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This Article is From Sep 21, 2016

#युद्धकेविरुद्ध : युद्धवाद के बीमार मनोविज्ञान से उबरें...

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    सितंबर 25, 2016 14:30 pm IST
    • Published On सितंबर 21, 2016 14:08 pm IST
    • Last Updated On सितंबर 25, 2016 14:30 pm IST
उरी में आतंकियों के हमले में 18 भारतीय सैनिकों के मारे जाने से पैदा ग़म और गुस्सा अपनी जगह पूरी तरह जायज़ है. यह उचित ही है कि लोग पूछें कि कब तक ऐसी घटनाएं होती रहेंगी और हम अपने जवानों को गंवाते रहेंगे. यह याद दिलाना भी उचित है कि जब भी ऐसी घटनाएं होती हैं, भारत दुनिया भर के मंच पर पाकिस्तान के ख़िलाफ़ मोर्चा खोलता है, एक डोजियर तैयार करता है और पाकिस्तान की घेराबंदी का दम भरता है. लेकिन कुछ ही दिन बाद पाकिस्तान इस डोज़ियर को बेमानी और सबूतों को नाकाफ़ी ठहराकर आगे बढ़ जाता है.

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सवाल है, भारत इसके आगे क्या करे? जवाब कई तरह के जानकार और आम लोग दे रहे हैं. सबकी राय जैसे इशारा कर रही है कि हमें पाकिस्तान पर हमला बोल देना चाहिए- कम से कम पाक अधिकृत कश्मीर में जाकर आतंकी शिविरों को नष्ट कर देना चाहिए. लेकिन यह, वह मोड़ है जहां पहुंच-पहुंच कर भारतीय सरकारें जैसे ठिठकती रही हैं. पिछले एक दशक में कम से कम तीन-चार ऐसे मौक़े आए हैं जब लगा कि भारत युद्ध के उकसावे और प्रलोभन में अपने पांव उलझा बैठेगा. जाहिर है, राजनीतिक दलों की बयानबाज़ी अपनी जगह है, एक सरकार के रूप में अपनी मजबूरियों की समझ एक दूसरी बात. (युद्ध के विरुद्ध में यह भी पढ़ें : सत्ता का सोशल मीडिया काल और युद्धोन्मादी ताल)

लेकिन सवाल है, भारत युद्ध क्यों नहीं कर सकता? पाकिस्तान को अगर सबक सिखाना ज़रूरी है तो उसका क्या रास्ता है? इसका पहला जवाब तो यह है कि आज की भूमंडलीय दुनिया में- या शायद पिछली सदियों में भी- कोई भी युद्ध सिर्फ़ दो मुल्कों की आपसी सैन्य ताकत का टकराव नहीं होता. एक युद्ध के पीछे बहुत सारी शक्तियां सक्रिय होती हैं, उसमें बहुत सारे साधन दांव पर होते हैं और कोई भी देश- अपनी विजेता हैसियत के बावजूद- दशकों तक उसके दंश झेलता है. आज की तारीख़ में भारत और पाकिस्तान के बीच कोई भी युद्ध एक बड़ा चेन-रिऐक्शन पैदा करेगा जिसके सिरे सुलगते हुए दक्षिण एशिया और पश्चिम एशिया तक ही नहीं, चीन और अमेरिका तक पहुंच सकते हैं. फिर जब हम याद करते हैं कि भारत और पाकिस्तान, दोनों आज की तारीख में ऐटमी ताक़तें हैं तो इसके कुछ और खतरनाक नतीजों की तरफ ध्यान जाता है.

दूसरी बात यह कि युद्ध भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान को जितना रास आता है, उससे कहीं ज़्यादा पाकिस्तान के सैन्य प्रतिष्ठान के काम आता है. एक पराजित और ज़ख़्मी पाकिस्तान अपने बचे-खुचे लोकतांत्रिक ढांचे को छो़ड़कर फिर सेना की शरण में जा सकता है और एक नया संकट पैदा कर सकता है. 1971 की जंग के बाद पाकिस्तान दक्षिण एशियाई नरम मुल्क की जगह पश्चिम एशियाई कट्टर मुल्क में बदलता नज़र आया, उसने इस्लाम का नाम लेना शुरू किया और ऐटम बम बनाने की बात की. उसी दौर का पाकिस्तान है जो अस्सी के दशक तक आकर हमारी मुसीबत बनने लगता है. तो युद्ध या युद्ध जैसी कार्रवाई पाकिस्तान में कट्टरपंथी ताकतों को ही मज़बूती देती है और उसके सैन्यीकरण को एक नई वैधता प्रदान करती है.

बहरहाल, युद्ध का विरोध सिर्फ़ इसलिए नहीं होना चाहिए कि उसमें नुक़सान या हार का अंदेशा है. अंततः हम सेना बनाते हैं, हथियारों पर बहुत सारी रकम ख़र्च करते हैं और देश की सुरक्षा का एक बड़ा जाल बुनते हैं तो इसलिए कि युद्ध को निर्णायक न कहने के मानवीय विवेक के बावजूद यह राजनीतिक या रणनीतिक समझ बची रहती है कि किन्हीं मजबूरियों में युद्ध अपरिहार्य भी हो सकते हैं. वे एक सुंदर नहीं, कुरूप विकल्प हैं जो तभी आजमाए जाने चाहिए जब एक देश और समाज के रूप में हमारी सांस बिल्कुल रुंधने लगे.

लेकिन युद्ध की मजबूरी एक बात है, वह युद्धपिपासुता दूसरी बात जो इन दिनों भारत में बड़ी तेज़ी से बढ़ रही है. अपने-अपने ड्राइंग रूम में बैठे खाते-पीते मध्यवर्गीय भारत से लेकर टीवी चैनलों पर विराजमान पूर्व फौजी अफ़सरों से लेकर पूर्व कूटनीतिज्ञों तक- हर कोई जैसे युद्ध करने पर आतुर है- जैसे एक राष्ट्रीय प्रतिशोध भाव है जो बिल्कुल लपलपाती युद्धवादी लालसा में बदल रहा है. असली सवाल यहीं छुपा है- इस युद्धवाद में कितना देशप्रेम है और कितना वह उन्माद जो हाल के वर्षों में बाकायदा एक विचारधारा की तरह विकसित किया गया है? वे कौन से लोग हैं जो विपक्ष में रहते हुए भारत के पौरुष को ललकारते रहे और एक के बदले दस सैनिकों के सिर काटकर लाने की बात करते रहे?

दरअसल पिछले कुछ वर्षों के दौरान प्रधानमंत्री से लेकर विदेश मंत्री तक की भाषा पर ध्यान दें तो यह साफ़ दिखता है कि उन्होंने एक युद्धोन्मादी माहौल बनाया है. पाकिस्तान को लव लेटर लिखने से लेकर एक के बदले दस-दस सिर काट लाने के जुमले हवा में ऐसे उछाले गए कि लगा कि नई सरकार आएगी तो पाकिस्तान किसी बिल में दुबक जाएगा. ख़तरनाक बात यह है कि यह युद्धवाद दरअसल सिर्फ पाकिस्तान विरोधी नहीं है, वह भारत में दक्षिणपंथी राजनीति का एक बड़ा मकसद पूरा करता है. वह पाकिस्तान पर बाद में हमला करता है, अपने देश के भीतर उन लोगों पर पहले हल्ला बोलता है जो अमन या बातचीत की वकालत करते हैं और चाहते हैं कि यह युद्धभाषा न बोली जाए. वह एक नकली और आक्रामक विकास का मिथ रचता है जिसके पोषण के लिए हर तरह की सामाजिक समरसता या समानता के तकाज़े की अनदेखी करने को तैयार रहता है. यहां से देखें तो एक शक्तिशाली भारत का जो मिथ और सपना भारत के नए मध्यवर्ग को लुभाता है, वह इतना मज़बूत है कि यह वर्ग बिल्कुल अतार्किकता की हदों तक जाकर उसका सुख लेना चाहता है.

इस रास्ते में वह उन राष्ट्रीय विफलताओं को देखने को भी तैयार नहीं जिनकी वजह से देश असुरक्षित होता है, हमारे जवान मारे जाते हैं. मसलन, पहले पठानकोट और अब उरी में सैन्य शिविरों पर जो ख़ौफ़नाक हमला हुआ, उसमें हम सीमा पार की घुसपैठ को ज़िम्मेदार ठहराकर अपना हाथ झाड़ ले रहे हैं. जबकि यह कोई नहीं पूछ रहा कि इस आतंकवादी घुसपैठ को ऐसी अंदरूनी मदद कैसे मिली कि चार आतंकी बिल्कुल हमारे शिविरों तक पहुंच गए? क्योंकि इस हमले के लिए सिर्फ नियंत्रण रेखा की बाड़ को पार करना काफी नहीं था- आतंकियों ने कम से कम सुरक्षा के दो और घेरे बड़ी आसानी से पार कर लिए. जाहिर है, यह एक भारी चूक है जिसे सीमा पार उंगली दिखाकर हम ढंकने की कोशिश कर रहे हैं.

लेकिन फिर सवाल यही बचता है कि हम पाकिस्तान का क्या करें. क्योंकि इसमें संदेह नहीं कि जो भी हरकतें हो रही हैं, उनको सीमा पार की शह मिली हुई है. इस सवाल का कोई आसान जवाब नहीं है. लेकिन यह स्पष्ट है कि भारत के सामने कूटनीतिक घेराबंदी के अलावा और कोई रास्ता नहीं है. भारत यह कूटनीतिक घेराबंदी करता भी रहा है और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उसको समर्थन भी मिलता रहा है. लेकिन यहां भी एक पेच है. भारत की यह घेराबंदी तब कहीं ज़्यादा कारगर होगी जब भारत की ताकत और हैसियत को लेकर दुनिया अपनी राय बदलेगी.

इसका सीधा मतलब यह है कि भारत जितना मज़बूत होगा, दुनिया उसकी बात भी उतनी ही ज़्यादा सुनेगी. इस मज़बूती का वास्ता सैन्य मज़बूती भर से नहीं है, उस आर्थिक हैसियत से है जिससे हम दुनिया को प्रभावित कर सकते हों. इस आर्थिक हैसियत के साथ वह सामाजिक समरसता भी ज़रूरी है जो भारत को अंदरूनी ताकत देती हो. क्योंकि यह बात अलक्षित नहीं की जा सकती कि विकास के तमाम दावों के बावजूद भारत में कई अंदरूनी संकट बचे हुए हैं जो अलग-अलग असंतोषों की उपज हैं. जाहिर है, सामाजिक न्याय और बराबरी के बहुत सारे लक्ष्य अधूरे हैं जिन्हें हासिल करके ही हम वह भारत बना सकते हैं जिसकी बात दुनिया सुने और जिससे फिर पाकिस्तान डरे. लेकिन यह लक्ष्य हासिल करने के लिए हमें युद्धवाद के बीमार मनोविज्ञान से उबरना होगा.

(प्रियदर्शन एनडीटीवी इंडिया में सीनियर एडिटर हैं)

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