वो मुजरिम नहीं थे, लेकिन उनके सिर कलम कर लिए गए। उनके परिवार उनकी राह देखते रहे, लेकिन पहुंची बस उनके मारे जाने की ख़बर। उनका गुनाह बस इतना था कि वो सच को अपनी आंखों से देखना समझना चाहते थे। राजनीति की दी हुई कैफ़ियतें उन्हें मंज़ूर नहीं थी। वो देखना चाहते थे कि सीरिया से लेकर इराक़ तक में जो वहशत जारी है, उसके पीछे कितनी अमेरिकी सियासत है और कितनी इस्लामी दहशत।
वो जानना चाहते थे कि वहां बंदूकों और बमों के धमाकों के बीच जो सभ्यताएं उजड़ रही हैं, जो बच्चे मारे जा रहे हैं, उन्होंने क्या कसूर किया है। लेकिन पहले वो अगवा किए गए और मारे गए।
अमेरिका देखता रहा, नाराज़ दिखता रहा, कुछ और बम, और मिसाइलें फेंकता रहा, लेकिन ये मासूम जानें बचाई नहीं जा सकीं। अख़बारों की सुर्खियों से लेकर टीवी चैनलों तक दिखने वाले नामों और चेहरों से भरी पत्रकारिता की ये दुनिया जिन लोगों को बहुत रंगीन और ताकतवर लगती है, उन्हें इस सच का ये दूसरा पहलू भी देखना चाहिए।
पत्रकारों के हाथ में कलम दिखती है, कैमरे दिखते हैं, लेकिन उनके पांवों में लगी धूल नज़र नहीं आती। उनके कंधों से बहता पसीना नहीं दिखता, उनके सीने पर पड़ने वाली गोलियां नहीं दिखतीं।
जब किसी पत्रकार का सिर कलम किया जाता है तो सरकारें तरह−तरह के दावे करती हैं। सिर्फ ये हक़ीक़त छुपाने के लिए कि ख़ून खराबे से भरी ये जो दुनिया है, वो राजनीति ने ही बनाई है।
सीरिया से जो दहशतगर्द अब इराक में दाखिल हो गए हैं, उन्हें कभी बागियों की शक्ल में हथियार और गोला−बारूद इन्हीं ताकतों ने मुहैया कराए हैं। पत्रकार नहीं देखता है तो मारा जाता है, देखता है तब भी मारा जाता है। जब वो चुप रहता है, तो मारा जाता है।
लेकिन, जब बोलता है तब भी मारा जाता है। लेकिन देखना और बोलना फिर भी ज़रूरी है क्योंकि किसी भी शक्ल में बचे रहने की वह इकलौती शर्त है− सिर्फ किसी एक पेशे के लिए नहीं पूरी कौम के लिए पूरे अवाम के लिए।