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This Article is From Jun 11, 2018

रजनीकांत की छतरी और फिल्‍म 'काला'...

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जून 11, 2018 22:21 pm IST
    • Published On जून 11, 2018 22:20 pm IST
    • Last Updated On जून 11, 2018 22:21 pm IST
जिस दौर में किसी रोहित वेमुला को हैदराबाद विश्वविद्यालय में आत्महत्या करनी पड़े, जिस दौर में उत्साही गोरक्षकों का हुजूम कहीं अल्पसंख्यकों को निशाना बनाता हो और कभी दलितों की पीठ उधेड़ता हो, जिस दौर में दलित प्रतिरोध तरह-तरह की शक्लें अख़्तियार कर रहा हो, उस दौर में कोई कारोबारी फिल्म ऐसी भी बन सकती है जैसी 'काला' है.

नहीं, काला कोई महान फिल्म नहीं है. यह पूरी तरह रजनीकांत कल्ट की तमिल फिल्म है- इन दिनों टीवी चैनलों पर तमिल मुख्यधारा की जो फिल्में हिंदी में डब करके दिखाई जाती हैं, उनकी याद दिलाने वाली फ़िल्म. अगर कला के पैमानों पर देखें तो मुख्यधारा की ज़्यादातर फिल्मों की तरह यह फिल्म भी आपको निराश कर सकती है. एक महानायक के आसपास बुनी गई अतिनाटकीय घटनाओं से भरी ऐसी फिल्म- जिसके किरदार और उनके रिश्ते भी बहुत दूर तक फिल्मी भावुकता से संचालित हैं. कहानी बस इतनी है कि रजनीकांत धारावी का दादा है जिसके चाहे बिना वहां पत्ता तक नहीं हिलता. कुछ नेता और बिल्डर इस धारावी पर कब्ज़ा करना चाहते हैं- इरादा झोपड़पट्टी गिरा कर बड़ी इमारतें बनाने का है. रजनीकांत इसे रोकने में जुटा है, क्योंकि उसे एहसास है कि नेता-बिल्डर के इस गठजोड़ की क़ीमत धारावी में दशकों से बसे, और इसे बसाने-बनाने वाले लाखों लोगों को चुकानी पड़ेगी. कह सकते हैं, नेता-बिल्डर गठजोड़ के ख़िलाफ़ खड़े किसी नायक की भी कहानी नई नहीं है.

लेकिन मुख्यघारा की चालू फिल्में भी कई बार बदलती हवाओं का सुराग देती हैं. इस लिहाज से अचानक 'काला' महत्वपूर्ण हो उठती है. पहली बार शायद किसी कारोबारी फिल्म में हम राजनीति के मौजूदा विमर्श के ख़िलाफ़ एक बारीक़ क़िस्म का मानीख़ेज प्रतिरोध देखते हैं. फिल्म के खलनायक नेता का हर जगह टंगा पोस्टर है- 'मैं देशभक्त हूं और देश की सफ़ाई करना चाहता हूं.' जिस समय देशभक्ति को जीने की इकलौती शर्त बनाया जा रहा हो और स्वच्छता को राष्ट्रीय कोरस में बदला जा रहा हो, उस समय एक फिल्म में दिख रहा ऐसा पोस्टर अपने-आप में बहुत कुछ कह जाता है. यही नहीं, धारावी पर कब्ज़े की लड़ाई में ज़मीन का सवाल भी आता है और दलित अस्मिता का भी. काले कपड़े पहने नायक काला बिल्कुल उजले कपड़ों वाले नाना पाटेकर के रंग संबंधी पूर्वग्रह का मज़ाक उड़ाता है, लोगों से अपने पांव छुलाने के ब्राह्मणत्व को पांव दिखाता है. राम कथा खलनायक के घर कही जा रही है. नायक रावण की तरह पेश किया जा रहा है. यहां चाहें तो एक और दक्षिण भारतीय निर्देशक मणि रत्नम की फिल्म रावण को याद कर सकते हैं. वहां भी नायक रावण की तरह पेश किया गया है. मगर रजनीकांत की फिल्म अपने संकेतों में कहीं आगे जाती है. फिल्म में धारावी में ही पली-बढ़ी, मगर अरसे तक बाहर रही एक नायिका पहले सरकार के साथ मिल कर काम करना चाहती है, लेकिन फिर उसका फासीवादी चेहरा देख सहम जाती है- जहां किसी भी असहमति के लिए अवकाश नहीं है. फिल्म में एक सिपाही जय भीम का नारा लगाता है. हमें शायद पहली बार किसी कारोबारी फिल्म के आंदोलन में यह नारा सुनाई पड़ता है.

दरअसल यह जय भीम का नारा है जो दलित चेतना से जुड़े लोगों को फिल्म में सबसे ज़्यादा लुभा रहा है. लेकिन इस फिल्म में दलित प्रश्न का एक और आयाम है. दलितों का मुद्दा अमूमन अस्पृश्यत या वैधता-अवैधता के प्रश्न से जुड़ा मिलता है, लेकिन फिल्म 'काला' में इसे ज़मीन के अधिकार से जोड़ा गया है.

फिल्म मोटे तौर पर ही- मगर- याद दिलाती है कि दलदल में डूबे धारावी की अहमियत अचानक इसलिए बढ़ गई है कि आज की तारीख़ में वह मुंबई के बीचो-बीच ऐसी जगह हो गई है जहां से कहीं भी आना-जाना आसान है. आज इस ज़मीन की क़ीमत अरबों में है. इसलिए वहां बसे लोगों को निकालने और उसे बिल्डरों और पूंजीपतियों के हवाले करने की तैयारी है.

फिल्म के एक दृश्य में काला एक छतरी के सहारे अपने दुश्मनों से लड़ता है और सबको मार गिराता है. रजनीकांत की यह छतरी अनूठी है- एक अयथार्थवादी छतरी, जो न्योता देती है कि आप इस बेतुके से दृश्य में कोई प्रतीकात्मकता खोजने का उपक्रम करें. तो क्या यह वह छतरी है जिसके तले दबे-कुचले समुदाय आएं तो अपने समय की फासीवादी और सांप्रदायिक सत्ता को पलट सकते हैं? जवाब देना या खोजना बेकार है- यह रजनीकांत की फिल्म है.

फिल्म जहां ख़त्म होती है, वहां रंगों के संयोजन से भी एक इशारा है. शुरुआत काले रंग से होती है- काला- यानी गंदगी का रंग, अस्पृश्यता का रंग- लेकिन इसे फिल्म मेहनत और पसीने से जोड़ती है. इसके बाद अचानक स्क्रीन लाल हो उठती है और फिर नीली. निर्देशक पी रंजीत कुछ न कहते हुए भी इशारा कर जाते हैं कि जमीन की लड़ाई अंबेडकर और मार्क्स के अनुयायियों को मिलकर लड़नी पड़ेगी.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...

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