देश की अब तक की सबसे विवादित साबित हो रही फिल्म पद्मावत सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बावजूद अब तक संकट में है. फिल्म बनने से लेकर अब तक इस पर तमाम तरह के विवाद रहे हैं. इसे कौन दिखाएगा, कौन देखेगा और रिलीज के बाद सड़क पर क्या स्थितियां बनेंगी, इसे लेकर आपाधापी का माहौल तो है ही. पर इस फिल्म के बहाने फिल्मों की प्रासंगिकता, समाज में उनका प्रभाव और अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर एक लंबी बहस तो हुई ही है. पर क्या यह विरोध इतना बुनियादी है. इसकी जड़ें क्या वाकई महिलाओं की अस्मिता और समाज में उनके योगदान को लेकर है, क्या विरोध करने वालों को पता है कि केवल किसी एक ही समाज में नहीं, पूरे भारत की आधी आबादी किन संकटों से जूझते रही है. और यदि वाकई इसका थोड़ा भी अंदाजा है तो इस पर क्या कभी ऐसा विरोध, ऐसी आवाजें उठाई गईं, जो सुप्रीम कोर्ट तक के निर्देंशों को न मानने पर आमादा है.
दरअसल तो भारतीय समाज में महिलाओं के योगदान को कभी ठीक ढंग से आंका ही नहीं गया. घर में उनके काम के मूल्य को कभी आंका नहीं जाता. उनका परिश्रम का कोई मूल्य नहीं है. इस पर जब एक फौरी अध्ययन किया गया तो यह तकरीबन भारत के एक साल के बजट के बराबर होता है जो कभी दिखाई ही नहीं देता है. देखिए कि स्वास्थ्य, शिक्षा के पैमानों पर हमारे समाज की महिलाएं कहां पर हैं. थोड़ा इस बात का भी विश्लेषण कर लीजिए कि हमारे देश में महिलाओं के साथ होने वाले अपराध और भेदभाव की क्या स्थितियां आज भी मौजूद हैं. यदि इससे आपकी भावनाएं आहत नहीं होतीं तो माफ कीजिए, अपने बारे में एक बार फिर सोच लीजिए.
भारत की जनगणना 2011 के मुताबिक देश में महिलाओं की संख्या 58.76 करोड़ है. इनमें से 33.96 करोड़ (59.8%) विवाहित हैं. कुल विवाहित महिलाओं में से 4.95 करोड़ महिलाओं ने जनगणना के समय तक बच्चों को जन्म नहीं दिया था, यानी वे माँ नहीं बनी थीं. जिन महिलाओं ने बच्चों को जन्म दिया है उनमें से 5.1 करोड़ महिलाओं ने एक बच्चे को जन्म दिया. 8.15 करोड़ महिलाओं ने 2 बच्चों को, 6.04 करोड़ महिलाओं ने 3 बच्चों को, 4.1 करोड़ महिलाओं ने 4 बच्चों को और 3.8 करोड़ महिलाओं ने 5 या इनसे अधिक बच्चों को जन्म दिया. आप सोचिए कि कई दशकों से हम दो हमारो दो का नारा लगाने के बावजूद हमारा समाज अब भी महिलाओं को बच्चा देने की मशीन के अलावा क्या कुछ समझता है. और इसी से जुड़े होते हैं कई स्वास्थ्य मानक जो महिलाओं की खून की कमी, उच्च मातृ मृत्यु दर और कुपोषण का कारण बनते हैं.
जरा सड़क पर उतरकर इस बात का भी विरोध कीजिए कि भारत में 15 वर्ष से कम आयु की कुल 17.8 करोड़ लड़कियां थीं, जिनमें से 18.12 लाख लड़कियों की शादी हो चुकी थी. यानी भोपाल जैसा कोई एक पूरा शहर ही हो जहां 15 साल की लड़की आपको शादीशुदा मिले.
यही नहीं इनमें से तकरीबन 4.57 लाख लड़कियां बच्चों को जन्म भी दे चुकी हों, इनमें से भी 1.37 लाख एक बच्चे और 3.2 लाख दो बच्चों की माँ बन चुकी थीं. यह आंकड़ें किसी रूपहले पर्दे पर किसी कल्पना का हिस्सा नहीं हैं, यह वास्तविकता है जो भारत की जनगणना से हमारे सामने आते हैं. इन्हें सामने रखकर आप उस समाज की आप कल्पना कीजिए तो अपने समाज की लड़कियों के प्रति कितना संवेदनशील होता होगा. जाहिर सी बात है ऐसी लड़कियों की शिक्षा तो छूट ही जाती है, वह घर—गृहस्थी संभालने के लिए मानसिक रूप से कितनी तैयार हो पाती होंगी. जाहिर है ऐसे विषयों पर तो केवल डॉक्यूमेंटी ही बनाई जा सकती है, इसका विरोध तो क्या, कहीं दो लाइन छपना भी मुश्किल है. क्या इससे किसी का कलेजा नहीं कांपता.
यह तो बात 15 साल से कम उम्र की लड़कियों की थी. इससे अगला समूह 15 से 19 वर्ष तक की बच्चियों का देखें तो इसमें भी ऐसी तस्वीर सामने आती है, जिस पर हम कैसे सोचें, समझें और सुधारें समझना मुश्किल है. जब जनगणना की गई तो पता चहा कि इस आयु वर्ग की 6 लाख लड़कियां 2 बच्चों की माँ बन चुकी थीं, 2.15 लाख लड़कियां 3 बच्चों की और 2.84 लाख लड़कियां 4 बच्चों की मां बन चुकी थीं. 24 वर्ष की उम्र तक पहुंचते—पहुंचते ढाई लाख से ज्यादा महिलाएं 5 या इनसे ज्यादा बच्चों की माँ बन चुकी थीं.
अब आप देखिए कि हमारे देश में महिलाओं की मातृ—मृत्यु की दर क्या है. मतलब यह कि बच्चों को जन्म देने के दौरान हर एक लाख जीवित जन्म पर कितनी मां काल के गाल में समा जाती हैं.
अब आप देखिए कि हमारे देश में महिलाओं की मातृ—मृत्यु की दर क्या है. मतलब यह कि बच्चों को जन्म देने के दौरान हर एक लाख जीवित जन्म पर कितनी मां काल के गाल में समा जाती हैं. ताजा आंकड़ों के मुताबिक जन्म देते समय देश में हर घंटे पांच माताओं की मृत्यु हो जाती है. 97—98 में यह प्रति एक लाख जीवित जन्म पर 398 थी. नीति आयोग की वेबसाइट पर यह आंकड़ा देखेंगे तो अब भी यह दर 167 है, जबकि मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स में इसे 109 तक लाने के लिए लक्ष्य तय किया गया था. जाहिर सी बात है कि भारत में बच्चों को जन्म देने का जौहर कर गुजरने वाली लाखों माताएं हर साल अपना बलिदान दे बैठती हैं. इसमें किसी एक पक्ष का दोष नहीं, यह तो हमारे पूरे समाज पर, व्यवस्था पर अपने आप पर सवाल है.
दुख की बात है कि महिलाओं के इस जौहर पर न तो हमारे यहां कोई फिल्म बनाता है और न ही ऐसी फिल्मों पर कोई विरोध ही करने आगे आता है.
राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...
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This Article is From Jan 24, 2018
महिलाओं के इस ‘जौहर’ पर कुछ कहेंगे-करेंगे आप
Rakesh Kumar Malviya
- ब्लॉग,
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Updated:जनवरी 24, 2018 15:56 pm IST
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Published On जनवरी 24, 2018 15:56 pm IST
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Last Updated On जनवरी 24, 2018 15:56 pm IST
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