मार्च खत्म होते-होते मौत ने जैसे अपने बही खाते का आखिरी हिसाब वसूल लिया- हिंदी की जानी-मानी लेखक, संपादक और संचयनकर्ता रमणिका गुप्ता को अपने साथ ले गई. पीछे छूट गए हमारी तरह के पेशेवर श्रद्धांजलि लेखक- यह बताने के लिए कि इस साल अर्चना वर्मा, कृष्णा सोबती और नामवर सिंह के बाद हिंदी के साहित्याकाश को हुई चौथी क्षति है और यह जोड़ने के लिए कि 89 को छूती उम्र में रमणिका गुप्ता का निधन शोक का नहीं, एक जीवन की संपूर्णता को महसूस करने का विषय है.
रमणिका जी से मेरी आखिरी मुलाकात इत्तिफ़ाक़ से एक श्रद्धांजलि सभा में हुई थी. दिल्ली के राजेंद्र भवन में अर्चना वर्मा की स्मृति में आयोजित कार्यक्रम में वे आई थीं और पहली पंक्ति में बैठी हुई थीं. उन्होंने मुझे बताया कि वे 20 दिन अस्पताल में रहकर आई थीं. उनके कुछ रुक्ष और भिंचे हुए चेहरे से उस तकलीफ़ का कुछ एहसास भी मिल रहा था जो वे झेलती रही होंगी. लेकिन मैंने कुछ हंसते हुए कहा- आपको कुछ नहीं होगा, आप बार-बार लौटकर आती रहेंगी.
यह मजाक पिछली कुछ मुलाकातों पर पहले भी मैं उनसे दुहराता रहा था. दिल्ली में रहते हुए भी उनके पास न जाने की, कभी उनका हाल-चाल न ले पाने की जो कैफ़ियत मेरे पास नहीं हुआ करती थी, उसे टालने के लिहाज से यह मजाक बहुत कारगर हुआ करता था. वे हंस कर रह जातीं. वे जिस जीवट और जुझारू मानसिकता की महिला थीं- उसका मुझे अंदाज़ा था. उन्होंने राजनीतिक आंदोलन किए थे, एकाध अवसरों पर पुलिस की मार भी खाई थी, बीमारियों से लगातार लड़ती और फिर उठती रही थीं. न जाने कितने साल उन्होंने मृत्यु को अपने दरवाज़े से लौटाया हुआ था.
मेरा उनसे बहुत पुराना परिचय था. जब दिल्ली उनको ठीक से नहीं जानती थी, तब से मैं उनको जानता था. 1985 के आसपास कभी पहली बार वे हमारे घर आई थीं. वे हमारे यहां कुछ दिन ठहरी भी थीं. अगले कुछ वर्षों में एक तरह का पारिवारिक नाता उनके साथ बन चुका था. इत्तिफ़ाक से मेरी बिल्कुल प्रारंभिक कहानियों में एक 'वजह' उनकी पत्रिका 'आम आदमी' में छपी थी. बाद में इसी का नाम उन्होंने 'युद्धरत आम आदमी' कर दिया था. जब मेरी कहानी छपी तब शायद मैं 18 साल का था. बाद के अंकों में उन्होंने मेरी कविताएं भी छापीं और एक साझा संग्रह में प्रकाशित भी कीं.
उन्हीं दिनों उनका कविता संग्रह 'प्रकृति युद्धरत है' छप कर आया था. मैंने उसकी एक लंबी समीक्षा 'पाटलिपुत्र टाइम्स' के लिए लिखी थी. यह शायद 1987 का साल था. 19 साल की उम्र में तब कविता की मेरी समझ बन ही रही होगी, लेकिन उस संग्रह ने मुझे ख़ासा प्रभावित किया. वह समीक्षा बाद में रमणिका जी ने अपने किसी संग्रह में शामिल भी की.
90 के दशक में रमणिका जी ने दिल्ली को अपना ठिकाना बनाया और अपनी कार्यस्थली भी. वे महत्वाकांक्षी भी थीं और साधन संपन्न भी. दिल्ली ने उनको हाथों-हाथ लिया. लेकिन रमणिका गुप्ता ने अपनी मूल प्राथमिकताएं कभी बदली नहीं. दलित, आदिवासी और स्त्री साहित्य उनके केंद्रीय सरोकार रहे. आने वाले वर्षों में उन्होंने जैसे अपनी सारी ऊर्जा, अपनी सारी निधि जैसे इन्हीं सरोकारों के लिए झोंक दी. युद्धरत आम आदमी के विशेषांक पर विशेषांक अपने-आप में हिंदी ही नहीं, बल्कि भारतीय साहित्य की धरोहर हो गए. अलग-अलग भाषाओं में महिलाओं द्वारा लिखी गई रचनाओं पर केंद्रित उन्होंने एक शृंखला "हाशिए उलांघती स्त्री' के नाम से प्रकाशित की. अलग-अलग भाषाओं का दलित साहित्य भी प्रकाशित किया. आदिवासियों पर केंद्रित विशेषांक भी निकालती रहीं. मुझे याद है कि जब स्त्री-रचनाशीलता पर केंद्रित अंक उन्होंने निकाला तो उसमें छह पृष्ठ मेरी मां शैलप्रिया की कविताओं के लिए भी दिए. उनकी नज़र दूर-दराज की सक्रियताओं पर रहा करती और उनको मंच देने में वे कभी संकोच नहीं करतीं. झारखंड और दूसरे इलाक़े से आने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं और आंदोलनकारियों के लिए उनका घर अक्सर खुला रहता था.
मुझे याद नहीं आता कि हिंदी में किसी और व्यक्ति ने भारतीय भाषाओं में लिखे जा रहे आदिवासी-दलित और स्त्री लेखन को लेकर इतना बड़ा काम किया हो.
इस दौरान वे लगातार लिखती भी रहीं. यह स्वीकार करूं कि बाद के वर्षों में उनके लेखन का मैं बहुत मुरीद नहीं था. बेशक उनकी आत्मकथा अपहुदरी खूब चर्चित हुई जिसमें उनकी साहसिकता भरपूर मिलती है. लेकिन फिर भी रमणिका गुप्ता फाउंडेशन की ओर से उन्होंने जो काम किया, वह अपने-आप में अद्वितीय और ऐतिहासिक है. इस काम की मार्फ़त रमणिका गुप्ता साहित्य के इतिहास और लोगों की स्मृति में हमेशा बनी रहेंगी.
बेशक, उनका जीवन भी किसी मिसाल से कम नहीं. वे कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ी रहीं, बिहार विधान परिषद तक की सदस्य बनीं, उन्होंने किताबें लिखीं, पत्रिका निकाली, एक के बाद एक आयोजन किए, दूर-दराज के लेखन को प्रोत्साहन दिया, नवलेखन के लिए जगह निकाली- और यह सब करते हुए कभी किसी की मोहताज नहीं दिखीं. यह सिर्फ़ आर्थिक संपन्नता से संभव नहीं था, इसके लिए बहुत समर्पित किस्म की वैचारिकता भी चाहिए थी जो अगर नहीं होती तो वे निजी महत्वाकांक्षाओं के उजाड़ में अकेले खड़े किसी विद्रूप सी नज़र आतीं- उस वट वृक्ष की तरह नहीं, जिसने एक पूरा पर्यावरण बनाया हो.
उनका जाना सच्चे अर्थों में निजी स्तर पर चलाए जा रहे एक बड़े आंदोलन का अंत है. दलितों-आदिवासियों का एक बड़ा पक्षधर चला गया है.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...
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