सच छापा तो पड़ गया छापा

अगर आप सरकार से सवाल करना चाहते हैं, आलोचना करना चाहते हैं तो पहले एक काम कीजिए. आयकर विभाग और प्रत्यर्पण निदेशालय जिसे ED कहते हैं उनके अधिकारियों से पूछ लीजिए कि कितना तक लिखें तो छापा पड़ेगा और कितना तक न लिखें तो छापा नहीं पड़ेगा.

अगर आप सरकार से सवाल करना चाहते हैं, आलोचना करना चाहते हैं तो पहले एक काम कीजिए. आयकर विभाग और प्रत्यर्पण निदेशालय जिसे ED कहते हैं उनके अधिकारियों से पूछ लीजिए कि कितना तक लिखें तो छापा पड़ेगा और कितना तक न लिखें तो छापा नहीं पड़ेगा. अभी तक चुनावों के समय विपक्षी दलों के नेताओं और उनसे जुड़े लोगों के यहां छापेमारी होने लग जाती थी लेकिन अब ख़बर छापने और दिखाने के कारण भी छापेमारी होने लगी है. आपातकाल शब्द इतना घिस चुका है कि आप इसके इस्तमाल से कुछ भी नहीं कह पाते हैं. काल के नए नए रूप आ गए हैं. दूसरी लहर के दौरान हिन्दी ही नहीं अंग्रेज़ी अखबारों में भास्कर अकेला ऐसा अख़बार है जिसने नरसंहार को लेकर सरकार से असहज सवाल पूछे. उन बातों से पर्दा हटा दिया जिन्हें ढंकने की कोशिश हो रही थी. इस दौरान भास्कर के पत्रकारों ने केवल अच्छी रिपोर्टिंग नहीं की बल्कि महामारी की रिपोर्टिंग में नए-नए पहलू भी जोड़े. भास्कर समूह के गुजराती अख़बार दिव्य भास्कर ने जब कोरोना की दूसरी लहर में मरने वालों की सरकारी संख्या के सामने नए नए दस्तावेज़ पेश किए तो न्यूयार्क टाइम्स से लेकर कई अंतरराष्ट्रीय मीडिया संस्थानों ने भास्कर की तरफ देखा. रिसर्चरों ने भास्कर के इस्तमाल किए गए डेटा के आधार पर भारत में मरने वालों की संख्या का आंकलन किया. बताया कि जो संख्या बताई जा रही है उससे कई गुना लोगों की मौत हुई है. क्या ऐसा करने की कीमत यह होगी कि आयकर और प्रत्यर्पण विभाग का छापा पड़ेगा?

गोदी मीडिया के दौर में पाठक और पत्रकारिता पर नज़र रखने वाले भी हैरान थे कि दूसरी लहर के समय भास्कर को क्या हुआ है, इतना कैसे लिख रहा है. यहां ज़िक्र करना ज़रूरी होगा कि भास्कर के साथ गुजरात के अख़बार गुजरात समाचार, संदेश, सौराष्ट्र समाचार, कच्छ समाचार जैसे अख़बार भी खुल कर रिपोर्टिंग कर रहे थे. पेगसस जासूसी कांड की खबर पहले दिन कई हिन्दी अख़बारों से नदारद थी लेकिन भास्कर के पहले पन्ने पर पूरे विस्तार से मौजूद थी. उसके बाद भी भास्कर ने इस खबर को पहले पन्ने से नहीं हटाया. दूसरी लहर में भास्कर की आक्रामक हेडलाइन को अनदेखा नहीं कर सकते हैं. सूरत के सांसद सी आर पाटिल ने कहा कि उनके पास रेमडिसिवर हैं और जनता इस दवा के लिए त्राही त्राही कर रही थी तब भास्कर ने सांसद का नंबर ही प्रकाशित कर दिया कि उन्हें फोन कर लें. इस तरह के साहसिक प्रयोग भास्कर ने खूब किए. जो कि उस दौरान या कभी भी किसी मीडिया संस्थान को करना ही चाहिए था. भास्कर का गुजराती संस्करण दिव्य भास्कर का पहला पन्ना ग़ैर गुजराती पाठकों के बीच साझा होने लगा लेकिन भास्कर की रिपोर्टिंग किसी एक सरकार तक सीमित नहीं रही. सूरत से लेकर जयपुर, भोपाल से लेकर प्रयागराज और लखनऊ से लेकर पटना तक में फैले उसके संवाददाताओं ने श्मशान, मुर्दाघरों और मृत्युपंजीकरण की व्यवस्था को खंगाल दिया. राजस्थान में कांग्रेस की सरकार है लेकिन वहां भी भास्कर ने सरकार के खिलाफ लिखना नहीं छोड़ा. पटना में भास्कर के संवाददाताओं ने कई श्मशान घाटों और गांवों का दौरा कर बताया कि मरने वालों की संख्या सरकारी आंकड़े से कई गुना ज्यादा है. माना जा सकता है कि इस रिपोर्टिंग का भी दबाव रहा होगा कि राज्य सरकार को मरने वालों की संख्या में बदलाव करना पड़ा. उस दौर में नए नए तथ्यों को सामने लाना किसी की भी ज़िम्मेदारी थी ताकि लोग देख सकें कि उनके जीवन के साथ किस तरह का खिलवाड़ हुआ है. भास्कर की इस साहसिक रिपोर्टिंग के सामने हिन्दी के कई अखबार पिछड़ने लगे. पाठकों के संसार में एक अंतर प्रमुखता से दिखने लगा कि कोरोना को लेकर क्या हुआ है. कुछ और हिन्दी अखबारों ने भी रिपोर्टिंग की लेकिन डर कर और बच-बचा कर. शायद इसी वजह से भास्कर के संस्थानों पर छापे पड़े हैं. सरकार बेशक छापों को सही ठहराने के लिए सौ तर्क बता देगी लेकिन यह केवल संयोग नहीं है. आज भी भोपाल भास्कर की यह खबर देख सकते हैं जिसमें बताया गया है कि सरकार कहती है आक्सीजन की कमी से कोई नहीं मरा लेकिन लेकिन मध्य प्रदेश में ही 15 हादसों में साठ लोगों की मौत आक्सीजन की कमी से हुई है.

इस तरह की रिपोर्टिंग से लोग यह भी चर्चा कर रहे थे कि जल्दी ही भास्कर के संस्थानों में छापे पड़ेंगे और छापे पड़ भी गए. एक दलील दी जाती है कि काले कारनामे होंगे तो छापे पड़ेंगे तो यह छापे तभी क्यों पड़ते हैं जब कोई मीडिया हाउस सवाल करने लगता है. सरकार के झूठ को चुनौती देने लगता है. क्या इसी तर्क से यह भी माना जाए कि गोदी मीडिया इसलिए बना क्योंकि उसके अपने काले कारनामे हैं और छापे पड़ सकते हैं. जब रफाल विमान सौदे में भ्रष्टाचार की खबर छपती है तब तो सरकार जांच नहीं करती, जब पीएम केयर्स के वेंटिलेटर के खराब होने को लेकर डॉक्टर सवाल उठाते हैं तब तो पत्रकार जांच नहीं करती और न कोई एजेंसी अपना काम करती है. जब पत्रकारों की जासूसी होती है तब तो सरकार जांच नहीं करती. जब सरकार खुद भ्रष्टाचार के मामलों का अपना राजनीतिक इस्तमाल करती है तब तो जांच एजेंसियां अपना काम नहीं करती हैं. ये जांच एजेंसियां तभी क्यों काम करती हैं जब कोई अखबार या चैनल थोड़ा सा काम करने लगता है.

21 जुलाई को न्यूज़लौंड्री वेबसाइट पर आयुष तिवारी और बसंत कुमार की एक रिपोर्ट छपी है. यह रिपोर्ट एक RTI के आधार पर है जो DD News के पत्रकार उमाशंकर दूबे ने लगाई थी. न्यूज़लौंड्री की इस रिपोर्ट में लिखा है कि यूपी सरकार ने अप्रैल 2020 से मार्च 2021 के बीच न्यूज़ चैनलों को 160 करोड़ से अधिक का विज्ञापन दिया. इस सूची में वही चैनल हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि सरकार से सवाल नहीं करते हैं. अगर सरकार पत्रकारिता का समर्थन कर रही होती तो उसे भी विज्ञापन देती जो उससे सवाल करते हैं. साफ है सरकार की प्राथमिकता पत्रकारिता को प्रोत्साहित करने की नहीं बल्कि विज्ञापन के डंडे से चुप कराने की है.

क्या यह सही नहीं है कि विपक्ष के विधायकों को तोड़ने के लिए एजेंसियों का इस्तमाल हुआ है. मुकुल राय का उदाहरण सबसे बड़ा है. पहले उन पर घोटाले का आरोप लगाया गया फिर बीजेपी में लाकर उपाध्यक्ष बनाया गया. इसलिए कारनामों को पकड़ने की यह डिज़ाइन कारनामों से ज़्यादा आवाज़ दबाने की ही लगती है. जिस समय सरकार पत्रकारों और विपक्षी नेताओं के फोन की जासूसी के आरोप से घिरी हो उसी समय ये छापे बता रहे हैं कि वह इस दिशा में कितना आगे बढ़ चुकी है.

भारत समाचार के ब्रजेश मिश्र, इस चैनल के स्टेट हेड वीरेंद्र सिंह के घर और दफ्तर पर भी छापे पड़े हैं. भारत समाचार पर भी लगातार उन सवालों को लेकर कवरेज़ हुआ है जिनमें यूपी सरकार से सीधे सवाल किए गए हैं. इस चैनल के संपादक अपने ट्वि‍टर हैंडल पर लगातार यूपी के मुख्यमंत्री की आलोचना कर रहे थे. यही नहीं, जब छापे पड़ रहे थे तब भी भारत समाचार फ्लैश कर अपने दर्शकों को बता रहा था कि संपादक ब्रजेश मिश्र और वीरेंद्र सिंह के घर पर छापे पड़ रहे हैं और चैनल दावा करता रहा कि वह इन छापों से डरने वाला नहीं है. इस चैनल पर पड़े छापों को यूपी चुनाव से भी जोड़ा जा रहा है ताकि बाकी चैनलों की तरह ये भी सरकार की आलोचना छोड़ दे.

छापों और मुकदमों से किसी को भी अपराधी साबित कर देना मुश्किल काम नहीं है. जब इस देश में किसी डॉक्टर पर अवैध रूप से NSA लग सकता है, मणिपुर के एक्टिविस्ट एरेड्रो ने इतना लिख दिया कि कोरोना का इलाज गौमूत्र नहीं है तो उन्हें NSA लगाकर दो महीना जेल में बंद किया जा सकता है तो कुछ भी हो सकता है. सरकार हर छापे को सही ठहरा सकती है. पत्रकारों के फोन की जासूसी हो रही है, फिर सरकार की कोई एजेंसी अपना काम नहीं कर रही है न सरकार जांच कर रही है. बुधवार को एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने एक बयान जारी कर पत्रकारों की जासूसी की निंदा की है औऱ कहा है कि एडिटर्स गिल्ड इस बात से हैरान है कि कथित रूप से सरकारी एजेंसियां पत्रकारों पर इस तरह से निगरानी रख रही हैं. सामाजिक कार्यकर्ता, बिज़नसमैन और राजनेताओं के फोन पर भी नज़र रखी जा रही है. चूंकि पेगसस सॉफ्टवेयर बनाने वाली कंपनी NSO दावा करती है कि केवल सरकार को ही बेचती है इससे और भी संदेह होता है कि भारत सरकार अपने नागरिकों की जासूसी में शामिल है. यह पूरी तरह से अभिव्यक्ति की आज़ादी और प्रेस की आज़ादी पर प्रहार है. जासूसी से यह बताने का प्रयास किया जा रहा है कि पत्रकारिता और राजनीतिक असहमति को आतंक समझा जाएगा.

एक अख़बार के साथ केवल एक पत्रकार खत्म नहीं होता है, एक पत्रकार के साथ एक अखबार खत्म नहीं होता है, एक अखबार और एक पत्रकार के साथ लाखों की संख्या में पाठक भी ख़त्म हो जाते हैं. दर्शक भी ख़त्म हो जाते हैं. ऑस्ट्रेलिया में रहने वाले NRI अंकिलों को याद दिलाइये 21 अक्तूबर 2019 का दिन, जब वहां का प्रेस एक छापे के खिलाफ एकजुट हो गया था. इसे देखने के बाद शुक्रवार की सुबह के हिन्दी अखबारों को देखिएगा, मुमकिन है कई अखबार छापों के समर्थन में संपादकीय लिख रहे होंगे.

21 अक्तूबर 2019 की सुबह ऑस्ट्रेलिया के अखबार “The Daily Telegraph, Financial Review, The Australian, The Sydney Morning Herald, The Canberra Times, The herald sun, The age का पहला पन्ना इस तरह छपा था. कोई ख़बर नहीं थी. पन्ना ख़ाली तो नहीं था लेकिन इस तरह से छापा जैसे लिखी हुई ख़बरों को स्याही से पोत दिया गया हो. पहले पन्ने पर ही कोने में एक लाल रंग का स्टैंप लगा है जिस पर सीक्रेट लिखा है और किनारे पर लिखा है नॉट फॉर रिलीज़. इसके ज़रिए अखबारों ने बताया कि हर अख़बार की एक दूसरे से प्रतियोगिता है लेकिन उन्होंने यह कदम ऑस्ट्रेलिया के नागरिकों के जानने के अधिकार की रक्षा के लिए उठाया है. किसी भी देश में मीडिया का स्वतंत्र होना बहुत ज़रूरी है. वर्ना सत्ता में बैठे लोग सनक जाते हैं. विदेशी कंपनियों के साथ लैंड डील हो रही है, जनता की जासूसी हो रही है, लेकिन जब पत्रकार इसकी खबरें लिखता है तो छापे पड़ते हैं, गिरफ्तारियां होती हैं और मुकदमों में घसीटकर उसके करियर को बर्बाद कर दिया जाता है. ऑस्ट्रेलिया के अख़बारों का कहना है कि अगर फ्री प्रेस नहीं होता तो बैंक में हुए घोटाले और बुज़ुर्गों के केयर सेक्टर में धांधली की ख़बरें कभी बाहर ही नहीं आ पातीं. इसका असर भी हुआ. इस अभियान का असर हुआ और ऑस्ट्रेलिया की फेडरल पुलिस को कहना पड़ा कि वह पत्रकारों के छापे के मामले में सतर्कता बरतेगी. 2019 में ऑस्ट्रेलिया की फेडरल पुलिस ने न्यूज़ कोर के राजनीतिक पत्रकार अन्निका स्मेथर्स्ट के यहां छापा मारा था. एबीसी के सिडनी मुख्यालय में भी छापे पड़े थे. अटार्नी जनरल क्रिश्चियन पोर्टर को आदेश देना पड़ा कि बग़ैर उनकी अनुमति के किसी पत्रकार के खिलाफ कार्रवाई नहीं होगी. वे किसी पत्रकार पर मुकदमा चलाने की अनुमति नहीं देना चाहेंगे. यह जनहित में ज़रूरी है.

ऑस्ट्रेलिया के मीडिया संस्थानों ने एक वेबसाइट भी बनाई है yourrighttoknow.com.au. इस पर लिखा है “When government keeps द truth from you, what are they covering up?” अगर सरकार आपसे सच छुपाना चाहती है तो छुपा क्या रही है. एक छापे को लेकर ऑस्ट्रेलिया के सारे छोटे बड़े अखबार, चैनल एक साथ आ गए थे. ऑस्ट्रेलियन बिजनेस रिव्यू ने लिखा कि you have a right to be -suspicious and concerned. यानी संदेह करना और चिन्तित होना आपका अधिकार है. राष्ट्रीय सुरक्षा और सीक्रेट के नाम पर वर्षों से सरकारें, अदालतें और संस्थाएं अपनी दीवार ऊंची करती जा रही हैं. कानून बना रही हैं ताकि मीडिया को मुकदमे में फंसाकर आपको बताने से रोक सकें. 2001 से 75 ऐसे कानून बने हैं जिनके कारण पता चलना मुश्किल हो गया है कि देश में चल क्या रहा है. पत्रकारों को देश का दुश्मन बना कर नया चलन शुरू हुआ है. आपको लगातार व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के रिश्तेदार मैसेज भेजते ही होंगे कि फलां पत्रकार देश का दुश्मन है.

Journalists are not दि enemy पत्रकार दुश्मन नहीं है, इसी नाम से 16 अगस्त 2018 को अमरीका के 300 से अधिक अखबारों ने एक बड़ा अभियान चलाया. उस दिन 300 से अधिक अखबारों ने संपादकीय छापा था कि कैसे प्रेस की स्वतंत्रता प्रभावित हो रही है. इस अभियान का नेतृत्व 146 साल पुराने अखबार द Boston Globe ने किया था. बॉस्टन ग्लोब ने अपनी वेबसाइट पर उन सभी संपादकीयों को छापा था. ऐसा बहुत कम होता है जब एक अखबार 300 से अधिक दूसरे अखबारों के संपादकीय को अपने यहां जगह दे. यह बताने के लिए कि कैसे राष्ट्रपति ट्रंप मीडिया की स्वतंत्रता पर हमला कर रहे हैं. वे अक्सर मीडिया को फेक न्यूज़ कहते रहते हैं. पत्रकारों को जनता का शत्रु कहते रहते हैं जबकि पत्रकार शत्रु नहीं हैं. न्यूयॉर्क टाइम्स ने अपने संपादकीय में 1964 में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का हवाला दिया कि सार्वजनिक बहस खुलेमन से होनी चाहिए. कई बार सरकार और सरकारी अधिकारियों पर जमकर हमले होने चाहिए भले ही वह किसी को अच्छा न लगे. न्यूज़ मीडिया की आलोचना ठीक है. कुछ गलत छपा हो तो उसकी आलोचना ठीक है. न्यूज़ रिपोर्टर और संपादक इंसान हैं. उनसे गलतियां हो सकती हैं. उन्हें ठीक करना हमारे पेशे का अहम हिस्सा है. लेकिन जो सत्य पसंद नहीं है उसे फेक न्यूज़ कहना लोकतंत्र के लिए खतरनाक है.

ऑस्ट्रेलिया और अमरीका का यह उदाहरण इसलिए दिया क्योंकि आपसे एक सवाल पूछना है. जब भारत में पत्रकारों पर मुकदमे होते रहे, संगीन धाराओं में जेल में बंद किया गया, उनके फोन की जासूसी हुई, छापे पड़े तब क्या आपने ऐसा कुछ सोचा, सोचा कि आपका क्या होगा. इस वक्त जब ज़्यादातर पत्रकार चुप हैं और सरकार के साथ हैं या ऐसे तर्क खोज रहे हैं जिससे सरकार को सही बता सकें फिर भी कुछ पत्रकार हैं जो बोल रहे हैं.

अजित अंजुम, आरफ़ा ख़ानम शेरवानी, दीपल त्रिवेदी, राणा अय्यूब, रोहिणी सिंह, अवधेश अकोदिया, अभिसार शर्मा, मोहम्मद ज़ुबेर, श्माय मीरा सिंह, पुण्य प्रसून वाजपेयी, सुप्रिया शर्मा कई पत्रकारों ने भारत समाचार और दैनिक भास्कर समूह के दफ्तरों में पड़े छापे का विरोध किया है. कहा है कि इन छापों के खिलाफ खड़े होने का वक्त है. भास्कर को दूसरी लहर के दौरान खबर करने की कीमत चुकानी पड़ी है और भारत समाचार को भी जो यूपी में अकेला योगी सरकार से सवाल पूछ रहा था. प्रेस क्लब ऑफ डंडिया ने भी ट्वीट किया है कि जांच एजेंसियों का इस्तमाल कर स्वतंत्र मीडिया को जिस तरह से डराया धमकाया जा रहा है, उसे लेकर काफी चिन्तित है.

सवाल सिर्फ छापे का नहीं है, पत्रकारो के फोन की जासूसी का है, उन पर किए जा रहे मुकदमों का है. मारने पीटने का है. सरकार से सवाल करने वालों को फर्ज़ी सबूतों के ज़रिए संगीन आरोपों में फंसा कर जेल में बंद कर दने का सवाल है. अगर आप व्यापक संदर्भ में देखें तो आज भारत में पत्रकारिता की स्थिति कहीं ज़्यादा बदतर हुई है. प्रेस की आज़ादी के मामले में भारत का रैंक लगातार गिरता जा रहा है.

गुरुवार को प्रेस क्लब आफ इंडिया में एक बैठक हुई. संपादकों की संस्था एडिटर्स गिल्ड, प्रेस एसोसिएशन, दिल्ली यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट, वर्किंग न्यूज़ कैमरामैन एसोसिएशन, इंडियन विमेन प्रेस कोर दिल्ली, और तमाम अन्य संगठनों की बैठक में फैसला लिया गया कि पत्रकारों, जजों और विपक्ष के नेताओं के फोन की जासूसी के मामले में क्या करना है. सवाल है कि जब फ्रांस के राष्ट्रपति ने जांच के आदेश दिए हैं तब भारत क्यों पीछे हट रहा है. फ्रांस के राष्ट्रपति ने जांच के आदेश इसलिए दिए हैं कि फ्रांस के नागरिकों के फोन की जासूसी हुई है तो फिर भारत सरकार क्यों चुप है. लेकिन पत्रकारों के यहां पहुंचने से पहले ही दैनिक भास्कर और भारत समाचार के दफ्तरों और संपादकों के घर में छापे पड़ने की खबर फैल चुकी थी.

पुलित्‍ज़र पत्रकार दानिश सिद्दीकि की तालिबान के हाथों हत्या को लेकर प्रधानमंत्री ने एक शब्द नहीं कहा. कोरोना की दूसरी लहर के दौरान दैनिक भास्कर ने गहलोत सरकार की खूब आलोचना की और राज्य सरकार के दावों से अलग रिपोर्टिंग की. आज भी जयपुर भास्कर में ऐसी खबर छपी है जो राजस्थान सरकार के खिलाफ समझी जा सकती है लेकिन वो खबर है राजस्थान की जनता के हक में. इसके बाद भी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भास्कर समूह के दफ्तरों में पड़े छापों का विरोध किया है और ट्वीट किया है. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा है कि आज का छापा मीडिया को डराने का प्रयास है. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इन छापों की निंदा की है और कहा है कि मीडिया में सभी को मिलकर मुकाबला करना चाहिए. डरना नहीं चाहिए.

मुमकिन है इन छापों को सही ठहराने के लिए व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी वाले रिश्तेदार पचास बातें फैला चुके हों लेकिन आप खुद से एक सवाल पूछिए कि आपके जानने वालों में जो ऑक्सीजन की कमी से मर गए उन्होंने मरने का नाटक किया था ताकि विदेशों में सरकार बदनाम हो जाए, क्या उसकी रिपोर्टिंग की इस तरह कीमत चुकानी पड़ेगी. आज संसद में भी विपक्ष के सांसदों ने जासूसी और छापों को लेकर सवाल उठाए हैं.

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आप पाठक और दर्शक अगर छापे और मुकदमे की इन खबरों को देखकर बहुत डर गए हैं तो एक बात बताता हूं. अखबार पढ़ना छोड़ दीजिए. न्यूज़ चैनल देखना बंद कर दीजिए. जब ऑक्सीजन की कमी से कोई नहीं मरा है तो ऑक्सीजन भी लेना छोड़ दीजिए. दैनिक भास्कर से सैकड़ों संवाददाता और संपादक आज ट्वीट करते रहे कि मैं स्वतंत्र हूं क्योंकि मैं भास्कर हूं. भास्कर में चलेगी पाठकों की मर्ज़ी.