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This Article is From Sep 26, 2016

#युद्धकेविरुद्ध : हां, जरूरी है यह युद्ध, आप लड़कर तो देखिये...

Rakesh Kumar Malviya
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    सितंबर 26, 2016 16:53 pm IST
    • Published On सितंबर 26, 2016 16:46 pm IST
    • Last Updated On सितंबर 26, 2016 16:53 pm IST
पाकिस्तान दुनिया के उन दस शीर्ष देशों की सूची में आता है जहां जन्म लेने के बाद एक साल के भीतर सबसे ज्यादा बच्चे मरते हैं. पाकिस्तान इस काली सूची में जिन देशों के साथ खड़ा है उनमें सोमालिया, चाढ़, सीरिया सरीखे देश हैं जहां के बच्चों की ऐसी तस्वीरें हमें देखने को मिलती हैं, जिन्हें हम आंखों के सामने दूसरी बार लाना भी नहीं चाहते. मानव विकास के आंकड़ों में भी पाकिस्तान फिसड्डी है, उसका नंबर 147 वां है.  

आतंक फैलाने में अव्‍वल देश शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य जैसे मामलों में पिछड़ा
स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार संबंधी और भी आंकड़े उठा  लीजिए, आतंक फैलाने में अव्वल रहने के आरोप वाला देश इन सभी में पिछड़ा ही नजर आएगा. पाकिस्तान की इस आलोचना पर हम हिंदुस्तानियों को खुश होने की जरूरत नहीं है. वह इसलिए कि इन्हीं पैमानों पर हमारी हालत भी कुछ खास अच्छी नहीं हैं. ऐसे में ​यदि देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इन बीमार परिस्थितियों से एक हजार साल तक लड़ने की इच्छाशक्ति जताते हैं तो इसे बेहतर ही माना जाना चाहिए. यकीन मानिए यदि इसी इच्छाशक्ति से काम हो भी गया तो इन समस्याओं को दूर करने के लिए एक हजार साल लगेंगे भी नहीं.  

विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार हिंदुस्तान में शिशु मृत्यु दर 60 के दशक में 165 थी वह अब 2015 में घटकर 38 तक आ गई है. पाकिस्तान में यही शिशु मृत्यु दर 60 के दशक में 192 थी जो घटकर केवल 66 तक आ पाई है. इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत ने अपने बच्चों के जीवन के अधिकार को भले ही प्राथमिक एजेंडे में न रखा हो,  लेकिन ऐसा भी नहीं है कि वह एजेंडे में बिलकुल भी नहीं थे.

बच्‍चों के विकास के लिए काम उम्‍मीद के मुताबिक नहीं
आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक चेतना में बच्चों के विकास के लिए सरकारों ने चिंता भी दिखाई और काम भी किया, यह अलग बात है कि जितना होना चाहिए था उससे अभी बहुत पीछे हैं, लेकिन पाकिस्तान के हालात बताते हैं कि वहां अब भी 1000 जीवित शिशुओं में से 66 बच्चे एक साल की उम्र से पहले ही मर जाते हैं. यानी भारत से लगभग दोगुनी बच्चों की जीवन की संभावना नहीं रहती है.  

विश्व बैंक की ही रिपोर्ट बताती है कि पाकिस्तान में अकेले साल 2013 में पांच साल तक की उम्र के 9 लाख बच्चे नहीं बचाए जा सके थे. ऐसे हालात में अपने अंदरूनी सवालों और रोजी-रोटी के सवालों से ध्यान हटाने का इससे अच्छा मुद्दा क्या हो सकता है कि अपने मुल्क को कश्मीर मामले पर लगा दिया जाए. युवाओं को रोजगार देने की जगह बंदूकें पकड़ा दी जाएं, यह उसकी प्राथमिकता में नहीं है. हद तो यह है कि अपने खुद के विकास से बचकर सत्ता को बचाए रखने की यह तिकड़म वहां काम भी कर जाती है.

नार्वे जैसा देश है मानव विकास सूचकांक में टॉप पर
हद तो यह भी है कि अतिराष्ट्रवाद या आतंकवाद के नाम पर जो लोग जनता को बरगलाने की नीति अपना रहे हैं, वे खुद को इन तिकड़मों का शिकार होते कैसे नहीं देख पाते. वे क्यों नहीं समझ पाते कि उनकी अशांति और असुरक्षा में ही उनका भला है, क्योंकि इससे उनके हथियार बिकते हैं, जितने ज्यादा हथियार बिकेंगे, उनकी जीडीपी को उतना ही फायदा होने वाला है.

शांति, सत्य और अहिंसा के मूल तत्वों वाले देश के विकास को रोके रखने का कोई और रास्ता है भी नहीं. यह भी उतना ही सत्य है कि ​बिना शांति के आप मानवता के समग्र विकास की उम्मीद नहीं भर सकते. गौर कीजिए, मानव विकास में पहले—दूसरे नंबर पर कौन से देश हैं. नार्वे जैसा छोटा सा देश मानव विकास सूचकांक में पहले नंबर पर आता है. ऑस्‍ट्रेलिया केवल क्रिकेट या ओलिंपिक में ही प्रदर्शन नहीं करता, वह मानव विकास के सूचकांकों में दूसरे नंबर का दर्जा पाता है. कैसे, गौर करेंगे.

लोग जब तक गरीबी का अपनी नियति मानेंगे यह नहीं हटेगी
ख्यात पत्रकार राजेन्द्र माथुर ने अपने एक आलेख में ​जिक्र किया था ‘इंदिरा गांधी और जगजीवन राम गरीबी को हटाने की चाहे जितनी बात करें, लेकिन जो गरीबी राजनैतिक रूप से दुखद नहीं है, वह कभी नहीं हटेगी. जिस बच्चे ने चिल्लाना नहीं सीखा वह बिना दूध के भूखा ही मरेगा. वह यूं ही भूखा मरते आया है और तृप्ति को उसने कभी अपना अधिकार ही नहीं माना है.‘   

जब तक देश की जनता गरीबी को अपनी ​नियति मानकर भूखी सोती रहेगी, यकीन मानिए न तो गरीबी दूर होगी और न अच्छे दिन आएंगे. इन परिस्थितियों में यदि सरकार एक युद्ध को टालकर किसी कूटनीति का सहारा लेती है, तो इसे कौन बुरा कहेगा. युद्धोन्मादियों को यह जरूर लग सकता है कि ​जो उम्मीद वह मोदी सरकार से कर रहे थे, वह पूरी नहीं हुई, लेकिन सत्ता से बाहर बैठकर विरोध करने और सत्ता में बैठकर निर्णय लेने में बहुत फर्क होता है. सत्ता को यह समझ आ रहा है कि कश्मीर का हल किए बिना कोई भी ठोस नतीजा सामने नहीं आ सकता. अब वक्त ही बताएगा कि उरी में शहीद हुए जवानों का बदला मोदी सरकार कैसे लेती है ?  लेकिन सबसे गौर करने वाली बात यह यह है कि सरकार कुपोषण, गरीबी जैसी स्थितियों से कैसे लड़ती है, अगर वाकई इनसे युद्ध की ठान ली है तो यकीन मानिये हिंदुस्तान की जनता आपको विजयी बनाती रहेगी.

राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के फेलो हैं, और सामाजिक मुद्दों पर शोधरत हैं...

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