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This Article is From Apr 14, 2016

जीत इसी में है कि आंबेडकर को कोई 'इस रूप' में याद न करे

Rakesh Kumar Malviya
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अप्रैल 14, 2016 18:03 pm IST
    • Published On अप्रैल 14, 2016 17:19 pm IST
    • Last Updated On अप्रैल 14, 2016 18:03 pm IST
यह कथ्य अटपटा है। वह भी तब, जब लोग उन्हें अधिक याद कर रहे हों। तब जबकि वैचारिक विरोधी भी उनके नाम पर दलित महासम्मेलन कर रहे हों... वह भी तब जबकि कोलकाता में पुल गिरने का दोष आरक्षण व्यवस्था के परिणाम पर आकर टिक गया हो... लेकिन इसके बावजूद यह कहना समाज के व्यापक हित में होगा कि कोई उन्हें 'इस रूप में' याद न करे। याद क्यों न करे ? सोचिये कि कब तक हम उन्हें दलितों का नाम पर एक आईकॉन की तरह देखते रहेंगे। एक समता मूलक समाज की रचना में कितना और समय लगाएंगे ? सोच तो यही थी कि दलितों का उत्थान हो, समाज की गैरबराबरी के मसले दिनों-दिन कम होते जाएं। लेकिन यह कितना हो पाया ?

आजाद भारत में अब भी यदि उनकी जयंती को हम दलित महासम्मेलन के रूप में याद कर रहे हैं, और यह नारा बुलंद कर रहे हैं कि सबके लिए रोजी-रोटी का, आवास का, आजीविका का अवसर उपलब्ध कराएंगे तो इससे बड़ी असफलता और क्या होगी ? यह सवाल केवल आज के राजनैतिक नेतृत्व से नहीं है ? सोचिये कि आजादी के बाद संविधान की अंतरात्मा के लिए क्या कुछ किया गया ? और यह सोचने के बाद आपको लगता है कि आखिर दलितों/ वंचितों/ उपेक्षितों के लिए आजाद भारत में कितना क्या हुआ, कितना कुछ बदला तो हम पाएंगे कि स्थितियां भयावह हैं।

जातीय व्यवस्था को खत्म करने की दिशा में हम कितना आगे बढ़े?
देखिये कि 2013 के बाद से दलितों के साथ अपराध के 128 मामले रोज दर्ज हो रहे हैं। देखिये कि स्कूलों में मध्याह्न भोजन के दौरान अब भी दलित बच्चे अलग बैठकर खाना खा रहे हैं और एक बच्ची कुएं में गिरकर मर जाती है क्योंकि उसे हैंडपंप से पानी नहीं पीने दिया जा रहा। सोचिये कि जातीय व्यवस्था को खत्म करने की दिशा में हम कितना बढ़ पाए, इसे अच्छे से समझने के लिए किसी भी अखबार के वैवाहिक परिशिष्ट का विश्लेषण कर लीजिए जहां जातीय व्यवस्था का एक अलग रूप निकल कर सामने आता है।

हम यह भी पाएंगे कि जातीय व्यवस्था के इतर जो आर्थिक भेदभाव और असमानता की खाई है, वह और गहरी हो गई है। ( याद कीजिए कुछ महीने पहले आई ऑक्सफेम की रिपोर्ट जिसमें बताया गया है कि दुनिया की आधी से ज्यादा दौलत तो बासठ लोगों के पास ही है।) जो मुफलिसी में जी रहा था वह तो वैसा ही है।

सोचना होगा, गांधी-आंबेडकर के देश में चिंता के केंद्र में कौन?
दरअसल आंबेडकर की जीत तो तभी होगी, जब उनके सपनों के मुल्क में उन्हें इसलिए याद नहीं किया जाएगा कि दलितों का, वंचितों का भला करना है, उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाना है। तब तक तो वह काम हो ही चुका होगा, जैसे कि मान सकते हैं हिंदुस्तान की आजादी के बाद गांधी का एक मुख्य काम मानो खत्म हो गया, और अब अगले मुकाम पर जाना है। अफसोस तो यही है कि ऐसे लोगों को अपनी राजनैतिक रोटियों की खातिर तस्वीरों में मढ़ा गया और और हर किसी ने इसे अपनी-अपनी दीवार पर टांग दिया। दीवार अच्छी लगे और उसकी चमक लोगों को आकर्षित करे। लेकिन उसके खोखलेपन के कितने किस्से हर दिन आते हैं। और यह किसी एक पर आरोप नहीं हैं। घेरे में तो सही हैं। पानी के हाहाकार के बीच आईपीएल की नौटंकी से लेकर लोगों को उनके पसीने की कीमत यानी मनरेगा की मजदूरी के लिए यदि अदालतों को संज्ञान लेना पड़ रहा है तो सोचना होगा कि गांधी और आंबेडकर के देश में चिंता के केंद्र में कौन है ? कर्म के केंद्र में कौन है ?

ग्रामोदय का सपना है एक बेहतर पहल
आंबेडकर की जयंती पर ग्रामोदय का सपना निश्चित ही एक बेहतर पहल है। सरकार की सोच के केंद्र में गांव और किसान का होना बड़ी बात है। बाबा साहब की जन्मस्थली से इसकी शुरुआत तमाम निराशाओं के बीच उम्मीद का संचार करती है, लेकिन आज दिन कुछ और भी सोचने का है। गांव के लिए तो किसी भी दिन सोचा जा सकता है लेकिन बाबा साहब की सोच में गांव का दलित और पीड़ित वर्ग अधिक था। जातीय व्यवस्था के सबसे बड़े वाहक रहे गांवों में इन लोगों की स्थिति कैसे बदलेगी ? आज के दिन यह सोचने वाली बात है। जातीय व्यवस्था और आरक्षण के नाम पर आज के समाज में हरियाणा, राजस्थान और अन्य इलाकों में जो कुछ हुआ है, सोचिये क्या वह आंबेडकर की सोच के अनुकूल था ?  

राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के फेलो हैं, और सामाजिक मुद्दों पर शोधरत हैं...

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