शंबूक पैदा होते रहेंगे, संस्कृत का क्या होगा?

संस्कृत और धर्म की श्रेष्ठता का अहंकार पालने वाले लोगों को अंततः इतिहास धूल में मिला देता है- यह संस्कृत का ही हाल बताता है.

शंबूक पैदा होते रहेंगे, संस्कृत का क्या होगा?

पूर्व वैदिक काल के वे ऋषि निश्चय ही तेजस्वी रहे होंगे जिन्होंने संस्कृत जैसी समृद्ध भाषा रची. अपनी बहुत सारी विसगंतियों के बावजूद वैदिक साहित्य का एक हिस्सा विश्व की ज्ञान और दर्शन की परंपरा का अनमोल हिस्सा है. पाणिनी जैसे उद्भट वैयाकरण ने 2500 साल पहले 4000 सूत्रों जैसी 'अष्टाध्यायी' रच डाली थी और व्याकरण के नियम निर्धारित किए थे, यह सोच कर भी विस्मय होता है. उनके बाद संस्कृत ने कालिदास जैसे महाकवि पैदा किए और शूद्रक जैसे अद्भुत नाटककार. रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथ इस भाषा में लिखे गए जो दुनिया में अपनी तरह के अद्वितीय ग्रंथ हैं. लेकिन ऐसा क्या हुआ कि ऐसी अद्भुत अद्वितीय भाषा कालक्रम में लगभग विलोप के कगार पर पहुंच गई? वे कौन लोग थे जिन्होंने संस्कृत को धर्म और शुचिता की ऐसी बेड़ियों में बांधा कि उसकी सारी जीवंतता घुटकर रह गई? वे कौन लोग थे जिन्होंने शंबूक को वेद पढ़ने पर दंडित करने की मांग की थी और जिनके प्रभुत्व के आगे मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाने वाले राम को भी झुकना पड़ा था?

दरअसल शंबूक वध से संस्कृत के वध की कथा भी शुरू होती है. जिन लोगों ने तय किया कि संस्कृत धर्म और वर्ण के आधार पर बस कुछ लोगों का विशेषाधिकार रहेगी, उन्होंने संस्कृत का स्मृतिलेख तभी लिख दिया. संस्कृत से वंचित लोगों ने अपने लिए अलग भाषाएं ईजाद कर लीं- आख़िर किसी भी समाज का काम भाषा के बिना नहीं चलता.

कथा के मुताबिक शंबूक को इसलिए मारा गया कि एक ब्राह्मण का मृत बेटा जी सके. शंबूक मरा नहीं, ब्राह्मण के बेटे संस्कृत को मार-मार कर जीते रहे. धीरे-धीरे वह अशुद्ध भाषा में अबूझ मंत्र पढ़ते पंडितों के पाखंड की भाषा होती चली गई. बुद्ध और महावीर जब हुए तो उन्होंने इस भाषा को अपने लिए अपर्याप्त माना. उन्होंने लोक तक पहुंचने के लिए पाली का सहारा लिया. भाषाएं आगे बढ़ती रहीं- पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, अवधी, ब्रज एक बड़ी परंपरा बनाते रहे. रामकथा अब वाल्मीकि रामायण की मोहताज नहीं रही, वह तुलसी की रामचरित मानस के सहारे जन-जन तक पहुंच पाई. चाहें तो याद कर सकते हैं कि बनारस में ही आज के उपद्रवियों के वैचारिक पुरखों ने तुलसीदास को जनभाषा में रामचरितमानस लिखने से रोकने की कोशिश की थी. अमृतलाल नागर का उपन्यास 'मानस के हंस' विस्तार में बताता है कि कैसे तुलसी की पांडुलिपि को जलाने की कोशिश हुई और तुलसीदास बनारस से अयोध्या आने-जाने को मजबूर हुए. इसी तरह कृष्ण की कथा को सूरदास और रसख़ान ने बचाया.

इस दौरान संस्कृत ग्रंथों का क्या होता रहा? वे लोगों की स्मृतियों से उतरते गए और किन्हीं तहख़ानों में पड़े रहे. ह्वेनसांग और मैगस्थनीज के यात्रा वृत्तांतों में उनका ज़िक्र बचा रहा. बाद में उनके अनुवाद दारा शिकोह जैसे फ़ारसी के विद्वानों ने किए. आधुनिक समय में मैक्समूलर जैसे यूरोपीय विद्वान न हुए होते तो भाषा की यह बेहद समृद्ध परंपरा न जाने कहां बिला गई होती. इस लिहाज संस्कृत की परंपरा को अंग्रेजों का आभारी होना चाहिए कि उन्होंने ज्ञान की यह संपदा बचा ली.

आज का सच यही है कि संस्कृत विश्वविद्यालयों के संस्कृत विभागों और अभिलेखागारों में पड़ी हुई भाषा है. कुछ टोलों में किसी ज़िद की तरह यह भले बोली जाती हो, लेकिन वह किसी भी प्रदेश की भाषा नहीं है. यहां तक कि संस्कृत साहित्य को उद्धृत करने वाले अधिकतर विद्वान मूल संस्कृत पाठ की जगह उनके अंग्रेज़ी अनुवादों की मदद लेते देखे जाते हैं. संस्कृत पठन-पाठन के नाम पर एक लुंजपुंज संस्कृति विकसित हो गई है.

संस्कृत और फ़िरोज़ ख़ान में आर्य-अनार्य का फ़र्क देखने वाले जाहिलों को यह भी नहीं मालूम कि भाषाशास्त्र की दृष्टि से संस्कृत और फ़ारसी एक ही परिवार की भाषाएं हैं. भारोपीय कहलाने वाले इस भाषिक परिवार के स्रोत और सूत्र आपस में इस तरह मिलते हैं कि अचरज होता है. अंग्रेज़ी, फ़ारसी और संस्कृत में मिलने वाले 'ब्रदर', 'बिरादर' और 'भ्रातृ' जैसे शब्द हों या फिर 'डॉटर', 'दुख़्तर' और 'दुहिता' जैसी संगति, या फिर 'सेंचुरी', 'सदी' या 'शताब्दी' जैसी कालगणना- यह रिश्ता बहुत बड़ा है और बहुत दूर तक फैला है.

दरअसल समझने की बात बस यही है कि भाषाएं हों या संस्कृतियां- वे आपस में मिल जुल ही विस्तृत होती हैं, लंबी उम्र पाती हैं. रक्तशुद्धता का आग्रह उनके लिए जानलेवा साबित होता है. वैसे भी सभ्यता में रक्तशुद्धता एक तरह का मिथक है. बेशक, भाषाओं को उनकी सत्ता का बल भी मिलता है, लेकिन वे बची रहती हैं और फैलती रहती हैं तो इसलिए कि वे एक-दूसरे से घुल-मिल कर नए प्राण और अर्थ अर्जित करती चलती हैं. अक्सर संस्कृत को भारतीय भाषाओं की माता कहने वाले भूल जाते हैं कि संस्कृत नानी या परनानी भले हो, माता नहीं है. बीच की बहुत सारी कड़ियां हैं जिनमें बहुत सारी नदियों का पानी मिला है. जो हिंदी आज हम बोलते हैं, उसे खड़ी बोली के रूप में खड़ा करने का काम सबसे पहले अमीर खुसरो ने किया. इस हिंदी पर अरबी और फ़ारसी की छाया इतनी बड़ी है कि अक्सर इसमें संस्कृत का समावेश कृत्रिम जान पड़ता है. अंग्रेजी का विकास दुनिया भर की भाषाओं के शब्द लेकर हुआ है- यह जानने के लिए बहुत विद्वान होने की ज़रूरत नहीं है.

संस्कृत के मौजूदा माहौल में फ़िरोज़ ख़ान जैसा कोई शिक्षक आता है तो वह घुटन भरे बंद कमरे की एक खिड़की खोलता है. लेकिन यह ताज़ा हवाएं शायद अब भी उन लोगों को मंज़ूर नहीं जिन्होंने एक अंधेरे में रहने का अभ्यास विकसित कर लिया है और चाहते हैं कि सारा समाज इसी अंधेरे की ओर बढ़े. बेशक, इनकी संख्या ज़्यादा नहीं है, लेकिन इन्हें लगता है कि इन्हें आज की सत्ता की उस वैचारिकी का बल हासिल है जो अतीत के गौरवगान की नकली परंपरा को संपूर्ण भारतीय परंपरा के पर्याय के रूप में स्थापित करना चाहती है.

लेकिन बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में फ़िरोज़ ख़ान संस्कृत की परंपरा पढ़ाएंगे तो वह परंपरा समृद्ध ही होगी. रामकथा का अध्ययन करने वाले कामिल बुल्के ने रामकथा को नए क्षितिज ही दिए. उनकी ईसाइयत इसमें आड़े नहीं आई. संस्कृत और धर्म की श्रेष्ठता का अहंकार पालने वाले लोगों को अंततः इतिहास धूल में मिला देता है- यह संस्कृत का ही हाल बताता है. लेकिन शंबूक वध की राजनीति आज भी जारी है- बिना यह समझे कि शंबूक फिर पैदा हो जाएंगे, संस्कृत पीछे छूटती जाएगी.

(प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...)

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