राफेल सौदे पर महालेखाकार की (CAG) रिपोर्ट जैसे ही राज्यसभा में पेश की गई, वित्त मंत्री अरुण जेटली ने ट्वीट्स की झड़ी लगा दी- महागठबंधन को झूठा बताया, नए-पुराने सौदों की तुलना पर अपनी पीठ थपथपाई और कहा कि जो लगातार झूठ बोलते हैं, लोकतंत्र उनको इसी तरह दंडित करता है.
फिलहाल इस विषयांतर को स्थगित रखें कि 2014 की मोदी लहर के बावजूद किस तरह लोकतंत्र ने जेटली को दंडित किया था, लेकिन सीएजी रिपोर्ट को ही कुछ करीब से देखें तो समझ में आता है कि सरकार रिपोर्ट के वे हिस्से छुपा रही है जहां उसकी कमज़ोरियां दिखती हैं.
मिसाल के तौर पर रिपोर्ट में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि 2007 में जो सौदा हो रहा था, उसमें बैंक गारंटी, परफॉर्मेंस गारंटी और वारंटी की बात थी, जबकि 2016 के सौदे में बैंक गारंटी न रखे जाने का फ़ायदा भारत को नहीं, सीधे दसॉ एविएशन को मिल रहा है.
रिपोर्ट के मुताबिक भारत सरकार इस सौदे के लिए जो अग्रिम भुगतान करती, उस पर दसॉ एविएशन को 15 फ़ीसदी बैंक गारंटी देनी थी. यह गारंटी तब तक चलती रहती जब तक दसॉ एविएशन से इस रक़म के बराबर की आपूर्ति नहीं हो जाती. इस गारंटी का बैंक चार्ज कई मिलियन यूरो का होता. दसॉ के मुताबिक बैंक दर 1.25 फ़ीसदी सालाना होती जबकि भारतीय बातचीत टीम के मुताबिक यह .38% पड़ती. यही नहीं, 2007 में परफॉर्मेंस गारंटी और वारंटी का भी प्रावधान था जिसके मुताबिक कंपनी को कुल करार की क़ीमत की 10 फ़ीसदी गारंटी देनी पड़ती. यह गारंटी सारी आपूर्ति होने तक चलती जिसका कुल समय करीब 5.5 साल होता. जब ये गारंटियां नहीं रहीं तो इस बचत का फायदा किसको मिला? सीएजी की रिपोर्ट नोट करती है कि इसका फायदा दसॉ ने उठा लिया, मंत्रालय को नहीं दिया.
लेकिन बैंक गारंटी क्यों नहीं हुई? ये मुद्दा बार-बार उठता रहा है. सरकार के नुमाइंदे बताते हैं कि दो संप्रभु देशों के बीच जब सौदा होता है तो उसमें ये छोटी-छोटी बातें नहीं होती हैं. लेकिन यहां भी सीएजी की रिपोर्ट में कई इशारे मिलते हैं. पहली बात तो यही सामने आती है कि भारत सरकार के कानून मंत्रालय ने बाकायदा सलाह दी थी कि फ्रांस सरकार के साथ समझौते में बैंक या संप्रभु गारंटी ली जाए. फ्रांस सरकार ने न बैंक गारंटी की बात मानी न संप्रभु गारंटी की. उसने इनकी जगह एक लेटर ऑफ कंफ़र्ट पकड़ा दिया जिस पर उसके प्रधानमंत्री के दस्तख़त थे. (बस याद रख लें कि फ्रांस की व्यवस्था में राष्ट्रपति सत्ता का प्रमुख होता है, प्रधानमंत्री नहीं- सौदा राष्ट्रपति ने किया था प्रधानमंत्री ने नहीं.)
बहरहाल, सीएजी की रिपोर्ट बताती है कि 2016 में सुरक्षा मामलों की केंद्रीय समिति के सामने यह मसला आया. यह सवाल उठा कि क्या भारत लेटर ऑफ कंफर्ट को स्वीकार कर ले? सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी ने इस पर भी मुहर लगा दी. लेकिन साथ में सुझाव दिया कि फ्रांस से अगर संप्रभु या बैंक गारंटी न मिल रही हो तो अन्य संबद्ध गारंटियां या आश्ववस्तियां ली जाएं. समिति ने ये सुझाव भी दिया कि एक एस्क्रो एकाउंट बनाया जाए और फ़्रांस सरकार यह निगरानी करे कि आपूर्तिकर्ता इस अकाउंट का सही इस्तेमाल कर रहे हैं या नहीं. लेकिन फ़्रांस सरकार ने केंद्रीय समिति का यह सुझाव भी नहीं माना. अंततः इस बात पर सहमति बनी कि फ्रांस के नियंत्रण वाले किसी बैंक में अकाउंट खुलेगा और फ्रांसिसी पक्ष इस पर नियंत्रण और निगरानी रख सकता है.
सीएजी की रिपोर्ट में जो तथ्य सबसे हैरान करता है, वह किसी कानूनी विवाद की स्थिति में भारत सरकार की हैसियत है. भारत सरकार ने समझौता फ्रांस सरकार से किया है, लेकिन उसे निबटना दसॉ एविएशन से होगा. समझौते के मुताबिक अगर कोई विवाद होता है तो भारत और दसॉ के बीच आर्बिट्रेशन- यानी मध्यस्थता- का मामला बनेगा. अगर इस आर्बिट्रेशन में फ़ैसला भारत सरकार के पक्ष में आता है तो दसॉ की देनदारी बनेगी. लेकिन दसॉ अगर किसी वजह से भुगतान करने को तैयार नहीं होता तो भारत को दूसरे कानूनी विकल्प तलाश करने होंगे. जब ये सारे विकल्प चुक जाएंगे तब फ़्रांस सरकार दसॉ की ओर से भुगतान करेगी. सीएजी ने इस पर अपनी कोई राय नहीं दी है, बस मंत्रालय का जवाब नत्थी कर दिया है. मंत्रालय के मुताबिक यह दो ऐसे संप्रभु देशों के बीच का समझौता है जो रणनीतिक तौर पर साझेदार हैं. इसके अलावा कानून मंत्रालय के सुझाव पर दसॉ के अलावा फ्रांस सरकार को भी 'साझा और कई' स्तर पर जवाबदेह बनाया गया है.
लेकिन यह है दो संप्रभु देशों के बीच समझौते की हक़ीक़त- जिसमें फ़्रांस सरकार भारत सरकार से महज एक पार्टी की तरह पेश आ रही है. उसकी सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी के सुझाव तक नहीं माने जा रहे.
बाकी न रफ़ाल के दाम रिपोर्ट में हैं और न ही ऑफ़सेट पार्टनर की कोई एकाउंटिंग है. लेकिन यह सब न होते हुए भी छुपाते-छुपाते जितनी बातें सामने आ जा रही हैं, उनसे जाहिर है कि रफ़ाल सौदे की ऑडिटिंग सीएजी के लिए आसान नहीं रही है. यह तब होता है जब सरकारें करती कुछ हैं और चाहती हैं कि संदेश कुछ और जाए.