विज्ञापन
This Article is From Jan 15, 2021

एक मंदिर के लिए राष्ट्रपति का चंदा देना कितना उचित है?

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जनवरी 15, 2021 16:10 pm IST
    • Published On जनवरी 15, 2021 16:07 pm IST
    • Last Updated On जनवरी 15, 2021 16:10 pm IST

देश के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने राम मंदिर निर्माण के लिए पांच लाख एक सौ रुपये का चंदा दिया है. कहा जा सकता है, वे भले ही देश के राष्ट्रपति हैं, लेकिन साथ ही एक आस्थावान हिंदू भी हैं और इस नाते उन्हें अधिकार है कि अपनी आस्था के अनुसार चंदा दें.लेकिन राष्ट्रपति क्या आम नागरिक होता है? क्या उसे अपने धर्म या जाति के प्रति अपनी निष्ठा का ऐसा सार्वजनिक प्रदर्शन करना चाहिए? ख़ासकर ऐसे मामले में जिसका वास्ता सदियों पुराने विवाद से रहा है? 

मान लें, राष्ट्रपति को अपनी आस्थाएं प्रिय हैं. लेकिन वे ऐसी स्थिति में गोपनीय दान भी कर सकते थे. उनकी आस्था भी अखंडित रहती और उनके पद की मर्यादा भी बची रह जाती. क्या उन्हें संदेह था कि उनका गोपनीय दान ईश्वर या राम के लिए गोपनीय रह जाएगा? ईश्वर अगर सब कुछ देखता है तो उनका यह दान भी देख लेता. लेकिन यह तब होता जब राष्ट्रपति सिर्फ़ राम को दिखाना चाहते. वे निश्चय ही चाहते रहे होंगे कि देश देखे कि उन्होंने राम मंदिर के लिए पांच लाख का चंदा दिया है. सौ रुपये सगुन के लिए भी मिलाए हैं क्योंकि शून्य पर ख़त्म होने वाली राशि हिंदू परंपरा में अशुभ मानी जाती है. कहा जा सकता है कि राम ने ही उन्हें इस लायक बनाया कि वे राष्ट्रपति हो सकें तो वे राम के लिए सहज भाव से कृतज्ञता ज्ञापन कर रहे थे.

लेकिन कुछ कृतज्ञता-ज्ञापन इस देश का भी बनता है, उस संविधान का भी बनता है और उस लोकतंत्र का भी बनता है जो सदियों के भेदभाव के विरुद्ध कुछ इस तरह खड़ा हो गया कि रामनाथ कोविंद को इस देश का राष्ट्रपति बनने का मौक़ा मिला. अगर यह संविधान और यह लोकतंत्र न होता तो राष्ट्रपति बनाना तो दूर, इस देश की अगड़ी जातियां शायद कोविंद को मंदिर में प्रवेश का अधिकार भी नहीं देतीं. उनका चंदा भी अस्पृश्य करार दिया जाता.

बरसों पहले भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने बनारस में 500 ब्राह्मणों के पांव धोए थे. तब जाने-माने समाजवादी चिंतक और नेता डॉ राम मनोहर लोहिया ने, जिनका नाम गाहे-बगाहे प्रधानमंत्री भी ले लिया करते हैं, इसकी तीखी निंदा की थी. कहा था कि यह एक अश्लील दृश्य है कि देश का राष्ट्रपति किसी के पांव बस इसलिए धोए कि वह ब्राह्मण हैं. यह जातिवाद को मज़बूत करना है, देश को उदासी में धकेलना है. रामनाथ कोविंद ने भी राष्ट्रपति रहते जो कुछ किया है, वह भी एक तरह से संप्रदायवाद को मज़बूत करने वाला है, देश को उदासी में धकेलने वाला है.

पूछा जा सकता है कि रामनाथ कोविंद ने चंदा दे ही दिया तो क्या हो गया? देश में एक धार्मिक कार्य हो रहा है तो इसके लिए चंदे पर इतनी हायतौबा क्यों. यह चंदा भी उस राम मंदिर के लिए है जिसे सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद सरकार द्वारा निर्मित एक ट्रस्ट बना रहा है.क्योंकि राष्ट्रपति इस देश के राजनीतिक प्रमुख नहीं होते.वह बहुत सारे अर्थों में- बल्कि सभी अर्थों में राष्ट्र के प्रमुख भी होते हैं. वे सरकार के भी मुखिया हैं, तीनों सेनाओं के भी प्रधान हैं और इस देश के एक-एक नागरिक के अभिभावक हैं. उन्हें राजनीतिक दलबंदियों से, धार्मिक और जातिगत पहचानों से, क्षेत्रीय या भाषिक पहचानों से ऊपर उठना पड़ता है. देश के सारे राजकीय अनुष्ठान उन्हीं के नाम पर होते हैं. वे बिल्कुल राष्ट्र का प्रतीक होते हैं.

दुख के साथ कहना पड़ता है कि राष्ट्रपति महोदय ने इस राष्ट्र का सम्मान नहीं रखा, इस प्रतीक की मर्यादा भंग की. उन्होंने संविधान की उस लिखित परंपरा और अलिखित भावना के साथ छल किया जो इस देश में सबको बराबरी के साथ जीने और रहने का अधिकार देती है और मानती है कि राज्य को इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए.राष्ट्रपति के निर्णय का यह सैद्धांतिक पक्ष है. व्यावहारिक पक्ष इससे ज़्यादा बुरा है. राष्ट्रपति से 5 लाख रुपये से चंदा लेने वालों का उत्साह कई गुना बढ़ गया होगा. अभी ही इस बात का अंदेशा जताया जा रहा है कि राम मंदिर के लिए चंदा जुटाने के नाम पर कहीं ज़ोर-ज़बरदस्ती न हो और समाज में नए टकराव न पैदा किए जाएं. घर-घर जाकर चंदा वसूलने की प्रवृत्ति में यह ख़तरा निहित है. राम मंदिर निर्माण से जुड़ी संस्थाओं को बहुत स्पष्ट आदेश जारी करना चाहिए कि लोगों के घर जाकर चंदा न लिया जाए, उन्हें प्रोत्साहित किया जाए कि वे अपनी मर्ज़ी से अपने मोहल्ले, शहर या जिले में बने केंद्रों पर ही चंदा दें.

लेकिन हम सब जानते हैं, ऐसा नहीं होगा. राम मंदिर आंदोलन का अतीत यह आश्वस्ति नहीं देता. राम मंदिर बस अदालत के एक आदेश से नहीं बन रहा, वह सत्तर साल पहले चोरी-चुपके मस्जिद में रखी गई मूर्तियों का भी नतीजा है, 90 के दशक में हुई उस रथयात्रा की भी देन है जिसमें रथ के चक्के के साथ-साथ ख़ून की लकीरें भी बना करती थीं, ह 6 दिसंबर 1992 के उन्मादी अपराध का भी नतीजा है जिसमें 400 साल पुरानी मस्जिद गिरा दी गई. वह एक उद्धत और नकली राष्ट्रवाद पैदा करने की कोशिश का भी नतीजा है. अब यह दुहराने का कोई फ़ायदा नहीं है कि मर्यादा पुरुषोत्तम अपने लिए ऐसा मंदिर पाकर कितने ख़ुश होंगे.लेकिन यह कहना ज़रूरी है कि राष्ट्रपति ने पांच लाख का चंदा देकर इस समूचे सिलसिले से ख़ुद को जोड़ लिया है. यह राष्ट्रपति के ओहदे को ही नहीं, राष्ट्र को भी छोटा करना है. राष्ट्र को उस उदासी की ओर धकेलना है जिसकी ओर कभी डॉ राममनोहर लोहिया ने इशारा किया था.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) :इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com