? चीन का रवैया क्या होगा...? अमेरिका किसके साथ खड़ा होगा...? रूसी सेना किसके खेमे में जाएगी...? क्या हम यह सोच सकते हैं...! क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि भारत-पाकिस्तान का यह युद्ध केवल दो देशों में ही नहीं रह जाएगा...? और यदि फिर भी हमारा निर्णय लड़ाई के पक्ष में है तो क्या हम एक टाइम भोजन करने को तैयार हैं...? क्या देश अब भी वैसा ही है, या कुछ बदल गया है...?

हमारे देश की कुल आबादी में से 70 फीसदी गरीबी रेखा के नीचे रहती है, इस बात का ठीक-ठीक कोई आंकड़ा नहीं है कि हजारों मीट्रिक टन अनाज पैदा होने के बावजूद कितने लोग रातों में भूखे सोते हैं, बीमारियों से हज़ारों लोग कर्जदार होकर कंगाल हो रहे हैं, हमारे देश के आधे बच्चे कुपोषण का शिकार हैं, और हम पाकिस्तान से युद करके उसे रौंदने चल पड़ें. यह सही है कि पाकिस्तान हमें फूटी आंख नहीं भाता, उसके लोग बार-बार हम पर हमला करते हैं, और चुनौती देते हैं, लेकिन यह भी उतना ही सही है कि जैसा युद्धोन्माद का मानस हमारा समाज बनाता है, उसका हासिल क्या होना है. हां, कि युद्ध हो, लेकिन किस कीमत पर.

सोशल मीडिया पर इसका जवाब देना बहुत आसान है...! इसका जवाब 'हां' में ही आएगा...! पाकिस्तान को नेस्तोनाबूद कर देने की जामवंती कवायद करने वाले हमारी सेना को उसकी ताकत के लिए इसी तरह ललकार भी रहे हैं, उसे छूट देने की बात भी कर रहे हैं, लेकिन उनसे पूछा जाना चाहिए कि 'क्या वे अपने घर से एक व्यक्ति सेना में जाने देने को तैयार हैं', क्या वे युद्ध के बाद आने वाली भुखमरी सहने को तैयार हैं, क्या वे किसी भी तरह की महंगाई से लड़ने को तैयार हैं, जो युद्ध के नतीजे में आती ही आती है, क्या वे ज़रूरत पड़ने पर अपनी धन-संपदा देश पर न्योछावर करने को तैयार हैं...? यदि अपने आसपास के समाज को थोड़ा-सा भी गौर से देखेंगे तो आप अपने असली चेहरे को जान पाएंगे...?

बात-बात पर रिश्वत लेने-देने वाला, टैक्स बचाने के तमाम जतन करने वाला, सरकारी संपत्तियों को नुकसान पहुंचाने वाला, अपनी ही बहन-बेटियों के साथ बलात्कार करने वाला, हत्याएं करने वाला, पड़ोसियों से जलने वाला, एक-दूसरे को नीचा दिखाने वाला यह समाज जब इस तरह देशभक्ति की बातें करता है, तो इन्हें पचाना आसान नहीं होता...? तमाम आंकड़े बताते हैं कि हमारे देश के अंदरूनी हालात कैसे हैं और आम आदमी के लिए जब दाल खरीदना भी मुश्किल हो जाता है, तो उसकी ज़िन्दगी कैसे चलती है...? उसका पेट कैसे भरता है...? हम कैसे देशभक्ति दिखा लेते हैं, जबकि हमारे देश में बच्चे कुपोषण और बीमारियों से मर जाते हैं...? उन्हें हम राष्ट्र में शामिल करते हैं या नहीं...? और यदि करते हैं तो इन सवालों पर हम अपना गुस्सा कहां गायब कर देते हैं...?

होता तो यही है कि पाकिस्तान के अलावा हमारी देशभक्ति 15 अगस्त और 26 जनवरी आने की राह देखती है, या फिर किसी क्रिकेट मैच की...! क्यों...? समझिए कि यह युद्ध है, आईपीएल का मैच नहीं...? इसकी पूरी-पूरी कीमत चुकाने को तैयार रहिए...

राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के फेलो हैं, और सामाजिक मुद्दों पर शोधरत हैं...

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