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This Article is From Jan 30, 2018

एक देश एक चुनाव का शोशा

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जनवरी 30, 2018 22:44 pm IST
    • Published On जनवरी 30, 2018 22:44 pm IST
    • Last Updated On जनवरी 30, 2018 22:44 pm IST
मसला लोकसभा-विधानसभा चुनाव साथ कराने का है. लेकिन केंद्र सरकार इसे 'एक देश एक चुनाव' बता रही है- शायद इसलिए कि एक देश की बात करने से समर्थन जुटाने में आसानी होती है. हालांकि तथ्य के तौर पर यह गलत है. अगर केंद्र सरकार का सुझाव चल भी निकले तो एक देश में एक साथ चुनाव होंगे, लेकिन कई चुनाव होंगे. 

लेकिन एक साथ ये चुनाव कैसे होंगे? सिर्फ यूपी में चुनाव हुए तो सात चरणों में हुए. बिहार में भी पांच चरणों की नौबत आई. कुछ छोटे राज्यों को छोड़ दें तो ज़्यादातर राज्यों में दो से ज्यादा चरणों में चुनाव कराने पड़ते हैं. चुनाव आयोग जब पूरे देश में चुनाव कराएगा तो क्या वे चुनाव साल भर चलेंगे? और क्या लोग साल-साल भर नतीजों का इंतजार करेंगे? अगर नहीं तो चुनाव कराने के लिए इतने सारे सुरक्षा-बल, ईवीएम, वीवीपैट और सरकारी कर्मचारी कहां से आएंगे?

कुछ देर के लिए मान लें कि अपने क्रांतिकारी सुझाव पर अमल करने के लिए केंद्र सरकार इतने सारे संसाधन जुटा लेगी. लेकिन एक साथ चुनाव कराने के सैद्धांतिक पक्ष उसके व्यावहारिक पक्ष से ज्यादा खतरनाक हैं. 

दरअसल एक साथ चुनाव की परिकल्पना ही देश के संघीय ढांचे पर एक चोट है. भारत की संघीय व्यवस्था में राज्यों को बहुत सारे अधिकार हैं. भारत की ऐतिहासिक, भौगोलिक और सांस्कृतिक विविधता को देखते हुए इनकी जरूरत महसूस की गई और माना गया कि देश इसी संघीय ढांचे में साथ चलेगा, फूलेगा-फलेगा. अभी तक इस संघीय ढांचे ने देश को निराश नहीं किया है. बेशक अब चुनाव जल्दी-जल्दी हो रहे हैं, लेकिन यह संवैधानिक नहीं, राजनीतिक विवशता है, क्योंकि सरकारें अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पा रहीं. 

साथ चुनाव कराने के ख़याल में कई तरह की विसंगतियां हैं- कई ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब देना मुश्किल है. मसलन अगर कभी लोकसभा में गठजोड़ की सरकार बनी और दो साल बाद गिर गई- जिसके उदाहरण हमने कई बार देखे हैं- तो क्या होगा? क्या अगले तीन साल राष्ट्रपति शासन लगा रहेगा? या फिर केंद्र में चुनाव कराने के लिए राज्यों को भी मजबूर किया जाएगा कि वहां विधानसभाएं भंग की जाएं और चुनाव एक साथ हों? या इसी कल्पना को पलट दें. अगर किसी राज्य में कोई सरकार साल-दो साल बाद गिर जाए तो क्या होगा? क्या वहां अगले तीन-चार साल राष्ट्रपति शासन लगाया जाएगा? 

दरअसल, मध्यावधि चुनावों की व्यवस्था इसीलिए की गई है कि सरकार गिरने की स्थिति में जनता अपने मत का फिर से इस्तेमाल करे और नई सरकार चुने. अगर यह व्यवस्था ख़त्म कर दी गई तो वह राजनीतिक जड़ता और निरंकुशता कुछ और बढ़ेगी जो अब भी अपने शिखर पर है. दिलचस्प ये है कि जब चुनावों में प्रत्याशी को वापस बुलाने के अधिकार तक पर चर्चा हो रही है तब हम मध्यावधि चुनावों को ख़त्म करने की अवधारणा पर विचार कर रहे हैं. क्योंकि अगर मध्यावधि चुनावों की व्यवस्था रही तो केंद्र और राज्यों में एक साथ चुनाव कराने की व्यवस्था नहीं बन सकती.

दरअसल यह पूरा प्रस्ताव संसदीय लोकतंत्र को व्यक्ति आधारित बनाने की बीजेपी की पुरानी चाहत का नया रूप है. संसदीय राजनीति का रूप बदलने की उसकी यह कोशिश पहली नहीं है. इसके पहले अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते लालकृष्ण आडवाणी जब-तब राष्ट्रपति शासन प्रणाली का राग छेड़ा करते थे. अब बीजेपी को लगता है कि केंद्र और राज्यों में एक साथ चुनाव होंगे तो अलग-अलग राज्यों में मुख्यमंत्री का चेहरा उसे नहीं तलाशना होगा, प्रधानमंत्री के नाम पर वह चुनाव लड़ लेगी.

लेकिन भारतीय संविधान अपने सारे लचीलेपन के बावजूद आसानी से किसी बड़े उलटफेर की इजाज़त नहीं देता. उसमें शक्तियों का जो अचूक संतुलन है, वह संसदीय लोकतंत्र और संघीय ढांचे के ख़िलाफ़ जाने वाले किसी भी विचार को ख़ारिज करता है. केंद्र सरकार को यह एहसास है इसलिए वह इस प्रस्ताव को 'एक देश एक चुनाव' के अन्यथा आकर्षक लगने वाले रैपर में लपेट कर पेश कर रही है. उम्मीद करनी चाहिए कि ऐसे प्रस्ताव अंततः मुंह की खाएंगे और वह संघीय व्यवस्था बनी रहेगी जिसमें स्थानीय महत्वाकांक्षाएं और हसरतें अपनी इलाकाई राजनीति को अपने ढंग से आकार देती रहेंगी. 

प्रियदर्शन एनडीटीवी इंडिया में सीनियर एडिटर हैं

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