सतना जिले के पिथौराबाद गांव में 73 साल की उम्र में भी सक्रिय किसान हैं बाबूलाल दाहिया. उनके पास 8 एकड़ जमीन है जिसमें वह जैविक खेती करते हैं. दाहिया सरकारी मुलाजिम रहे. डाक विभाग में पोस्ट मास्टर थे, लोक साहित्य में भी रुचि थी. उन्हें अहसास हुआ कि जैसे लोकगीत व लोक संस्कृति लुप्त हो रही है, वैसे ही लोक अन्न भी लुप्त हो रहे हैं, तबसे उन्होंने इन्हें सहेजना शुरू कर दिया. उनके पास अब देशी धान की 110 किस्मों का खजाना है. वे हर साल इन्हें अपने खेत में बोते हैं और उनका अध्ययन करते हैं. साल 2015 में केवल 400 मिलीमीटर बारिश हुई और सूखे से फसलें बर्बाद हो गईं. पर दाहिया के खेत में लगी लगभग 30 किस्मों पर सूखे का भी कोई असर नहीं हुआ. उनकी पैदावार हर साल की तरह ही रही. इससे आसपास के किसान उनके लोकविज्ञान से खासे प्रभावित हुए, अब 30 गांवों के किसान उनके साथ मिलकर धान और मोटे अनाज (कोदो, कुटकी, ज्वार) की खेती कर रहे हैं. यह ज्ञान कहीं बाहर से प्राप्त किया हुआ नहीं है, उनका मानना है कि यह लोकजीवन का विज्ञान है. बाबूलाल सोशल मीडिया पर भी सक्रिय रहते हैं.
एक दिन रात को उन्हें फोन के माध्यम से जानकारी लगी कि सरकार उनका सम्मान करना चाहती है, इस पर उन्होंने अपने फेसबुक वॉल पर लिखा, मित्रो कल मुझे माननीय उप संचालक महोदय कृषि सतना द्वारा रात्रि लगभग 2 बजे जगाकर यह सूचित किया गया था कि आप और एक अन्य किसान को जैविक कृषक के रूप में कृषि विभाग द्वारा 10 सितंबर को सम्मानित किया जाएगा.सुबह ठंडे दिमाग से सोचने पर मुझे ऐसा लगा कि मध्यप्रदेश सरकार का किसी भी तरह का पुरस्कार लेना उन किसानों को अपमानित करने और धोखा देने जैसा है जो किसानों के लिए आंदोलन कर रहे है अथवा किसान हित में शहीद हो चुके है. इस लिए माननीय उप संचालक महोदय से क्षमा चाहते हुए धन्यवाद ज्ञापित करता हूं.
पिछले दिनों जब मध्यप्रदेश में किसान आंदोलन का आगाज हुआ, यह आंदोलन दूर-दूर तक फैला यहां तक कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने गांधी के उपवास का अस्त्र आजमाना पड़ा. इसके बाद से ही मध्यप्रदेश में विभिन्न मंचों पर खेती-किसानी की चर्चा हो रही है. मध्यप्रदेश के ही किसान संगठन, किसान और जमीनी कार्यकर्ताओं ने खेती की स्थितियों पर एक श्वेतपत्र तैयार किया है. इस श्वेतपत्र में बहुत ही चौंकाने वाली जानकारियां सामने रखी गई हैं. आपको बता दें कि मध्यप्रदेश भी एक कृषि प्रधान राज्य है यहां की 70 प्रतिशत आबादी खेती और खेती आधारित काम काज से जुड़े हुए हैं, यह अलग बात है कि राज्य में पिछले कई सालों से विदेशी निवेश को आकर्षित किया जा रहा है, और इसके लिए तरह-तरह की ‘मीट’ हर साल की जाती है. मुख्यमंत्री सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि निवेशक मध्यप्रदेश के जिस भी हिस्से पर उंगली रख देंगे उन्हें वहां जगह उपलब्ध कराई जाएगी, यह कवायद इसलिए कि प्रदेश का विकास हो और वहां स्थानीय लोगों को रोजगार मिल पाए.
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आदिवासी किसान परिवार की हालत और खराब है, उसकी मासिक औसत आय 4725 रुपए है, इसमें खेती से आय 2002 रुपए बताई गई है, दलित किसान की मासिक आय भी 4725 रुपए है, इसमें खेती से वह 2607 रुपए कमाता है. अन्य पिछड़ा वर्ग के किसान परिवार भी 7823 रुपए मासिक कमाते हैं. यह आंकड़े हवाहवाई नहीं हैं. इन्हें नेशनल सेम्पल सर्वे आर्गेनाईजेशन ने साल 2016 की रिपोर्ट में जारी किया है. ऐसी स्थिति में बाबूलाल दाहिया यदि अवार्ड लेने से मना कर देते हैं तो बुरा नहीं माना जाना चाहिए, वह और उनके जैसे लाख किसान परिवार यह उम्मीद लगातार बैठे हैं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की घोषणा के अनुसार 2022 तक उनकी आय दोगुनी हो जाएगी, लेकिन क्या वह रातों रात हो जाएगी, या धीरे-धीरे साल-दर-साल होगी यह स्पष्ट नहीं है. दोगुनी हो भी गई तो वह छह हजार से बढ़कर 12 हजार रुपए हो जाएगी, पर अगले पांच सालों में सुरसा की तरह बढ़ रही महंगाई भी तब तक किस स्तर पर जाएगी, यह अनुमान आप खुद ही लगा लीजिए. तब तक कितने किसान बचेंगे, कितने किसान खेती छोड़ देंगे और कितनी कंपनियां खेती करने लगेंगी इसका अनुमान भी आप लगा लीजिए.
वीडियो: राजस्थान के सीकर से किसान आंदोलन
राज्यसभा में 18 नवंबर 2016 को जो जानकारी कृषि राज्यमंत्री ने दी है उस पर सोचा जाना चाहिए. इस जानकारी के मुताबिक किसानों की संख्या 110 लाख से घटकर 98.4 लाख हो गई है. मध्यप्रदेश में ही हर दिन 329 किसान खेती छोड़ रहे हैं. खेती छोड़ने की बात छोड़ ही दीजिए, हालात तो यह हैं कि वर्ष 2001 से 2015 तक 19768 किसान अपनी जिंदगी ही छोड़ चुके हैं यानी उन्होंने आत्महत्या का रास्ता चुनना ज्यादा बेहतर समझा. यह जानना भी दिलचस्प होगा कि 2001 से 2011 की अवधि में इसी प्रदेश में खेतीहर मजदूरों की संख्या में भारी इजाफा हुआ है, इन दस सालों में 48 लाख खेतीहर मजदूर बढ़ गए हैं. यानी हर रोज तकरीबन 1312 मजदूर बढ़ रहे हैं. इस स्थिति में यदि बाबूलाल दाहिया अवार्ड लेने से मना कर देते हैं तो उन्हें ट्रोल नहीं किया जाना चाहिए.
राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...
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