विश्व स्तनपान सप्ताह पर विशेष: एक छोटे से कारण से भारत की अर्थव्यवस्था का करोड़ों का नुकसान

विश्व स्तनपान सप्ताह के तथ्यों को खंगालते-खंगालते विश्व स्वास्थ्य संगठन के ग्लोबल ब्रेस्ट फीडिंग स्कोरकार्ड में भारत में अपनी मां का दूध नहीं मिलने के कारण अर्थव्यवस्था को 9000 करोड़ रुपए का नुकसान होता है. 

विश्व स्तनपान सप्ताह पर विशेष: एक छोटे से कारण से भारत की अर्थव्यवस्था का करोड़ों का नुकसान

फाइल फोटो

हम सोचते हैं कि देश को बड़े मामलों से नुकसान पहुंचता है, जब शेयर बाजार बैठ जाता है, डॉलर के मुकाबले रुपया गिर जाता है, वगैरह-वगैरह. पर सोचिए कि एक छोटी सी आदत का न होना, या उसके विषय में भ्रांति होने से भी देश भारी गड्ढे में चला जाता है. विश्व स्तनपान सप्ताह के संदर्भ में जब तथ्यों को खंगालते-खंगालते विश्व स्वास्थ्य संगठन के ग्लोबल ब्रेस्ट फीडिंग स्कोरकार्ड में भारत की स्थिति तक पहुंचा तो पता चला कि बच्चों को अपनी मां का दूध नहीं मिलने के कारण भारत की अर्थव्यवस्था को 9000 करोड़ रुपए का नुकसान होता है. 

ऐसा इसलिए क्योंकि जब बच्चों को स्तनपान नहीं मिलता है तो लगभग 1 लाख बच्चों की इससे जुड़े कारणों से मौत हो जाती है. यह भयावह स्थिति है. एक व्यावहारिक अनुभव है जिसे परंपरा में सीखा जाता है, अलबत्ता परंपराओं में अवैज्ञानिक आधारों पर आए हुए दुर्गण इस वक्त की सबसे बड़ी विडंबनाएं हैं, जिस पर कोई जादू का डंडा नहीं चलता. हमारे समाज में तो बिलकुल भी नहीं क्योंकि हमारे यहां विज्ञान से ज्यादा धर्म का बोलबाला है. इसलिए भी कई देश व्यावहारिक अनुभवों के मामले में हमारे समाज से कहीं आगे निकल गए. इसी रिपोर्ट की माने तो बोलीविया, मलावी, नेपाल, सोलोमन आइलैंड, बुरुन्डी, कम्बोडिया, जाम्बिया, किरिबाती, इरीट्रिया सरीखे 23 देशों ने छोटे बच्चों में केवल स्तनपान के 60 प्रतिशत के स्तर को पा लिया है, भारत में अभी यह दूर की कौड़ी है.   

चिकित्सा विज्ञान कहता है कि पहले घंटे में मां का दूध बच्चे के लिए सबसे उत्तम आहार है, और सामाजिक व्यवहार शिशु को शहद चटाने पर आमादा होता है. विज्ञान कहता है कि पहले छह महीने में शिशु को केवल मां के दूध के अलावा कोई भी आहार की जरूरत नहीं, पानी भी नहीं. पर व्यवहार बच्चे को घुट्टी ​चटा-चटा कर सेहत बनाए रखने की बजाय बीमार बना देता है. छह माह के बाद भी जैसा आहार शिशु को चाहिए, वैसा बनाए रखने की या तो अज्ञानता है, या लापरवाही है, या फिर अनुपलब्धता है. यही कारण है कि शिशुओं का स्वास्थ्य भारत में तमाम कोशिशों के बावजूद सबसे बड़ी चुनौती बना हुआ है. 

वर्ष 2008 से 2015 के बीच के आठ सालों में भारत में 1.113 करोड़ बच्चे अपना पांचवा जन्म दिन नहीं मना पाये और उनकी मृत्यु हो गई. चौंकाने वाला तथ्य यह है कि इनमें से 62.40 लाख बच्चे जन्म के पहले महीने (नवजात शिशु मृत्यु यानी जन्म के 28 दिन के भीतर होने वाली मृत्यु) में ही मर गए. पांच साल से कम उम्र के बच्चों की कुल मौतों में से 56 प्रतिशत बच्चों की नवजात अवस्था में ही मृत्यु हो गई. इसे हम 5 साल से कम उम्र में होने वाली बाल मौतों में नवजात शिशुओं की मृत्यु का हिस्सा कह सकते हैं. 

आठ साल की स्थिति का अध्ययन करते हुए यह पता चलता है कि हर 1000 जीवित जन्म पर 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर में नवजात शिशु मृत्यु दर का हिस्सा लगातार बढ़ता गया है. 5 साल के बच्चों की मृत्यु में वर्ष 2008 में भारत में 50.9 प्रतिशत बच्चे नवजात शिशु थे, जो वर्ष 2015 में बढ़कर 58.1 प्रतिशत हो गए. इन आंकड़ों को देखकर समझा जा सकता है कि मसला केवल स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता-अनुपलब्धता भर का नहीं हैं, संकट कहीं और भी गहरे तक पैठे हुए हैं. वह धीरे-धीरे इस संकट को और बढ़ा रहे हैं. 

संकट शुरू होने की उम्र एक शिशु के जन्म से कहीं पहले हो जा रही है. हमारे समाज में प्रजनन की बुनियाद ही कमजोर नींव पर रखी जाती है. कम उम्र में विवाह अब भी जारी है. गर्भावस्था के दौरान सही भोजन की कमी और भेदभाव दूसरा बड़ा संकट है. मानसिक-शारीरिक-भावनात्मक अस्थिरता, विश्राम और जरूरी स्वास्थ्य सेवाएं न मिलने, सुरक्षित प्रसव न होने और प्रसव के बाद बच्चे को मां का दूध न मिलने की कड़ियां आपस में मिलकर मातृ-शिशु मृत्यु का आधार तैयार करती हैं. यही कारण है कि‍शि‍शु स्‍वास्‍थ्‍य के संकेतक अब भी भारत में एक बडी चुनौती बने हुए हैं.  

जब हम उन समाजों को देखते हैं जहां कि‍स्‍वास्‍थ्‍य के मानक बेहतर हैं तो पाते हैं कि‍वहां कि‍सी भी तरह के वाद’-वि‍वाद से ज्‍यादा वैज्ञानि‍क चेतना हावी है. कि‍सी के मान्‍यताओं से कोई भी असहमति नहीं हो सकती यदि‍वह मान्‍यता हमारे बेहतर समाज बनाने की दि‍शा में हो. मुश्किल भी है और चुनौती भी कि समाज में वैज्ञानिक चेतना आए कहां से. इस दौर में तो चेतना को असल मुददों से हटाकर नौटंकीनुमा प्रसंगों में तब्‍दील कर दि‍या जाता है.  

राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...

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