निस्संदेह, श्रीदेवी की मौत बेहद दुखद है. वह ऐसे समय पर गईं, जब अभिनय की दूसरी पारी शुरू कर रही थीं और कम से कम दो हिट फिल्में उनके नाम थीं. 'इंगलिश-विंगलिश' और 'मॉम' में वह बिल्कुल केंद्रीय भूमिकाओं में थीं और लोग उम्मीद कर रहे थे कि वह कुछ और कामयाब फिल्मे देंगी.लेकिन मीडिया ने उनकी मौत का जिस तरह तमाशा बनाया, उसके दो बुरे नतीजे हुए. एक तो यह कि एक पारिवारिक हादसा - जो बहुत दिल तोड़ने वाला था - एक सनसनीखेज क्राइम केस में बदलता नज़र आया. दूसरा यह कि श्रीदेवी के अभिनय या योगदान का जो उचित मूल्यांकन होना चाहिए था, वह संभव नहीं हुआ. इसकी जगह अचानक बहुत फिल्मी किस्म का छाती-पीटू दृश्य नज़र आया, जिसमें श्रीदेवी 'भूतो न भविष्यतो' जैसी दिखाई पड़ने लगीं. मगर सच क्या है.
इसमें कोई शक नहीं कि वह एक दौर की सुपरस्टार रहीं. कहा जाता है कि उन्हें अपने समय के पुरुष कलाकारों के मुकाबले ज़्यादा पैसे दिए जाते थे. इसमें भी शक नहीं कि उनकी फिल्मों के कई गीतों पर आज तक युवा थिरकते हैं, लेकिन अगर 'सदमा' और कुछ हद तक 'लम्हे' को छोड़ दें, तो उनके खाते में बड़ी फिल्में कौन सी हैं...? 'हिम्मतवाला', 'मवाली', 'तोहफा' या 'जस्टिस चौधरी' जैसी फिल्में अपने समय में चाहे जितनी चर्चित या कामयाब रही हों, लेकिन वे चालू फिल्में थीं. 'नागिन', 'मिस्टर इंडिया' और 'चांदनी' भी बड़ी फिल्में नहीं थीं. बेशक, इस कामयाबी के साथ श्रीदेवी ने वह जगह कुछ भर दी, जो '70 और '80 के दशकों में रेखा, हेमा मालिनी, परवीन बॉबी और ज़ीनत अमान के हाशिये पर जाने से ख़ाली हुई थी. लेकिन वह कहीं से रेखा की बराबरी नहीं करती थीं. जिस दौर में श्रीदेवी की ये सारी फिल्में रिलीज़ हुईं, उसी दौर में रेखा ने 'उमराव जान', 'बसेरा', 'इजाज़त' और 'उत्सव' जैसी वे फिल्में दीं, जिनके मुक़ाबले श्रीदेवी की एक भी फिल्म नहीं ठहरती.
दरअसल '80 के दशक में पांच से सात बरस का छोटा-सा अंतराल है, जब श्रीदेवी सबसे बड़ी स्टार रहीं. इत्तफाक से इस दौर में बड़े सुपरस्टार भी नहीं रहे. श्रीदेवी की तरह ही अनिल कपूर भी उन दिनों बन रहे थे. अमिताभ बच्चन, विनोद खन्ना या धर्मेंद्र की पीढ़ी हाशिये पर जा रही थी और तीनों ख़ान उभरे नहीं थे, इसलिए बहुत संभव है कि श्रीदेवी को अपने साथी कलाकारों के मुक़ाबले ज़्यादा पैसे मिलते रहे हों. लेकिन अमिताभ की जादुई लोकप्रियता के दौर में कौन अभिनेत्री उनसे बराबरी की बात सोचती...?
सच तो यह है कि श्रीदेवी का जादू बहुत जल्दी टूट गया. 'तेज़ाब' और 'राम लखन' जैसी फिल्मों के साथ माधुरी दीक्षित ने ऐसी हलचल मचाई कि लोग श्रीदेवी को भूलने लगे. रही-सही कसर जूही चावला और ऐश्वर्या राय के आगमन ने पूरी कर दी. कायदे से देखें, तो श्रीदेवी से ठीक पहले रेखा और श्रीदेवी के ठीक बाद माधुरी दीक्षित वे तारिकाएं हैं, जो रजत पट पर कहीं ज़्यादा लंबे समय तक और कहीं ज़्यादा शान से राज़ करती रहीं.
यह श्रीदेवी का योगदान कम करने की कोशिश नहीं है, बस चीज़ों को सही परिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश है. आख़िर हिन्दी सिनेमा एक साथ कई सितारों, कई तारिकाओं का सिनेमा रहा है. जिसे मुख्यधारा कहते हैं, उसकी भी कई धाराएं होती हैं.
बेशक, श्रीदेवी इस मायने में बड़ी रहीं कि उन्होंने हिन्दी के अलावा तमिल-तेलुगू फिल्में भी काफ़ी कीं. वह बहुत समर्थ अभिनेत्री थीं और मासूमियत और मांसलता को एक साथ साधना उन्हें भरपूर आता था. बहुत कम अभिनेत्रियां ऐसी रहीं, जिनका नाम मुहावरे में बदल गया हो. लेकिन 'खुद को श्रीदेवी समझती है' जैसे चालू मुहावरे एक दौर में चलते थे. इसके अलावा संगीत के लिहाज़ से कुछ विपन्न '70 और '80 के दशकों की हिन्दी फिल्मों में थिरकते संगीत की शानदार वापसी श्रीदेवी पर फिल्माए गए कई गीतों के साथ होती दिखती है. यह छोटी बात नहीं है.
कुल मिलाकर वह भारतीय अभिनेत्रियों की परंपरा में बड़ा नाम थीं, जिनका चालू फिल्म निर्देशकों ने भरपूर इस्तेमाल किया, लेकिन इस प्रतिभा का बड़ी फिल्मों के लिए उपयोग कम दिखता है. हिन्दी फिल्मों के सही मूल्यांकन के लिए यह ज़रूरी है कि यह भी समझा जाए कि इस संसार ने श्रीदेवी के ज़रिये बड़े पैसे कमाए, लेकिन बड़ी फिल्में नहीं बनाईं. वैसे यह दुर्घटना बहुत सारे दूसरे कलाकारों के साथ भी घटित हुई है.
वीडियो: श्रीदेवी की अंतिम यात्रा में उमड़े प्रशंसक प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.